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संस्कार

संस्कार का अर्थ एवं उसकी उपादेयता

‘संस्कार’ शब्द ‘सम्’ उपसर्गपूर्वक ‘कृ’ धातु से भाव और करण में ‘घञ्’ प्रत्यय करके भूषण अर्थ में ‘सुट्’ का आगम करने पर संपन्न होता है | मण्डित, भूषित, अलंकृत करने के लिये अथवा सुन्दर, व्यवस्थित, गुणवान् एवं सुदृढ़ बनाने के लिए या सजाने और सँवारने के लिये अथवा दोषों को दूर कर के गुणों का आधान करने के लिये किया जाने वाला कर्म, क्रिया, विधि, पध्दति, सरणि या कार्य  संस्कार कहलाता है | आचार्य चरक कहते हैं- ‘ संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते’ (चरकसंहिता, विमान०१|२७) अर्थात् दुर्गुणों, दोषों का परिहार तथा गुणों का परिवर्तन कर के भिन्न एवं नये गुणों का आधान करने का नाम संस्कार है | निर्गुण को सगुण बनाना, विकारों एवं अशुध्दियों का निवारण करना तथा मूल्यवान् गुणों को संप्रेषित अथवा संक्रमित करना संस्कारों का कार्य है | निम्न उदाहरण से यह बात समझी जा सकती है – 

 जंगल में एक शुष्क वृक्ष का ठूँठ निर्जीव खड़ा रहता है | लकड़हारा उसको काट लाता है और उसे बढ़ई को सस्ते मुल्य में बेच देता है | बढ़ई उसको काटता है, छीलता है, तराशता है और उसके समस्त दोषों एवं गाँठों को दूर करके अपने उपादानों से उसमें गुणों को सँजोता है, उसे संस्कार  देता है, उसकी गुणवत्ता बढ़ाता है | उसको प्रयोग के योग्य बनता है, उसकी उपादेयता एवं आवश्यकता को सिद्ध करता है तथा उसका मूल्य बढ़ाता है | कुछ दिन पूर्व जो निर्जीव-सा पड़ा था, अब वह जीवन्त हो उठता है,  सजीव लगने लगता है, उस में मानो प्राणों का संचार होने लगता है | ऐसे ही संस्कारित वस्तु आकर्षक और मोहक लगने लगती  है | संस्कृत करने की यह क्रिया ही संस्कार नाम से जानी जाती है | किसी भी व्यक्ति अथवा वस्तु के अवगुणों और अशुद्धियों को अपास्त करके उस में गुणों का सम्प्रेषण या संक्रमण करना, उसकी उपयोगिता और मूल्य का संवर्धन करना संस्कार कहा जाता है |


लोहा, ताँबा, चाँदी, सोना, आदि सभी धातुएँ यहाँ तक की पत्थर भी खदान में से लाने पर तुरंत प्रयोग करने योग्य नहीं होते, किन्तु जब वे ही पाषाण तथा धातु शिल्पी के पास आते हैं तो वह उन्हें काटकर, छीलकर, तराशकर, अग्नि में तपाकर सुन्दर, सुयोग्य, चमकदार तथा आकर्षक मूर्ति अथवा आभूषण बना देता है, तब वे उपादेय हो जाते हैं, मूल्यवान और अमूल्य हो जाते हैं | संस्कारित हो जाने से उनकी गुणवत्ता बढ़ जाती है | जब यही अर्थ मानव के साथ प्रयुक्त होता है तो मानव संस्कारों से गुणवान, मूल्यवान एवं उपयोगी बन जाता है | 


व्यक्ति में जो कार्य संस्कार का है, समाज में वही कार्य संस्कृति का है | संस्कार व्यष्टि को सुधारते हैं तो संस्कृति समष्टि को सुधारती है | पशु से मानव बनाने का कार्य  संस्कार करते  हैं और समूह से समाज में परिवर्तित  करने का कार्य संस्कृति करती  है | संस्कृति समष्टि में परिष्कार करती है  तथा संस्कार व्यष्टि में | बिना व्यष्टि के समष्टि संभव नहीं, इसलिये संस्कारों के अभाव में संस्कृति का स्थान और आधार भी कुछ नहीं हो सकता | अतः संस्कृति को जीवित  रखने के लिये संस्कारों की अपरिहार्यरूप से आवश्यकता है | संस्कार, संस्कृति के आधार भूत केंद्र अथवा उद्गम-स्थल या मूलस्रोत अथवा उत्स है | दार्शनिक भाषा में इनका सम्बन्ध अन्वय और व्यतिरेक का सम्बन्ध है, जिसके होने पर जो हो, वह अन्वय और जिसके न रहने पर जो न रहे, वह व्यतिरेकीभाव-सम्बन्ध कहलाता है | संस्कारों के रहने पर संस्कृति रहेगी और संस्कारों के न रहने  पर संस्कृति भी नहीं रहेगी, यह सुनिश्चित तथ्यगत सत्य है | अतः संस्कार नींव के पत्थर हैं, जिनकी आधार शिला पर संस्कृति का विशाल भवन खड़ा किया जाता है | संस्कृति का अस्तित्व संस्कारों से अनुप्राणित है | 

   

मीमांसादर्शन के (३|१|३) सूत्र की व्याख्या में शबर स्वामी ने ‘संस्कार’ शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है – ‘संस्कारो नाम स भवति यस्मिञ्जाते पदार्थो भवति योग्यः कस्यचिदर्थस्य’ अर्थात् संस्कार वह है, जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के योग्य हो जाता है | तंत्रवार्तिक के अनुसार ‘योग्यतां चादधानाः क्रियाः संस्कारा इत्युच्यन्ते’ अर्थात् संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं, जो योग्यता प्रदान करती हैं | वह योग्यता दो प्रकार की होती है – १- पापमोचन से उत्पन्न योग्यता तथा २- नवीन गुणों से उत्पन्न योग्यता | संस्कारों से पापों का मार्जन और परिष्कार होता है |

वीरमित्रोदय में संस्कार की परिभाषा इस प्रकार की गयी है – ‘यह एक विलक्षण योग्यता है, जो शास्त्रविहित क्रियाओं के करने से उत्पन्न होती है | वह योग्यता दो प्रकार की है - १-जिस के द्वारा व्यक्ति अन्य क्रियाओं के योग्य हो जाता है | यथा- उपनयन- संस्कार से वेदारम्भ होता है तथा २ – दोष से मुक्त हो जाता है | यथा-जातकर्म-संस्कार से वीर्य एवं गर्भाशय का दोष मोचन होता है |’ 

मनुष्य माता के गर्भ से शिशु के रूप में जब जन्म लेता है, तब वह अपने साथ दो प्रकार के संस्कारों को लेकर आता है | एक प्रकार के संस्कार वे हैं, जो वह जन्म-जन्मान्तरों से अपने साथ लेकर आता है और दूसरे प्रकार के संस्कार वे हैं, जिन्हें वह अपने माता-पिता से संस्कारों के रूप में वंशानुक्रम से प्राप्त करता है | ये संस्कार अच्छे ओर बुरे – दोनों हो सकते हैं| वैदिक विचारधारा में मनुष्य-जन्म का उद्देश्य शुभ संस्कारों द्वारा अन्तः और बाह्य- दोनों प्रकार के मैलों को धोना है, उसे निखारते जाना है| पिछला मैल कैसे धोया जाय और नया रंग कैसे चढ़ाया जाय – यह सब कुछ इस जन्म के संस्कारों द्वारा हो सकता है | इस जन्म में शरीर के साथ सम्बध होकर ही तो आत्मा पकड़ में आती है |

जिस समय, जिस क्षण, आत्मा शरीर के बन्धन को प्राप्त हुई, उसी समय से, उसी क्षण से वैदिक विचारधारा उस पर उत्तम संस्कार डालना शुरू कर देती है और उस क्षण तक डालती रहती है, जब तक ‘आत्मतत्त्व’ शरीर को छोड़कर फिर तीरोहित नहीं हो जाता | यदि शुभ-संस्कारों की व्यवस्था नहीं होगी तो अशुभ-संस्कार तो स्वतः पड़ने की प्रतीक्षा भर कर रहे होते हैं | जैसे ही व्यक्ति शिथिल हुआ, वे अशुभ-संस्कार अपना प्रभाव और प्रताप दिखाने लगते हैं | अतः हमारे ऋषियों और मुनियों द्वारा जीवन के बीजवपन और अंकुरण से लेकर मृत्यु पर्यंत अर्थात् गर्भाधान-संस्कार से अन्त्येष्टि-संस्कार तक की व्यवस्था सुनिश्चित की गयी है | मानव-धर्मशास्त्र के प्रवर्तक महर्षि मनु ने लिखा है |


निषेकादिश्मशानान्तो मंत्रैर्यस्योदितो विधिः |

तस्यशास्त्रेऽधिकारोऽस्मिञ्ज्ञेयो नान्यस्य कस्यचित् ||

(मनु०२|१६)

संस्कारों का वर्णन और ब्रह्मचारी के धर्म

स्त्रियों के ऋतु धर्म की सोलह रात्रियाँ होती हैं, उनमें पहले की तीन रातें निन्दित हैं | शेष रातों में जो युग्म अर्थात् चौथी, छठी, आठवीं, और दसवीं आदि रात्रियाँ हैं, उनमें ही पुत्र की इच्छा रखनेवाला पुरुष स्त्री समागम करे | यह ‘गर्भाधान-संस्कार’ कहलाता है | ‘गर्भ’ रह गया – इस बात का स्पष्ट रूप से ज्ञान हो जाने पर गर्भस्थ शिशु के हिलने-डुलने से पहले ही ‘पुंसवन-संस्कार’ होता है | तत्पश्चात छठे या आठवें मास में ‘सिमन्तोन्नयन’ किया जाता है | उस दिन पुल्लिंग नामवाले नक्षत्र का होना शुभ है | बालक का जन्म होनेपर नाल काटने के पहले ही विद्वान् पुरुषों को उसका ‘जातकर्म-संस्कार’ करना चाहिये | सूतक निवृत होनेपर ‘नामकरण-संस्कार’ का विधान है | ब्राह्मण के नाम के अन्त में ‘शर्मा’ क्षत्रीय के नाम के अन्त में ‘वर्मा’ होना चाहिये | वैश्य और शूद्र के नामों के अन्त में क्रमशः ‘गुप्त’ और ‘दास’ पद का होना उत्तम माना गया है | उक्त संस्कार के समय पत्नी स्वामी के गोद में पुत्र को दे और कहे – ‘यह आप का पुत्र है’ | फिर कुलाचार के अनुरूप ‘चूडाकरण’ करे | ब्राह्मण-बालक का ‘उपनयन-संस्कार’ गर्भ अथवा जन्म से आठवें वर्ष में होना चाहिये | गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रिय बालक का तथा गर्भ से बारहवें वर्ष में वैश्य-बालक का उपनयन करना चाहिये | ब्राह्मण बालक का उपनयन सोलहवें, क्षत्रिय-बालक का बाइसवें और वैश्य बालक का चौबीसवें वर्ष से आगे नहीं जाना चाहिये | 

तीनों वर्णों के लिये क्रमशः मूँज, प्रत्यंचा तथा वल्कल की मेखला बतायी गयी है | इसी प्रकार तीनों वर्णों के ब्रह्मचारियों के लिये क्रमशः मृग, व्याघ्र तथा बकरे के चर्म और पलाश, पीपल तथा बेल के दण्ड धारण करने योग्य बताये गये हैं | ब्राह्मण का दंड उसके केशतक, क्षत्रिय का ललाट तक और वैश्य का मुखतक लम्बा होना चाहिये | इस प्रकार क्रमशः दण्डों की लम्बाई बतायी गयी है | ये दण्ड टेढ़े-मेढ़े न हों | इनके छिलके मौजूद हों तथा ये आग में जलाये न गए हों |

उक्त तीनों वर्णों के लिए वस्त्र और यज्ञोपवीत क्रमशः कपास (रुई), रेशम तथा ऊनके होने चाहिये | ब्राह्मण ब्रह्मचारी भिक्षा माँगते समय वाक्य के आदि में ‘भवत्’ शब्द का प्रयोग करे | [जैसे माता के पास जाकर कहे-‘भवति भिक्षां मे देहि मातः |’ पूज्य माता जी ! मुझे भिक्षा दें | ] इसी प्रकार क्षत्रिय ब्रह्मचारी वाक्य के मध्य में तथा वैश्य ब्रह्मचारी वाक्य के अन्त में ‘भवत’ शब्द का प्रयोग करे | (यथा-क्षत्रिय-भिक्षां भवति मे देहि | वैश्य-भिक्षां में देहि भवति | ) पहले वहीं भिक्षा माँगे, जहाँ भिक्षा अवश्य प्राप्त होने की सम्भावना हो | स्त्रियोंके अन्य सभी संस्कार बिना मन्त्र के होने चाहिये ; केवल विवाह-संस्कार ही मंत्रोच्चारण पूर्वक होता है | गुरु को चाहिये कि वह शिष्य का उपनयन (यज्ञोपवित) संस्कार करके पहले शौचाचार, सदाचार, अग्निहोत्र तथा संध्योपासना की शिक्षा दे |

जो पूर्व की और मुँह करके भोजन करता है, वह आयुष्य भोगता है, दक्षिण की और मुँह करके खानेवाला यश का, पश्चिमाभिमुख होकर भोजन करनेवाला लक्ष्मी(धन)- का तथा उत्तर की ओर मुँह करके अन्न ग्रहण करनेवाला पुरुष सत्य का उपभोग करता है | ब्रह्मचारी प्रतिदिन सायंकाल और प्रातःकाल अग्निहोत्र करे | अपवित्र वस्तु का होम निषिद्ध है | होम के समय हाथ की उंगलियों को परस्पर सटाये रहे | मधु, मांस, मनुष्यों के साथ विवाद, गाना और नाचना आदि छोड़ दे | हिंसा, परायी निंदा तथा विशेषतः अश्लील-चर्चा (गाली-गलौज आदि)- का त्याग करे | दण्ड आदि धारण किये रहे | यदि वह टूट जाय तो जल में उसका विसर्जन कर दे और नवीन दण्ड धारण करे | वेदों का अध्ययन पूरा करके गुरु को दक्षिणा देने के पश्चात् व्रतान्त-स्नान करे; अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर जीवनभर गुरुकुल में ही निवास करता रहे |

संस्कारों की महिमा

ब्रह्मसंस्कारसंस्कृतः ऋषीणां समानतां सामान्यतां समानलोकतां सायोज्यतां गच्छति |

दैवेनोत्तरेण संस्कारेणानुसंस्कृतो देवानां समानतां सामान्यतां समानलोकतां सायोज्यतां च गच्छति | 


गर्भाधानादि ब्राह्म–संस्करों से संस्कृत व्यक्ति ॠषियों के समान पूज्य तथा ऋषि तुल्य हो जाता है | वह ऋषिलोक में निवास करता है  तथा ऋषियों के समान शरीर प्राप्त करता है और पुनः अग्निष्टोमादी दैवसंस्कारों से अनुसंस्कृत होकर वह देवताओं के समान पूज्य एवं देवतुल्य हो जाता है, वह देवलोक में निवास करता है और देवताओं के सामान शरीर प्राप्त करता है | 

( महर्षि हारीत ) 


गार्भैर्होमैर्जातकर्मचौडमौञ्जीनिबन्धनैः |

बैजिकं गार्भिकं चैनो   द्विजानामपमृज्यते ||


गर्भ-शुद्धि-कारक हवन, जातकर्म, चूडाकरण तथा मौंञ्जीबंधन (उपनयन) आदि संस्कारों के द्वारा द्विजों के बीज तथा गर्भसम्बन्धी दोष–पाप नष्ट हो जाते हैं |  ( मनुस्मृति )


स्वाध्यायेन  व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः |

महायज्ञैश्च    यज्ञैश्च ब्राह्मीयं  क्रियते  तनुः ||  

                 

वेदाध्यन से, मधु–मांसादी के त्यागरुप व्रत अर्थात् नियम से, प्रातः-सायंकालीन हवन से, त्रैविद्य नामक व्रत से, ब्रह्मचर्यावस्था में देव ऋषि–पितृतर्पण आदि क्रियाओं से, गृहावस्था में पुत्रोत्पा दनसे, ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ आदि पञ्च महायज्ञों से और ज्योतिष्टोमादी यज्ञों से यह शरीर ब्रह्म-प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है | ( मनुस्मृति ) 


गर्भहोमैर्जातकर्मनामचौलोपनायनैः | 

स्वाध्यायैस्तद्व्रतैश्चैव विवाहस्नातकव्रतैः |

महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं  क्रियते  तनुः ||  


गर्भाधान–संस्करों में किये जाने वाले हवन के द्वारा और जातकर्म, नामकरण, चूडाकरण, यज्ञोपवीत, वेदाध्यान, वेदोक्त व्रतों के पालन, स्नातक के पालने योग्य व्रत, विवाह, पञ्च महायज्ञों के  अनुष्ठान तथा  अन्यान्य  यज्ञों के द्वारा इस शरीर को परब्रह्म की प्राप्तिके योग्य बनाया जाता है | ( महाभारत )


वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम् | 

कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह  च ||  


ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यन्त सब संस्कार वेदोक्त पवित्र विधियों और मन्त्रों के अनुसार करना चाहिये; क्योंकि संस्कार इहलोक और परलोक में कहीं भी पवित्र करनेवाला है | (महाभारत )  


संस्कृतस्य हि दान्तस्य नियतस्य यतात्मनः |

प्रज्ञस्यानन्तरा सिद्धिरिहलोके परत्र च ||


जिसके वैदिक संस्कार विधिवत् समपन्न हुए हैं, जो नियमपूर्वक रहकर मन और इन्द्रियों पर विजय पा चूका है, उस विज्ञ पुरुष को इहलोक और परलोक में कहीं भी सिद्धि प्राप्त होते देर नहीं लगती | ( महाभारत )



चित्रकर्म यथाऽनेकैरङ्गैरून्मील्यते  शनैः | 

ब्रह्मण्यमपि तद्वत्स्यात्संस्कारैर्विधिपुर्वकैः   || 


जिस प्रकार  किसी चित्र में विविध रंगो के योग से धीरे–धीरे निखार लाया जाता है, उसी प्रकार विधिपूर्वक संस्कारों के सम्पादन से ब्रह्मण्यता प्राप्त  होती है | ( महर्षि अङ्गिरा )



संस्कारैः संस्कृतः पूर्वैरुत्तरैरनुसंस्कृतः | 

नित्यामष्टगुणैर्युक्तो  ब्राह्मणो  ब्राह्मलौकिकः || 

ब्राह्मं पदमवाप्नोति  यस्मान्न च्यवते पुनः | 

नाकपृष्ठं यशो धर्मं त्रिरीजानस्त्रिविष्टपम् || 


गर्भाधान आदि प्रारम्भिक तथा अग्न्याधेय आदि उत्तरवर्ती संस्कारों और दया, क्षान्ति, अनसूया, शौच, अनायास, मंङ्गल, अकार्पण्य तथा अस्पृहा–इन आठ आत्मसंस्करों से नित्य संपन्न रहनेवाला द्विज ब्रह्मलोक प्राप्त करने के योग्य हो जाता है |  साथ ही पाकयज्ञों, हविर्यज्ञों और सोमयज्ञसंस्कारों से संस्कार संपन्न होकर वह यश एवं धर्म का अर्जन करके मेरु-पृष्ठ को प्राप्त होता है, उसे देवलोक की प्राप्ति होती है और वह पुनः सदा के लिये उस ब्रह्म पद को प्राप्त कर लेता है, जहां से उसका फिर पुनरागमन नहीं होता | 

( महर्षि शङ्ख – लिखित )

संस्कार से समन्वित जीवनचर्या

‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |’  अर्थात् जो जनमता है, उसे मरना भी पड़ता है और मरनेवाले का पुनर्जन्म होना भी प्रायः निश्चित है |  अपने शास्त्र कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों में भटकता हुआ प्राणी भगवत्कृपा से तथा अपने पुण्यपुञ्जों से मनुष्य योनि प्राप्त करता है | मनुष्य शरीर प्राप्त करने पर उसके द्वारा जीवनपर्यंत किये गए अच्छे–बुरे कर्मों के अनुसार पुण्य–पाप  अर्थात्  सुख–दुःख आगे के जन्मों में भोगने पड़ते  हैं - ‘अवश्यमेव  भोक्तव्यं कृतं कर्म  शुभाशुभम् |’ शुभ – अशुभ कर्मों के  अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म होता है, पापकर्म करने वालों का पशु–पक्षी, कीट–पतंग आदि तिर्यक् योनि तथा प्रेत – पिशाचादि योनियों में जन्म होता है, पुण्य – कर्म करने वाले का मनुष्ययोनि, देवयोनि अदि उच्च योनियों में जन्म होता है | मानवयोनि के अतिरिक्त संसार की जितनी  भी योनियाँ हैं वे सब भोगयोनियाँ  हैं, जिनमें अपने शुभ एवं अशुभ कर्मों के अनुसार पुण्य – पाप अर्थात् सुख – दुःख भोगना पड़ता है | केवल मनुष्ययोनि ही है ,जिसमें जीव को अपने विवेक – बुद्धि के अनुसार शुभ – अशुभ कर्म करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है | अतः मनुष्य – जन्म लेकर प्राणी को अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है | कारण इस भवाटवी में अनेक जन्मों तक भटकने के बाद अन्त में यह मानव – जीवन प्राप्त होता है , जहाँ प्राणी चाहे तो सदा – सर्वदा के लिये अपना कल्याण कर भगवत्प्राप्ति कर सकता है अर्थात् जन्म – मरण के बन्धन से भी मुक्त हो सकता है , परंतु इसके लिये अपने सनातन शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट जीवन–प्रक्रिया चलानी पड़ेगी |   


पुनर्जन्म और परलोक – हमें शास्त्र से ही बोधित होते हैं , अतः जन्म से पूर्व ही शास्त्र जीव को सावधान करता है और उसके क्ल्याण का मार्ग निर्देशित करता है | प्राणी के जन्म को पूर्व तथा जन्म के बाद जब तक वह अबोध रहता है , तब तक उसके माता – पिता का कर्तव्य होता है कि वे अपने संतान की कल्याण–कामना से शास्त्रोक्त विधि से गर्भाधान , पुंसवन , सीमन्त , जातकर्म , नामकरण , अन्नप्राशन, उपनयन, शिक्षा तथा समावर्तन और विवाह आदि संस्कार यथा समय सम्पन्न करायें | बाद में जब व्यक्ति स्वयं प्रबुद्ध हो जाता है , तब उसे अपनी जीवनचर्या,दैनिक चर्या शास्त्रोक्त विधि से संपन्न करनी चाहिये | हमारे शास्त्र वस्तुतः परमात्म प्रभु की आज्ञा हैं तथा प्राणि मात्र के कल्याण के संविधान हैं | भगवान् कहते हैं की जो मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है , वह मेरा द्वेषी है तथा वैष्णव होने पर भी मेरा प्रिय नहीं है |


श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे यस्त उल्लंघ्य वर्तते |

आज्ञाच्छेदी मम द्वेषी वैष्णवेऽपि न में प्रियः ||


श्रीमद्भागवद्गीता में अर्जुन की जिज्ञासा पर कि कर्तव्य का निर्णय कैसे किया जाय? भगवान् ने कहा – कर्तव्य (क्या करना चाहिये) और अकर्तव्य (क्या नहीं करना चाहिए) – की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है , यह समझकर तुम्हें शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करना चाहिये –


तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ |

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ||


भगवान् तो यहाँ तक कहते हैं कि जो पुरुष शास्त्र-विधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह  न सिध्दि को प्राप्त होता है , न उसे सुख मिलता है और न उसे परम गति ही प्राप्त होता है –


यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः |

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ||


कई लोग चौबीस घंटे में एक–आध घंटा, समय निकालकर भगवान् की पूजा–ध्यान, समाधी करते हैं तथा कई लोग परोपकार की भावना से एक–दो घंटे समाज सेवा आदि कार्यों मे भी समय लगाते हैं, परन्तु इसके अतिरिक्त समय बाईस घंटो में वे क्या करते है ? यदि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद-मात्सर्य, इर्ष्या, राग-द्वेष के वशीभूत होकर अपने स्वार्थ की पुर्ति में असत्य का आश्रय लेते हैं – झूठ बोलते हैं, बेईमानी करते हैं , शास्त्र की आज्ञा के विपरीत कार्य करते हैं, अपने थोड़े लाभ के लिये दूसरों का बड़ा नुकसान करते हैं तो उन्हें एक-दो घंटे के पुण्य कर्म का भी फल मिलेगा तथा बाईस घंटे जो पापकर्म किया,उसका भी फल भोगना पड़ेगा | इस प्रकार वे स्वर्ग-नरक, सुख-दुःख भोगते हुए संसार की इस भवाटवी में अनेक योनियों में जनमते-मरते रहेंगे , उनका पिण्ड छुटना संभव नहीं है | इसलिए चौबीस घंटों का समय भगवान् की पूजा बन जाय | हम खाते-पिते हैं, सोते हैं, नित्यक्रिया करते हैं – ये सब-के-सब भगवदाराधन के रूप में परिणत हो जायँ | इसकी प्रक्रिया हमारे शास्त्र बताते हैं |


अतः कल्याणकामी व्यक्ति को संस्करों से समन्वित जीवनचर्या (जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत) तथा दैनिक चर्या (प्रातः–जागरण से लेकर रात्रि–शयन पर्यंत) चलानी चाहिये | पूर्वजन्म के भी शुभ-अशुभ संस्कार सूक्ष्म शरीर तथा कारण शरीर के द्वारा अगले जन्म में प्रारब्ध बनकर साथ रहते हैं, अतः पूर्ण सावधानी की आवश्यकता है | इन सब दृष्टियों को ध्यान में रखकर शास्त्रोक्त संस्कार से समन्वित जीवनचर्या और दैनिकचर्या पाठकों के  लाभ के लिये यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत की जा रही है –

संस्कारी स्वतः ईश्वर का भक्ति पाता है

संस्कार–समन्वित जीवनचर्या का अन्तिम लक्ष्य है – भगवत्प्राप्ति | वास्तव में आत्मा ईश्र्वर का अंश होने के कारण सच्चिदानन्दस्वरूप है ,परंतु संसार के पदार्थों से तादात्म्य हो जाने से और उसके गुण – धर्म को अपना मन लेने के कारण वह जिवभाव को प्राप्त  कर लेता है, संसारी बन जाता है | ऐसी अवस्था में आत्मा के कल्मष को स्वच्छ करने के लिये अपेक्षित संस्कारों की नितांत आवश्यकता है | यह कार्य व्यक्ति  स्वयं कर सकता है | अपना उद्धार  मनुष्य स्वयं करता है, उसे किसी अन्यपर आश्रित होने की आवश्यकता नहीं | श्रीमद्भगवद्गीता ( ६ | ५ ) – में भगवान् ने कहा है –


उध्दरेदात्मनात्मानं   नात्मानवसादयेत् |

आत्मौव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||


व्यक्ति अपने द्वारा अपना उद्धार करे, स्वयं को अधोगति में न डाले, क्योंकि मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है | अनादिकाल से जीव के साथ उस को अपने पूर्वजन्म के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार शुद्ध-अशुद्ध वासनाएँ जुडी रहती हैं | मनुष्य सत्कर्मानुष्ठान करता है, इससे उसे पुण्य तो होता है, पर साथ ही शुद्ध वासनाएँ भी उसके साथ संलग्न हो जाती हैं | इसी प्रकार अशुभ कर्मों के अनुष्ठान से दुःख और मलिन वासनाओं का जन्म होता है | मलिन वासनाओं से उसके अन्तःकरण और बाह्यकरण प्रभावित हो जाते हैं अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त अशुद्ध हो जाते हैं | अतः व्यक्ति अपने आत्मोद्धार के लिए किये जाने वाले सत्कर्मों को छोड़कर असत्-मार्ग को ग्रहण कर लेता है, जो उसके जन्म-मरण के बन्धन का कारण बनता है | अतः जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होने के लिये तथा अपना कल्याण करने के लिये अन्तःकरण और बाह्यकरणों के संस्कार की अत्यंत आवश्यकता है | इसीलिये आचार-विचार, यज्ञ, तीर्थ-यात्रा, दान, व्रत एवं उपवास आदि तथा बाह्यकरणों को पवित्र करने के साधन हैं |


वस्तुतः सच्चिदानन्दस्वरूप जीवात्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित रहने के लिये अपने शास्त्रों में कर्म, उपासना और ज्ञान का मार्ग निर्देशित किया है, किन्तु इसी जीवन में भागवत् प्राप्ति का एकमात्र सरल उपाय है– ‘भगवच्चरणारविन्द की ध्रुवानुस्मृतिरूप रागात्मि का भक्ति |’ यह रागात्मिका भक्ति क्या है ? हमारे जीवन के सम्पूर्ण कार्य-कलाप भगवान् की प्रीति प्राप्त करने के लिये होने चाहिये | हम एक क्षण के लिये भी भगवान् की ध्रुवानुस्मृति से विलग न हों | भगवत्प्रेमी भक्त को अपने इष्टदेव का क्षणभर का वियोग भी असह्य होता है | अतः नित्य–निरन्तर अपने इष्ट के प्रति उसकी सेवा-पूजा-आराधना चलती रहती है | इसके बदले में उसे अपने आराध्य से कुछ चाहिए नहीं | वह तो अपने आराध्य के सुख में सुखी, प्रसन्नता में प्रसन्न रहता है | वह मात्र अपने आराध्य की प्रीति और प्रेम का आकांक्षी होता है | इस प्रकार के साधक निष्काम होते हैं | वे भगवान् से कोई लौकिक वस्तु प्रायः नहीं माँगते, परंतु सामान्यतः संसार में अज्ञान-परवश मनुष्यस्वाभाविक रूप में भौतिक सुखों की आकांक्षा रखते है | लौकिक सुख –सुविधाओं के प्रति उनके मन मे आकषर्ण रहता ही है यह आकषर्ण सत्संग, भगवद्भक्ति और उपासना से ही समाप्त होता है | अतः पुराण और शास्त्र सम्पूर्ण उपासना का सविस्तार वर्णन करते हैं | इसमें उनका तात्पर्य यही है कि सांसारिक सुखों में और भौतिक वस्तुओं में प्रीति रखनेवाले लोग भी किसी प्रकार भगवदुन्मुख तो हो जाएँ | भगवान् से उनका सम्बन्ध तो जुड़े | उन्हें भगवदाराधन से लौकिक सुखों की प्राप्ति तो होगी ही, पर जब साथ ही सत्संग आदि के द्वारा भगवत्तत्त्वका ज्ञान हो जानेपर क्षण भर में भगवत्प्राप्ति की सम्भावना भी प्रबल हो जायगी, तब उनका आत्मकल्याण भी हो सकेगा | परन्तु यह स्थिति भी साधनों की अपेक्षा भगवान् की कृपा से ही संभव है, भगवत्कृपा-प्राप्ति के लिये भगवान् की शरणागति ही एकमात्र उपाय है | इसके लिये हमें भगवान् की आज्ञा के अनुरूप आचरण करने का संकल्प लेना होगा तथा भगवान् के चरणों में अपने कार्पण्य का निवेदन और आत्मसमर्पण करना होगा | शरणागति के छः प्रकार बतलाये गये हैं – (१) भगवान् के सर्वथा अनुकूल बनने का संकल्प, (२) प्रतिकूलता का अभाव, (३) प्रभु से रक्षा-प्राप्ति में विश्वास, (४) रक्षक के रूप में उनका वरण करना, (५) अत्यंत दैन्य की भावना तथा (६) पूर्ण आत्मसमर्पण |


आनुकूल्यस्य संङ्कल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् |

रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्ववरणं तथा |

आत्म निक्षेपकार्पण्ये षड्विधाः शरणागतिः ||

आचारः प्रथमो धर्मः

दैनिक जीवनचर्या में आचार – विचार की सर्वप्रथम आवश्यकता है | आचार – विचार संस्कारों के मूल घटक हैं | वेद – पुराणादी शास्त्रों में आचार – विचार की अत्यधिक महिमा है | वे कहते हैं  जो मनुष्य आचारवान् हैं, उन्हें दीर्घ आयु, धन, संतति, सुख और धर्म की प्राप्ति होता है | संसार में वे विद्वानों से भी मान्यता को प्राप्त, करते हैं उन्हें और नित्य अविनाशी भगवान् विष्णु के लोक की प्राप्ति होता है –


आचारवन्तो मनुजा लभन्ते आयुश्र्च वित्तं च सुतानश्र्च सौख्यम् |

धर्मं तथा  शाश्र्वतमीशलोक   मत्रापि   विद्वज्जनपूज्यतां   च ||


सभी शास्त्रों का यह निश्र्चित मत है कि आचार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है | आचारहीन पुरुष यदि पवित्रात्मा भी हो तो उसका परलोक और इहलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं –


आचारः परमो धर्मः सर्वेषामिति निश्र्चयः |

हीनाचारी पवित्रात्मा प्रेत्य चेह विनश्यति ||


यह भी कहा गया है कि ‘आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः’ (विष्णुधर्मो०३|२५१| ५) अर्थात् जो व्यक्ति आचारहीन हैं, उन्हें वेद भी पवित्र नहीं करते | अपवित्र व्यक्ति द्वारा अनुष्ठित धर्म निष्फल–सा होता है | इस सम्बन्ध में इतिहास–पुराणों में एक बड़ी रोचक कथा प्राप्त होती है | तदनुसार, वेद के एक शिष्य थे उत्तंक | उन्होंनें कुछ खाकर खड़े–खड़े आचमन कर लिया, जिससे उन्हें राजा पौष्य द्वारा उनकी उच्छिष्टता या अपवित्रता की सम्भावना व्यक्त हुई और  उत्तंक ने  भलीभांति अपना हाथ, पैर, मुख धोकर पूर्वाभिमुख आसन पर बैठ, हृदय तक  पहुँचने योग्य पवित्र जल से तीन बार आचमन किया तथा अपने नेत्र, नासिका आदि का जलसिक्त अँगुलियों द्वारा स्पर्श कर शुद्ध हो अन्तःपुर में प्रवेश किया, तब उन्हें पतिव्रता रानी का दर्शन  हुआ | 

शास्त्रों में आचार पर बहुत सूक्ष्म विचार किये गये हैं, जस से सामान्य जन परिचित न होने के कारण पूर्ण लाभ नहीं उठा पाते | आचार के दो भेद माने गये हैं – एक सदाचार तथा दूसरा शौचाचार | मनुष्य – जीवनकी सफलताके  लिये सदाचरण का होना अत्यन्त आवश्यक है | विष्णुपुराण में और्व ऋषि ने गृहस्थ के सदचार के विषय में कहा हैं – 


सदाचाररतः प्राज्ञो विद्याविनयशिक्षितः |

पापेऽप्यपापः परुषे ह्यभिधत्ते प्रियाणि यः |

मैत्रीद्रवांतः करणस्तस्य मुक्तिः करे  स्थिता ||

(३| १२ |४१ )

 

‘बुद्धिमान् गृहस्थ पुरूष सदाचार के पालन करने से ही संसार के बन्धन से मुक्त होता है | सदाचारी विधा और विनय से युक्त रहता है तथा पापी पुरूषों के प्रति भी पापमय,कष्टप्रद व्यवहार नहि करता | वह सभी के साथ हित, प्रिय और मधुर भाषण करता है | सदाचारी पुरूष मैत्रिभाव से द्रवित अन्तःकरण वाले होते है, उनके लिये मुक्ति हस्तगत रहती है |’


सदाचार के अन्तर्गत काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, राग–द्वेष, झूठ, कपट, छल–छद्म, दम्भ आदि असत्–आचरणों का त्याग तथा सत्य, अहिंसा, दया,परोपकार क्षमा, धृति इन्द्रीयनिग्रह, अक्रोध आदि सत्आचरणों का  ग्रहण मुख्य है |


विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कहा गया है की ‘सभी शुभ लक्षणों से युक्त होने पर भी पुरुष यदि आचार से रहित है तो उसे न विद्या की प्राप्ति होती है और न अभीष्ट मनोरथों की ही | ऐसा व्यक्ति नरक का भागी बनता है’ | 

इसके विपरीत जो सत्-आचार का पालन करता है, वह पुरुष स्वर्ग, कीर्ति, आयु, सम्मान तथा सभी लौकिक सुखों का भोग करता है | आचारवान् को  ही स्वर्ग प्राप्त होता है, वह रोग रहित रहता है, उसकी आयु लम्बी होती है और वह सभी ऐश्वर्यों का भोग करता है |


अतः शास्त्रों में वर्णित सदाचरणों का ही सर्वदा व्यवहार करना चाहिये | कल्याण का यह परम श्रेयस्कर मार्ग है |

उत्तम संस्कारों के कुछ सामान्य नियम

  1. प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व उठना चाहिये | उठते  ही भगवान् का स्मरण करना चाहिये |
  2. शौच – स्नानादि से  निवृत्त होकर भगवान् की उपासना, संध्या, तर्पण आदि करने चाहिये |
  3. बलिवैश्वदेव करके समय पर सात्विक भोजन करना  चाहिये |
  4. प्रतिदिन प्रातः काल माता, पिता, गुरु आदि बड़ों को प्रणाम करना               चाहिये
  5. इन्द्रियों के वश न होकर उनको वश में करके उनसे यथायोग्य काम लेना चाहिये
  6. धन कमाने में छल, कपट, चोरी, असत्य और बेईमानी का त्याग कर देना चाहिये | अपनी कमाई के धन में  यथायोग्य सभी का अधिकार समझना चाहिये |
  7. माता–पिता, भाई–भौजाई, बहन–फुआ, स्त्री–पुत्र, आदि परिवार सादर  पालनीय हैं |
  8. अतिथि का सच्चे मन से सत्कार करना चाहिये |
  9. अपनी शक्ति के अनुसार दान करना चाहिये पड़ोसियों तथा ग्रामवासियों की सदा सत्कारपूर्ण सेवा करनी चाहिये |
  10. सभी कर्म बड़ी  सुन्दरता, सफाई और नेकनीयती से करने चाहिये |
  11. किसी का अपमान, तिरस्कार और अहित नहीं करना चाहिये |
  12. अपने किसी कर्म से समाज में विश्रृङ्खला और प्रमाद नहीं पैदा करना चाहिये |
  13. मन, वचन  और शरीर से पवित्र, विनयशील एवं  परोपकारी बनना  चाहिये |
  14. सब कर्म नाटक के पात्र की भांति अपना नहीं मानना चाहिये, परन्तु करना चाहिये  ठीक सावधानी के साथ |
  15. विलासिता से बचकर रहना चाहिये – अपने लिये खर्च  कम करना चाहिये | बचत के पैसे गरीबों की सेवामें लगाने चाहिये |
  16. स्वावलम्बी बनकर रहना चाहिये, अपने जीवन का भार दूसरे पर नहीं डालना चाहिये  |
  17. अकर्मण्य कभी नहीं रहना चाहिये |
  18. अन्यायका पैसा, दूसरे के हकका पैसा घर में न आने  पाए, इस बातपर पूरा ध्यान देना चाहिये |
  19. सब कर्मों को भगवान् की सेवाके भावसे – निष्कामभाव से करने की चेष्टा करनी चाहिये |
  20. जीवनका लक्ष्य भगवत्प्राप्ति है, भोग नहीं – इस निश्चय से कभी डिगना नहीं  चाहिये  और सारे काम इसी लक्ष्य की साधना के लिये करना चाहिये |
  21. किसीके घर में जिधर स्त्रियाँ रहती हों  ( जनानेमें ),  नहीं जाना चाहिये | अपने   घर में भी   स्त्रियों को किसी प्रकारसे सूचना देकर जाना चाहिये |
  22. जिस स्थान पर स्त्रियाँ नहाती हों या जिस रास्ते से स्त्रियाँ ही जाती हों, उधर नहीं जाना चाहिये |
  23. भूल से अपना पैर या धक्का किसी को लग जाय तो उससे क्षमा माँगनी चाहिये |
  24. कोई आदमी रास्ता भूल जाय तो उसे ठीक रस्ते पर डाल देना चाहिये, चाहे     ऐसा करने में  स्वयं को कष्ट भी क्यों न हो |
  25. दूसरों की सेवा इस भाव से नहीं करनी चाहिये  कि उसके बदले में कुछ इनाम मिलेगा, सेवा  जब निष्काम – भाव से की जायेगी,तभी सेवा का सच्चा आनंद प्राप्त हो सकेगा|
  26. भगवत्प्रार्थना के समय आँखें  बंद  रखकर मनको स्थिर रखने की  चेष्टा करानी चाहिये और उस समय ‘भगवान् के चरणों में बैठा हूँ’ ऐसी भावना अवश्य होनी चाहिये |
  27. किसी स्थान में जाएँ, जहाँ अपना आदर – सत्कार हो और अपने साथ कोई मित्र या अतिथी हो तो उसे भूल न जाना चाहिये, प्रत्युत उसे भी     अपने   आदर – सत्कार में सम्मिलित कर लेना चाहिये |

दैनिक चर्या

मनुष्य–जीवन में प्रातः काल जागरण से लेकर रात्रि में शयन पर्यन्त दैनिक कार्यक्रमों का पर्याप्त महत्त्व है | शास्त्रों में यह प्रकरण दैनन्दिन सदाचार में निर्दिष्ट है | वास्तव में सच्चा सुख नित्य, सनातन और एक रस शान्ति में है |  उसके आश्रय हैं मड़्गलमय भगवान् | प्रत्येक स्त्री –पुरुष का प्रयत्न उन्हीं परम –प्रभु को प्राप्त करने के लिये होना चाहिये | अतः इस भाव–बन्धन से मुक्ति प्राप्त करने के लीये यह आवश्यक है कि चौबीस घंटे के सम्पूर्ण समय का कार्यक्रम भगवदाराधन के रूप में हो | चलना–फिरना, उठना–बैठना, खाना–पीना, सोना आदि सब कुछ भगवान् की प्रीति के लिये पूजा रूप में हो| पापाचरण के लिये कहीं भी अवकाश न हो, तभी स्वतः कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा | अपनी दिनचर्या शास्त्र–पुराणोक्त वचनों के अनुसार ही चलानी चाहिये , जिस से जीवन भगवत्पूजामय  बन जाय | यहाँ संक्षेप में इसका किंचित दिग्दर्शन कराने का प्रयास किया जाता है |

प्रातः जागरण

प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त में अर्थात् सुर्योदय से प्रायः डेढ़ घंटा से तीन घंटा पूर्व उठ जाना चाहिये | ब्रह्ममुहूर्त की बड़ी महिमा है | इस समय उठने वाले का स्वास्थ्य, धन, विद्या, बल, और तेज बढ़ता है | जो सूर्य उगने के समय सोता है उसकी आयु और शक्ति घटती है तथा नाना प्रकार की बिमारियों का शिकार होता है | आँख खुलते ही दोनों करतलों को देखते हुए निम्न श्लोकका पाठ करना चाहिये |


कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती |

करमूले  स्थितो  ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम् ||


हथेलियों के अग्रभाग में लक्ष्मी निवास करती हैं, मध्यभाग में सरस्वती और मूल में ब्रह्मा जी निवास करते है | अतः प्रातः हथेलियों का दर्शन करना आवश्यक हैं, इस से धन तथा विद्या की प्राप्ति के साथ-साथ कर्तव्य कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त होती है | भगवन वेदव्यास ने करोपलब्धि को मानव का परम लाभ मन है |  इस विधान का आशय यह भी है कि प्रातः काल उठते ही सर्वप्रथम दृष्टि और कहीं न जाकर अपने करतल में ही देव–दर्शन करे, जिस से वृत्तियाँ भगवच्चिन्तन की और प्रवृत हों | यथासाध्य उस समय भगवान् का स्मरण और ध्यान भी करना चाहिये तथा भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये की दिनभर मेरे में सुबुद्धि बनी रहे | शरीर तथा मन से शुद्ध सात्त्विक कार्य हों, भगवान् का चिंतन कभी न छूटे | इसके लिये भगवान् से बाल माँगे और आत्माद्वारा यह निश्चय करे कि आज दिनभर मैं कोई भी बुरा कार्य नहीं करूँगा | भगवान् को  याद रखते हुए भले कार्यों को ही करूँगा |

भूमि-वन्दना

शय्यापर बैठकर पृथ्वी पर  पैर रखने से पूर्व पृथ्वी माता का अभिवादन करना चाहिये और उन पर पैर रखने की विवशता के लिए उन से क्षमा माँगते हुए निम्नलिखित श्लोक का पाठ करना चाहिए-  


समुद्रवसने देवी पर्वतस्तनमण्डले |

विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शंक्षमस्वमें ||

मंङ्गल-दर्शन

तदनन्तर मांङ्गलिक वस्तुओं का दर्शन और मूर्तिमान् भगवान्  माता–पिता, गुरू एवं ईश्वर को नमस्कार करना चाहिये | फिर शौचादि से निवृत्त होकर रात का कपड़ा बदलकर आचमन करना चाहिये | पुनः निम्नलिखित श्लोकों को पढ़कर पुण्डरीकाक्ष भगवान् का स्मरण करते हुए अपने ऊपर जल से मार्जन करना चाहिये | इस से मान्त्रिक स्नान हो जाता है –


अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा |

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ||

अतिनीलघनश्यामं नलिनायतलोचनम् |

स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम् || 


पुनः उपासनामय कर्म हेतु दैनन्दिन संसार–यात्रा के लिये भगवत्प्रर्थना करे उनसे आज्ञा प्राप्त करनी चाहिये –


त्रैलोक्यचैतन्यमयादिदेव श्रीनाथ   विष्णो   भवदाज्ञयैव |

प्रातः  समुत्थाय   तव  प्रिया संसारयात्रामनुवर्तयिष्ये || 

अजपा-जप

इसके बाद अजपा-जप का संकल्प करना चाहिये; क्योंकि शास्त्रोक्त सभी साधानों में यहा ‘अजपा-जप’ विशेष सुगम है | स्वाभाविक ‘हंसो-हंसो’ की जगह ‘सोऽहं-सोऽहं’ के जप का ध्यान करने से सोते-जागते सब स्थितियों में यह जप प्रचलित माना जाता है |

 तदनन्तर भगवान् का ध्यान करते हुए नाम–कीर्तन करना चाहिये और प्रातः स्मरणीय श्लोकों का पाठ करना चाहिये | तत्पश्चात् शौचादि कृत्यों से निवृत होना चाहिए | शौचविधि में शुद्धि के लिए जल और मृत्तिका का प्रयोग बताया गया है, जो परम आवश्यक है |

आभ्यन्तर शौच

व्याघ्रपाद के अनुसार मिट्टी और जल से होनेवाला शौच बाह्य शौच कहा जाता है | इसकी अबाधित आवश्यकता है, शौचाचारविहीन की गयी सभी क्रियाएँ भी निष्फल ही होती हैं |  मनोभाव को शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना गया है | किसी के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, घृणा आदि का न होना आभ्यंतर शौच है | भगवान् सब में  विद्यमान हैं, इसलिये किसी से द्वेष, क्रोधादि नहीं करना चाहिए | सब में भगवान् का दर्शन करते हुए, सभी परिस्थितियों को भगवान् का वरदान समझते हुए सबमें मैत्रीभाव रखना चाहिए, साथ ही प्रतिक्षण भगवान् का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करते रहना चाहिए | 

गंगास्नान की विधि

उषा की लाली से पूर्व ही स्नान करना उत्तम है | इस से प्राजापत्य-व्रत का फल प्राप्त होता है | तेल लगाकर तथा देह को मल-मलकर गंगादि में स्नान करना मना है | वहाँ बाहर तट पर ही देह-हाथ मलकर नहा लेना चाहिये | इसके बाद नदी में गोता लगावे | शास्त्रों ने इसे ‘मलापकर्षण’ स्नान कहा है | यह अमन्त्रक होता है | स्वास्थ्य और शुचिता-दोनो कें लिये यह स्नान भी आवश्यक है | निवीती होकर गमछे से जनेऊ को  भी स्वच्छ कर ले | इसके बाद शिखा बाँधकर आचमन और प्राणायाम कर दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प पूर्वक स्नान करना चाहिये | स्नान से पूर्व समस्त अंगों मे निम्न मंत्र से मिट्टी लगानी चाहिये-


अश्र्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे |

मृत्तिके हर  में पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ||


तत्पश्चात् गंगाजी के द्वादशनामों का कीर्तन करे, जिसमे उन्होंने स्नानकाल में वहाँ अपने उपस्थित होने का निर्देश दिया है – मन्त्र इस प्रकार है – 


नन्दिनी नलिनी सीता मालती च मलापहा |

विष्णुपादाब्जसम्भूता गंगा त्रिपथगामिनी ||

भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी |

द्वादशैतानि नमानि यत्र यत्र जलाशये ||

स्नानोद्यतः पठेज्जातु तत्र तत्र वसाम्यहम् ||


इसके बाद नाभिपर्यंत जल में जाकर जल की ऊपरी सतह हटाकर, कान और नाक बंदकर प्रवाह या सूर्य की और मुख करके स्नान करे | शिखा खोलकर तीन, पाँच, सात, या बारह गोते लगावे | गंगा के जल में वस्त्र को नहीं निचोड़ना चाहिये | शौच काल का  वस्त्र पहनकर तीर्थों में स्त्रान करना तथा थूकना निषिद्ध है | 

घर में स्न्नान

घर में स्न्नान करना हो तो स्न्नान से पूर्व गंगा आदि पवित्र नदियों का निम्न मंत्र से जल में आवाहन करना चाहिए –


गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति |

नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ||


तदनन्तर स्नान करे | स्नान के अनंतर जल से प्रक्षालित शुद्ध वस्त्र धारण कर देवार्चन करना चाहिये | ऊनि तथा कौशेय वस्त्र बिना धोये भी शुद्ध मान्य हैं | दूसरे का पहना हुआ कपड़ा नहीं पहनना चाहिये | लुँगी (बिना लाँगका वस्त्र) नहीं पहनना चाहिये – ‘मुक्तकक्षो महाधमः|’ बल्कि धोती धारणकर संध्या-पूजन आदि कर्म करने चाहिये | 

तिलक – धारण

कुशा अथवा ऊन के आसन पर बैठकर संध्या-पूजा, दान, होम, तर्पण आदि कर्मों के पहले तिलक अवश्य धारण करना चाहिये | बिना तिलक इन कर्मों को निष्फल बताया गया है |

शिखा-बन्धन

जहाँ शिखा रखी जाती है, वहाँ मेरुदण्ड के भीतर स्थित ज्ञान तथा क्रियाशक्ति का आधार सुषुम्णा नाड़ी समाप्त होती है | यह स्थान शरीर का सर्वाधिक मर्मस्थान है | इस स्थानपर चोटी रखने से मर्मस्थान, क्रियाशक्ति तथा ज्ञान-शक्ति सुरक्षित रहती है, जिससे भजन-ध्यान, दानादि शुभकर्म सुचारू रूप से संपन्न होते हैं | इसीलिये कहा गया है – 

ध्याने दाने जपे होमे संध्यायां देवतार्चने |

शिखाग्रन्थिं सदा कुर्यादित्येतन्मनुरब्रवित् ||

जपादि ‌‌‌‌‍करने के पूर्व आसन पर बैठकर तिलक धारण तथा शिखा-बन्धन करने के पश्र्चात् संङ्कल्पपूर्वक संध्यावन्दन करना चाहिये | साथ ही कम–से–कम एक माला या उससे अधिक गायत्री मंत्र का जप करना चाहिये |

पञ्च महायज्ञ

संध्योपासन के अनन्तर पञ्च महायज्ञ का विधान है | वे हैं – ब्रह्मयज्ञ (ऋषियज्ञ), पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ (बलिवैश्वदेव) और मनुष्ययज्ञ | वेद-शास्त्र का पठन-पाठन एवं संध्योपासन, गायत्री-जप आदि ब्रह्मयज्ञ (ऋषियज्ञ ) है, नित्य श्राद्ध-तर्पण पितृयज्ञ है, हवन देवयज्ञ है | देवयज्ञ से देवातओं की, ऋषियज्ञ से ऋषियों की, पितृयज्ञ से पितरों की, मनुष्ययज्ञ से मनुष्यों की और भूतयज्ञ से भूतों की तृप्ति होती है |

पितृतर्पण में देवता, ऋषि, मनुष्य, पितर सम्पूर्ण भूतप्राणियों को जलदान करने की विधि है | यहाँ तक की पहाड़, वनस्पति और शत्रु आदि को भी जल देकर तृप्त किया जाता है | देवयज्ञ में अग्नि में आहुति दी जाती है | वह सूर्य को प्राप्त होती है और सूर्य से वृष्टि तथा वृष्टि से अन्न और अन्न से प्रजा की उत्पत्ति होती है | भूतयज्ञ को बलिवैश्वदेव भी कहते हैं, इसमें अग्नि, सोम, इन्द्र, वरुण, मरुत् तथा विश्वेदेवों के निमित्त आहुतियाँ एवं अन्नग्रास की बलि दी जाती है |

मनुष्ययज्ञ में घर आये हुए अतिथि का सत्कार कर के उसे विधिपूर्वक यथाशक्ति भोजन कराया जाता है | यदि भोजन कराने की सामर्थ्य न हो तो बैठने के लिए स्थान, आसन, जल प्रदान कर मीठे वचनों द्वारा उसका स्वागत तो अवश्य ही करना चाहिये |

स्वाध्याय से ऋषियों का, हवन से देवताओं का, तर्पण और श्राद्ध से पितरों का, अन्न से मनुष्यों का और बलिकर्म से सम्पूर्ण भूतप्राणियों का यथायोग्य सत्कार करना चाहिये | इस प्रकार जो मनुष्य नित्य सब प्राणियों का सत्कार करता है, वह तेजोमय मूर्ति धारण कर सीधे अर्चिमार्ग के द्वारा परमधाम को प्राप्त होता है | सबको भोजन देने के बाद शेष बचा हुआ अन्न यज्ञशिष्ट होने के कारण अमृत के तुल्य है, इसलिए ऐसे अन्न को ही सज्ज्नों को खाने योग्य कहा गया है | भगवन् श्रीकृष्ण ने गीता में भी प्रायः ऐसी ही बात कही है |

उपर्युक्त सभी महायज्ञों का तात्पर्य सम्पूर्ण भूतप्राणियों की अन्न और जल के द्वारा सेवा करना एवं अध्ययन-अध्यापन, जप, उपासना आदि स्वाध्याय द्वारा सब का हित चाहना है | इनमें स्वार्थ-त्याग की बात तो पद-पद में बतलायी गयी है |

शयन–विधि

जैसे मनुष्य सोकर उठनेपर शान्त चित्त से जिस का चिन्तन करता है , उसका प्रभाव गहरा पड़ता है , उसी प्रकार सोने से पूर्व जिस का चिन्तन करता हुआ सोता है , उस का भी गहरा प्रभाव पड़ता है |अत: शयन से पूर्व पुराणों की सात्त्विक कथा या भक्तगाथा आदि श्रवण करते हुए शयन करना चाहिये | भविष्यपुराण में कहा गया है की–जो हाथ –पैर धोकर पवित्र हुआ मनुष्य पुराणों की सात्त्विक कथा सुनता है , वह ब्रह्महत्यादि पापों से मुक्त हो जाता है | पर यह भोजन से पूर्व नियमित कथा–श्रवणकी बिधि प्रतीत होती है |

इस के अतिरिक्त शयन से पूर्व दिनभर के कार्यों का सम्यक् अवलोकन करना चाहिये तथा इस सम्बन्ध मे यह चिन्तन करना चाहिये कि कोई गलत कार्य तो नहीं किया | यदि कोई गलत कार्य हो गया हो तो उसके लिये पश्चात्तापपूर्वक भगवान् से क्षमा–याचना करनी चाहिये और भविष्य में फिर इस प्रकारकी गलती की पुनरावृत्ति न हो–ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए शयन करना चाहिये | इस से जीवन को निर्दोष बनाने में विशेष सहायता मिलती  है | विष्णुपुराण में कहा गया है कि हाथ –पैर धोकर मनुष्य सायंकालीन भोजन करने के पश्चात् जो जीर्ण न हो , बहुत बड़ी न हो ,सकुचित न हो ,ऊंची न हो ,मैली न हो ,जन्तुयक्त  न हो ,संकुचित न हो एवं जिस पर कुछ बिछावन बिछाया हो ,उस शय्या पर शयन करना चाहिये | पूर्व और दक्षिण की ओर सिर कर के शयन करना उत्तम बतलाया गया है | उत्तर एवं पश्चिम की ओर सिर करके सोनेका निषेध है |

संतान-प्राप्ति

स्त्री-सहवास का मुख्य उद्देश्य है पुत्रोत्पादन द्वारा वंश की रक्षा तथा पितृ-ऋण से मुक्त होना | शास्त्र-मर्यादानुसार संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया को भगवान् ने अपनी विभूतियों में गिना है –


‘धर्माविरुद्धो भूतेषु कमोऽस्मि भरतर्षभ |’ ‘प्रजन्श्चास्मि कन्दर्पः |’

पुत्रार्थी अमावस्या , अष्टमी , पूर्णिमा और चतुर्दशी, व्रतोपवास तथा श्राद्ध आदि पूर्वकालों को छोड़कर ऋतुकाल में स्व-स्त्री के पास जाय | रजोदर्शनकाल में अर्थात् स्त्री के रजस्वला होने पर भूल कर भी स्त्री सहवास न करे, न उसके साथ एक शय्या पर सोये | रजस्वलागामी पुरुष की प्रज्ञा, तेज, बल, चक्षु और आयु नष्ट हो जाती है-                  



नोपगच्छेत् प्रमत्तोऽपि स्त्रियमार्तवदर्शने |

समानशयने चैव न शयीत तया सह ||

रजसाभिप्लुप्तां नारीं नरस्य ह्युपगच्छतः| 

प्रज्ञा  तेजो बलं चक्षुरायुश्चैव प्रहीयते ||

कर्मक्षेत्र (गृहस्थाश्रम का पालन)

गृहस्थ-मात्र को घर के कामों में मन लगाना चाहिये | गृहस्थ–आश्रम सभी आश्रमों का आधार कहा गया है | यह बात सब को स्मरण रखना चाहिये की हम जो कुछ भी करें ,वह सब प्रभु प्रीत्यर्थ ही करें | कर्म करके उसका सम्पूर्ण फल भगवान् के चरणों में अर्पित कर देना चाहिये | ऐसा करने पर मनुष्य को कर्म-बन्धन में बँधना नहीं पड़ेगा और उसको समस्त कर्म भगवदाराधन में परिणत हो जायँगे |शास्त्र में कहा गया है कि ‘शरीर का निर्वाह हो जाय’ यही लक्ष्य रख कर शरिर को कोई क्लेश पहुँचाये बिना , वर्ण-विहित, निंदारहित कार्य के द्वारा धन का संचय करना चाहिये –

यात्रामात्रप्रसिद्धयर्थं स्वैः कर्मभिरगर्हितैः |

अक्लेशन शारीरस्य कुर्वीत धनसंचयम् ||

अतः गृहस्थ व्यक्ति को अपने कल्याण के लिये शास्त्र–मर्यादा का पालन करना चाहिए | वास्तव में मनुष्य का शारीर खान –पान, भोग –विलास के लिये नहीं प्रत्युत शास्त्र मर्यादा का पालन करके भगवत्प्राप्ती करने के लिये मिला है ,जो प्रधान लक्ष्य है | इन्द्रियों कें विषयों को राग – द्वेषरहित होकर इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है | शब्द, रूप आदि का श्रवण और दर्शन आदि करते समय अनूकूल तथा प्रतिकूल पदार्थों में राग – द्वेष रहित होकर उनका न्यायोचित सेवन करने से अन्तः करण शुद्ध होता है और उसमें ‘प्रसाद’ होता है | उस ‘प्रसाद’ या ‘प्रशम’ से सारे दुःखों नाश होकर  परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाती है | परंतु जब तक इन्द्रियाँ और मन वश में नहीं होते तथा भोगोंमें वैराग्य नहीं होता, जब तक अनुकूल पदार्थ के सेवन से राग और हर्ष एवं प्रतिकुलके सेवन से द्वेष और दुःख होता है | अत एव सम्पूर्ण पदार्थोको नाशवान् और क्षणभंगुर समझ कर न्याय से प्राप्त हुए पदार्थों का विवेक तथा वैराग्ययुक्त बुद्धि के द्वारा सम्भाव से ग्रहण करना चाहिये | दर्शन, श्रवण, भोजनादि कार्य रस बुद्धि का त्याग करके कर्तव्य बुद्धि से भगवत्प्राप्ति के लिए करने चाहिये | पदार्थों में भोग-विलास-भावना, स्वाद- सुख  या रमणीयता–बुद्धि ही मनुष्य के मन में विकार उत्पन्न कर उसका पतन कराती अतः आसक्त रहित होकर विवेक-वैराग्यपूर्वक  धर्मयुक्त बुद्धि के द्वारा विहित विषय-सेवन करना उच्चित है | इस से हवन के लिए अग्निमें डालें हुए ईंधन की तरह विषय वशं अपने – आप ही भस्म हो जाती है |फिर उसका कोई अस्तित्व या प्रभाव नहीं रह जाता | इस प्रकार संस्कार युक्त होने से परमात्मा के स्वरूप में स्थिर और अचल स्थिति हो जाती है तथा उनकी प्राप्ति हो जाती है |

शौचाचार

सदाचार की भाँती शौचाचार का भी पुराणों में विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है | शौचाचार से प्रत्यक्षतः शरीरादि की बाह्य शुद्धि होती है | प्रातः काल उठने से लेकर शयन पर्यंत शौचाचार की विधि शास्त्रों में वर्णित है, यहाँ शौचाचार के कुछ सूत्र प्रस्तुत किये जाते है:- 

प्रातः काल उठने के बाद भगवत्स्मरण के अनंतर शौच की विधि इस प्रकार बताये गए है- शौचके समय मृत्तिका का प्रयोग अवश्य करना चाहिये | एक बार मुत्रेंद्रिय तथा तीन बार पायु (मलस्थान)- को मृत्तिका एवं जल से प्रक्षालित करे| तदन्तर दस बार बायाँ हाथ मिट्टी से धोये तथा सात बार दोनों हाथ मिट्टी से  धोने चाहिये | तीन बार पाँवों को मिट्टी से धोये | इसके बाद आठ बार कुल्ला करना चाहिए तथा लघुशंका के अनंतर चार बार कुल्ला करना चाहिये || उपर्युक्त विधान गृहस्थों के लिए है | ब्रह्मचारियों को इसका दुगुना,वानप्रस्थियों को तिगुना तथा सन्यासियों को चार गुणा करना चाहिये |


दन्तधावन विधि 

शौचादि कृत्य के बाद दन्तधावन-विधि बतायी गयी है | मौन होकर दातौन अथवा मंजन से दाँत साफ करने चाहिये | दातौन के लिये खैर, करंज, कदम्ब, बड़, इमली, बाँस, आम, नीम, चिचड़ा, बेल, आक, गुलर, बदरी, तिन्दुक आदि की दातुनें अच्छी मानी जाती लिसोढ़ा, पलाश, कपास, नील, धव, कुश,काश वृक्ष की दातौन वर्जित हैं |


निषिद्धकाल 

प्रतिपदा, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी, अमावास्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति, जन्मदिन, विवाह, व्रत, उपवास, रविवार और श्राद्ध के अवसर पर दातौन वर्जित है| जिन–जिन अवसरों पर दातौन निषेध है, उन-उन अवसरों पर तत्तद् वृक्षों के पत्तों या सुगन्धित दन्तमंजनों से दाँत स्वच्छ कर लेना चाहिये | निषिद्ध काल में जीभी करने का निषेध नहीं है |


क्षौरकर्म 

क्षौरकर्म के लिए बुधवार तथा शुक्रवार के दिन प्रशस्त हैं | शनि, मंगल तथा बृहस्पतिवार चतुर्दशी आदि तिथियाँ निषिद्ध कही गयी हैं | व्रत और श्राद्ध के दिन भी क्षौरकर्म में वर्जित हैं |




तैलाभ्यड़्ग विधि 

रविवार को तेल लगाने से ताप, सोमवार को शोभा, मंगलवर को मृत्यु (अर्थात् आयु की क्षीणता), बुधवार को धन, गुरुवार को हानी, शुक्रवार को दुःख और शनिवार को सुख होता है | यदि निषिद्ध दिनों में तेल लगाना हो तो रविवार को पुष्प, गुरुवार को दूर्वा, मंगलवार को मिट्टी और शुक्रवार को गोबर तेल में डालकर लगाने से दोष नहीं होता है | यह विधि केवल तिल के तेल के लिए है | सरसों के तेल अथवा सुगन्धित तेल का निषेध नहीं है |   


स्नान 

शरीर की पवित्रता के लिये नित्य स्नान की आवश्यकता है | शास्त्रों में स्नान के कई प्रकार बतलाये गए हैं | सामान्यतः शुद्ध जल से सम्पूर्ण शरीर के मल-प्रक्षालन को स्नान कहा जाता है | मत्स्यपुराण में कहा गया है कि स्नान के बिना शरीर की निर्मलता और भाव-शुद्धि नहीं प्राप्त होती | अतः मन कि विशुद्धि के लिये सर्वप्रथम स्नान का विधान है | कुएँ आदि के निकाले हुए अथवा बिना निकाले हुआ नदी-तालाब आदि के जलसे स्नान करना चाहिये | मंत्र-वेत्ता विद्वान्पुरुष को  ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस मूल मन्त्र के द्वारा उस जल में तीर्थ–भावना करनी चाहिए |  स्नान के लिये गंगा जल तथा तीर्थो का जल सर्वाधिक पवित्र माना जाता है | फिर अन्य नदियों, सरोवरें, तङागौं, कूपो आदि के जल पवित्र माने गये है | गंगा, तीर्थों तथा नदियों में रत्न के विशेष महत्व बताया गया है | अन्य स्नान कि विशेष विधियाँ भी पुराणों में वर्णित है | यथा  - प्रायश्चित्तस्नान, अभिषेकस्नान, भस्मस्नान तथा मृत्तिका-स्नान आदि | अशक्तावस्था में कटिभाग से नीचे के अंगों का प्रक्षालन तथा गले से ऊपर के अंगों के प्रक्षालन से भी स्नान की विधि पूरी हो जाती है | विशेष अशक्यावस्था तथा आपत्तिकाल में निम्न मन्त्रों द्वारा मार्जन–स्नान की विधि बतायी गयी है | सामान्य अवस्था में भी पूजा–पाठ के पूर्व इस मन्त्र के द्वारा शरीर पर जल मार्जन करने पर पवित्रता आती है –


ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा |

यः  स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचि ||


इस मन्त्र के द्वारा शरीर पर जल से मार्जन  करे  तथा –


‘आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन | महे रणाय चक्षसे || यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः | उशतीरीव मातरः || तस्मा अरं गमाम वो०’ –


इस मन्त्र के द्वारा भी शरीर पर जल छिड़कते हुए मार्जन – स्नान करना चाहिए | ‘यस्य क्षयाय जिन्वथ ’ कहकर निचे जल छोड़े और ‘आपो जनयथा च नः इस से पुनः मार्जन करे |


भोजन विधि

स्नानोपरान्त सन्ध्योपासन एवं पूजन आदि से निवृत्त होने के पश्चात् भोजन की  विधि है | भोजन के सम्बन्ध में दो बातें मुख्य है | एक तो उच्छिष्ट (जूठा) भोजन करना सर्वथा निषिद्ध है | भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व हॉथ पैरो को शुध्द जल से प्रक्षालित करना चाहिए तथा जल द्वारा आचमन  कर  मौन होकर भोजन करना चाहिए | भोजन के अन्त में भी आचमन करने की विधि है | भोजन की दूसरी मुख्य बात  है द्रव्य शुद्धी | सदाचार पूर्वक अर्जित द्रव्य का ही भोजन मनुष्य के लिये लाभदायी होता है तथा उसके अन्तःकरण और बुद्धि को पवित्र रखता है | अतः स्थूल दृष्टि से भोजन में शुद्धता, पवित्रता और सात्विकता होनी ही चाहिये ,पर साथ ही सुक्ष्म रूप से सत्यता से अर्जित धन से बना भोजन परम पवित्र होता है | बिना परिश्रम किये किसी पराये व्यक्ति के अन्न का भोजन करने की प्रवृति भी नहीं रखनी चाहिये |


अशौच


जीवन में कुछ अवस्थाएँ ऐसी भी आती हैं जब व्यक्ति अशौचावस्था में रहता है | उस समय वह देवार्चन आदि कोई शुभ कार्य करने का अधिकारी नहीं रहता |


जननाशौच-मरणाशौच

अपने परिवार में नव-शिशु के जन्म होने पर प्रायः बारह दिन तथा सगोत्र में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर दस रात्रि का आशौच माना गया है | आशौचावस्था में देवकार्य, पितृकार्य, वेदाध्ययन तथा गुरुजनों के अभिवादन आदि शुभकार्यों का निषेध किया गया है | यहाँ तक की देवमंदिर में प्रवेश तथा पूजन आदि करना भी वर्जित है |


स्त्रियों के लिये प्रायः मास में एक बार विशेष अवस्था आती है, जिसमे वे रजस्वला हो जाती हैं | इसमें तीन रात्रि तक उनकी अशौचावस्था रहती है | इस अवधि में स्त्री को घर का कोई काम-काज नहीं करना चाहिये | यहाँ तक की किसी वस्तु या व्यक्ति को स्पर्श भी नहीं करना चाहिये | इस अवस्था के समाप्त होने पर स्त्री के लिये सचैल स्नान की विधि है | तदनुसार उसके कपडे तथा बर्तन आदि धोने के बाद ही शुद्धता आती है |


आचमन

जिस प्रकार शरीर की  शुध्दि  तथा पवित्रता के लिये स्नानादि कृत्यों का महत्त्व है, उसी प्रकार आभ्यन्तर एवं बाह्य पवित्रता के लिए शास्त्रों में आचमन का भी विशेष महत्त्व वर्णित है | प्रायः दैनिक कार्यों में सामान्य शुद्धि के लिये प्रत्येक कार्य में आचमन का विधान है | लघुशंका, शौच तथा स्नान आदि के अनन्तर आचमन करना आवश्यक है | अतः आचमन से हम केवल अपनी ही शुद्धि नहीं करते, अपितु ब्रह्मा से लेकर तृण तक को तृप्त करते हैं | कोई भी देवादि शुभ कार्य करने के पूर्व तथा अनन्तर आचमन करना चाहिये |


आचमन – विधि 

पूर्व, उत्तर या ईशान दिशा की ओर मुख कर के आसन पर बैठ जाय , शिखा बाँधकर हाथ घुटनों के भीतर रखते हुए निम्न मन्त्रों से तीन बार आचमन करे –


‘ ॐ केशवाय नमः , ॐ नारायणाय नमः , ॐ माधवाय नमः |’


आचमन के बाद अँगूठे के मूलभाग से होंठों को दो बार पोंछकर

‘ॐ हृषीकेशाय नमः’ 

उच्चारण कर हाथ धोवे | फिर अँगूठे से आँख, नाक तथा कान का स्पर्श करे | अशक्त होने पर तीन बार आचमन कर हाथों को धोकर दाहिना कान छू ले | दक्षिण तथा पश्चिम की ओर मुख कर आचमन नहीं करना चाहिये 


मादक द्रव्यों का निषेध 

संसार मे मदिरा, ताड़ी, चाय, कॅाफी, कोको, भाँग, अफीम, चरस, गाँजा, तंबाकू , बीड़ी – सिगरेट तथा चुरुट आदि जितनी भी मादक वस्तुएँ हैं , वे सब मनुष्य मात्र के लिये अव्यवहार्य है | इनका उपयोग मनुष्य को भीषण गर्त में डालने वाला होता है | पद्मपुराण के अनुसार धुम्रपान करने वाला ब्राह्मण दान तक देने वाला व्यक्ति नरकगामी होता है तथा धुम्रपान करने वाला ब्राह्मण ग्राम–शूकर होता है – 


धूम्रपानरते  विप्रे  दानं  कुर्वन्ति  ये नराः |

ते नरा नरकं यान्ति ब्राह्मणा ग्रामशूकराः ||


पद्मपुराण में यह बात आई है कि मादक द्रव्यों के सेवन से व्यक्ति का आत्मिक पतन और उसकी शारीरिक हानि होती है | इसलिए किसी भी स्थिति में इन वस्तुओं का सेवन कदापि नहीं करना चाहिये | भारतीय संस्कृत एवं सनातन धर्म में आचार – विचार को सर्वोपरी महत्व प्रदान किया है | मनुष्य –जीवन की सफलता लिये, वास्तविक उन्नति को प्राप्त करनेके निमित्त आचारका आश्रय आवश्यक है |इससे अन्तः करणकी पवित्रताके साथ–साथ लौकिक और पारलौकिक लाभ भी प्राप्त होता है |

देवोपासना

जीवन में उपासना का विशेष महत्व है | जब मनुष्य अपने जीवन का वास्तविक लक्ष्य निर्धारित कर लेता है , तब वह तन-मन-धन से अपने उस लक्ष्य की प्रप्ति में संलग्न हो जाता है | मानव का वास्तविक लक्ष्य है भगवत्प्राप्ति | इस लक्ष्य को  प्राप्त करने के लिए उसे यथासाध्य संसार की विष-वासनाओं और भोगों से दूर रहकर भगवदाराधन एवं अभीष्ट देव की उपासना में संलग्न होने की आवश्यकता पड़ती है | जिस प्रकार गंगा का अविच्छिन्न प्रवाह समुद्रोंमुखी होता है, उसी प्रकार भगवद्- गुण-श्रवण के द्वारा द्रवीभूत निर्मल, निष्कलंक, परम पवित्र अन्तः करण का भगवदुन्मुख हो जाना वास्तविक उपासना है –


मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये |

मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गंगाम्भसोऽम्बुधौ ||

(श्री मद्भागवत ३|२९|११)


इसके लिये आवश्यक है की चित्त संसार और तद्विषयक राग-द्वेषादि से विमुक्त हो जाय | शास्त्रों और पुराणों की उक्ति है – ‘देवो भूत्वा यजेद् देवान् नादेवो देवमर्चयेत्|’ देव- पुजा का अधिकारी वही है , जिस में देवत्व हो | जिस में देवत्व नहीं, वास्तव में उसे देवार्चन से पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं होती | अतः उपासक को भगवदुपासना के लिये काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य अभिमान आदि दुर्गुणों का त्याग कर अपनी आतंरिक शुद्धि करनी चाहिये | साथ ही शास्त्रोक्त आचार-धर्म को स्वीकार कर बाह्य-शुद्धि कर लेनी चाहिये, जिस से उपासक के देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार तथा अंतरात्मा की भौतिकता एवं लौकिकता का समूल उन्मूलन हो सके और उनमें रसात्मकता तथा पूर्ण-दिव्यता का आविर्भाव हो जाय | ऐसा जब हो सकेगा, तभी वह उपासना के द्वारा निखिल-रसामृत मूर्ति सच्चिदानंदघन भगवत्स्वरूप की अनुभूति प्राप्त करने में समर्थ हो सकेगा |


यहाँ शास्त्रों में वर्णित देवोपासना की कुछ विधियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं –


नित्योपासना में दो प्रकार की पूजा बतायी गयी है –(१) मानसपूजा और (२) बाह्यपुजा | साधक को दोनों प्रकार की पूजा करनी चाहिये, तभी पूजा की पूर्णता है | अपनी सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार बाह्यपूजा के उपकरण अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा–भक्तिपूर्वक निवेदन करना चाहिये | शास्त्रों में लिखा है कि ‘वित्तशाठ्यं न समाचरेत ’ अर्थात् देव – पूजनादि कार्यों में कंजूसी नहीं करनी चाहिये | समान्यतः जो वस्तु हम अपने उपयोग में लेते है, उस से हल्की वस्तु अपने आराध्य को अर्पण करना उचित नहीं है, वे तो भाव के भूखे हैं | वे उपचारों को तभी स्वीकार करते हैं, जब निष्कपट भाव से व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से निवेदन करता है | बाह्यपूजा के विविध विधान हैं, यथा–राजोपचार, सहस्त्रोपचारचतुः षष्ट्युपचार, षोडशोपचार और पञ्चोपचार-पूजन आदि | यद्यपि सम्प्रदाय–भेद से पूजनादि में किंञ्चित् भेद भी हो जाते हैं, परन्तु सामान्यतः सभी देवों को पूजन की विधि समान है | गृहस्थ प्रायः स्मार्त होते है, जो पञ्चदेवों  पूजा की करते हैं | पञ्चदेवों मे १.गणेश २.दुर्गा ३.शिव ४.विष्णु ५.सूर्य हैं | ये पाँचों देव स्वयं मे पूर्ण बाह्य–स्वरूप हैं | साधक इन पञ्चदेवों में एक को अपना इष्ट मान लेता है, जिन्हें वह सिंहासन पर मध्य में स्थापित करता है | फिर यथालब्धोपचार – विधि से उनका पूजन करता है |           


भगवत्पुजा अतिव सरल हैं, जिसमें उपचारों का कोई विशेष महत्व नहीं है | महत्व भावना का है | समय पर जो भी उपचार उपलब्ध हो जाय, उन्हें श्रध्दा- भक्ति पूर्वक निश्छल दैन्यभाव से भगवदर्पण कर दिया जाय तो उस पूजा को भगवान् अवश्य स्वीकार करते  हैं |


विशिष्ट उपासना 

विशेष अवसरों पर जो देवाराधन किया जाता है, जैसे–नवरात्र के अवसर पर   दुर्गापूजा, सप्तशतीका पाठ, रामायण आदि के नवाह-पाठ, श्रावण आदि पवित्र महीनों में लक्ष–पार्थिवार्चन, महारुद्राभिषेक, श्रीमद्भागवतसप्ताह आदि विशेष प्रकार के अनुष्ठान विशिष्ट उपासनाएँ हैं | आरोग्यता एवं दीर्घजीवन–प्राप्ति के निमित्त महामृत्युञ्जय का जप एवं धन, संतान तथा अन्य कामनाओं के निमित्त किये जानेवाले अनुष्ठान भी इन्हीं में आते हैं, परंतु भगवत्–प्रीति के निमित्त किये गये अनुष्ठान के अनंत फल शास्त्रों में बता

या गया है, जो भी अनुष्ठान–साधन–भजन किया जाय, वह अनात्म (संसार की) वस्तुओं की प्राप्ति के निमित्त नहीं, अपितु भगवान् की प्रसन्नता–प्राप्ति के लिए ही करना चाहिये |

देवता-तत्व

देवता मुख्यतया तैंतीस माने गए हैं | उनकी गणना इस प्रकार है – प्रजापति, इन्द्र, द्वादश आदित्य, आठ वसु और ग्यारह रूद्र | निरुक्त के दैवत-काण्ड में देवताओं के यही तात्पर्य निकलता है कि वे कामरूप होते हैं | वेदान्त–दर्शन में कहा गया है कि देवता एक ही समय अनेक स्थानों में भिन्न–भिन्न रूप से प्रकट  होकर अपनी पूजा स्वीकार कर सकते हैं | शास्त्रों में देवातओं कें ध्यानकी सुस्पष्ट विधि निर्दिष्ट है | उसी रूप में उनका ध्यान एवं उपासना की जानी चाहिए | सभी साधना एवं उपासनाओं का अंतिम फल भगवत्प्राप्ति या सायुज्य मुक्ति है | देवाता लोग अपनी उपासनासे प्रसन्न होकर सांसारिक पुरुषार्थो की उपलब्धि के साथ भगवत्प्राप्तिमें भी सहायक होते हैं | ऊपर देवोपासनाकी संक्षिप्त विधि निर्दिष्ट है | विशेष जानकारी के लिये उनके उपासना परक  पुराण, आगमादि ग्रन्थ देखने चाहिये | 


मन्त्र-जप 


मन्त्रानुष्ठान में  ब्रह्मचर्य एवं पवित्रतापूर्वक भू–शयन आदि आवश्यक हैं | अनुष्ठान काल में कुटिल व्यवहार, क्षौर–कर्म, तैलाभ्यड़्ग तथा बिना भोग लगाये भोजन नहीं करना चाहिये | साधक को यथासम्भव पवित्र नदियों, देवखातों, तीर्थ, सरोवर, पुष्करिणी आदि में मन्त्रोच्चारण पवित्र  स्न्नान करना चहिये | यथाशक्ति  तीनों समय संध्या और इष्टदेव की पूजा करनी चाहिये | शिखा खोलकर, निर्वस्त्र होकर, एक वस्त्र पहनकर, सिर पर पगड़ी  बाँधकर, अपवित्र होकर या चलते-फिरते जप करना निषिध्द है | जप के समय माला पूरी हुए बिना बातचीत नहीं करनी चाहिये | जप समाप्त करने और प्रारम्भ करने के पूर्व आचमन कर लेना चाहिये |मलिन वस्त्र पहनकर, केश बिखेरकर और उच्चस्वर से जप करना शास्त्र विरुद्ध है | जप करते समय इतने कर्म निषिद्ध है – आलस्य, जँभाई, नींद, छिकना, थूकना, डरना, अपवित्र अंगों का स्पर्श और क्रोध | जापक को स्त्री, शूद्र, पतित, व्रात्य, नास्तिक आदि के साथ सम्भाषन, उच्छिष्ट मुख से वार्तालाप, असत्य और कुटिल भाषण छोड़ देना चाहिये | अपने आसन, शय्या, वस्त्र आदि को शुद्ध एवं स्वच्छ रखना चाहिये | उबटन, इत्र फुल-माला का उपयोग और गरम जल से स्नान नहीं करना चाहिये | सोकर, बिना आसन के, चलते और खाते समय तथा बिना माला ढँके जो जप किया जाता है, उसकी गणना अनुष्ठान जपमें नहीं होती | जिस के चित्त में व्याकुलता, क्षोभ, भ्रान्ति हो, भूख लगी हो, शरीर में पीड़ा हो, उसे और जहाँ स्थान अशुद्ध एवं  अन्धकाराच्छन्न हो, वहाँ जप नहीं करना चाहिये | जूता पहने हुए अथवा पैर फैलाकर जप करना निषिद्ध है और भी बहुत-से नियम हैं, उन्हें जानकर यथाशक्ति उनका पालन करना चाहिये | ये सब नियम मानस-जपके लिए नहीं हैं |


शास्त्रों में जप-यज्ञ को सब यज्ञों की अपेक्षा श्रेष्ठ कहा गया है | पद्म एवं नारदपुराण में कहा गया है की समस्त यज्ञ वाचिक जप की तुलना में सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं हैं | उपांशु-जप का फल वाचिक जप से सौ गुना और मानस-जप का सहस्त्रगुण होता है | मानस जप वह है, जिसमें अर्थ का चिंतन करते हुए मन में ही मन्त्र के वर्ण, स्वर और पदों की आवृति की जाती है | उपांशु-जप में कुछ-कुछ जीभ और होंठ चलते हैं, अपने कानों तक ही उनकी ध्वनि सीमित रहती है, दूसरा कोई नहीं सुन सकता | वाचिक जप का वाणी के द्वारा उच्चारण किया जाता है | तीनों ही प्रकार के जपों में मन के द्वारा इष्ट का चिंतन होना चाहिये | मानसिक स्तोत्र-पथ और उच्च-स्वर से उच्चारण-पूर्वक मन्त्र-जप-ये दोनों निष्फल हैं  



जप में माला का प्रयोग


साधकों कें लिये माला भगवान् के स्मरण और नाम – जप की संख्या – गणनार्थ बड़ी ही सहायक होती है | इस से उतनी संख्या पूर्ण करने के लिये सब समय प्रेरणा प्राप्त होती है एवं उत्साह तथा लगन में किसी प्रकार की कमी नहीं आती | जो लोग बिना संख्या के जप करते हैं, उन्हें इस बात का अनुभव होगा कि जब कभी जप करते – करते मन अन्यत्र चला जाता है, तब मालूम ही नहीं होता कि जप हो रहा  था अथवा नहीं या कितने समयतक  जप बंद रहा | यह प्रसाद हाथ में माला रहने पर या संख्या से जप करने पर नहीं होता | यदि मन कभी कहीं चला भी जाता है तो माला का चलाना बंद हो जाता है, संख्या आगे नहीं बढ़ती और यदि माला चलती रही तो जीभ भी अवश्य चलती ही रहेगी | कुछ ही समय में ये दोनों मन को आकृष्ट करने में समर्थ हो सकेंगी |

मानस – पूजा

बाह्यपूजा के साथ–साथ मांस–पूजा का भी अत्यधिक महत्त्व है | पूजा की पूर्णता मानस-पूजन में ही हो जाती है | भगवान् को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं, वे तो भाव के भूखे हैं | संसार में ऐसे दिव्य पदार्थ उपलब्ध नहीं हैं, जिन से परमेश्र्वर की पूजा की जा सके | इसलिये शास्त्रों में मानस – पूजा का विशेष महत्त्व माना गया है | मानस–पूजा में भक्त अपने इष्टदेव को मुक्तामणियों से मण्डितकर स्वर्णसिंहासनपर विराजमान करता है | स्वर्गलोक की मन्दाकिनी गंगा के जल से अपने आराध्य को स्नान कराता है, कामधेनु  गौ के दुग्ध से पञ्चामृत का निर्माण करते है | वस्त्रा-भूषण भी दिव्य अलौकिक होते हैं | पृथ्वी-रूपी गन्ध का अनुलेपन करता है | अपने आराध्य के लिये कुबेर की पुष्प-वाटिका से स्वर्ण-कमल – पुष्पों का चयन करता है | भावना से वायुरूपी धूप, अग्निरूपी दीपक तथा अमृतरूपी नैवेद्य भगवान् को अर्पण करने की विधि है | इसके साथ ही त्रिलोक की सम्पूर्ण वस्तु, सभी उपचार सच्चिदानन्दघन परमात्म प्रभु के चरणों में भावना से भक्त अर्पण करता है | यह है मानस – पूजा का स्वरूप | इसकी एक संक्षिप्त विधि भी पुराणों में वर्णित है | जो निचे लिखी जा रही है – 

१) - ॐ लं पृथिव्यात्मकं  गन्धं परिकल्पयामि |

(प्रभो ! मै पृथिवीरूप गन्धं (चन्दन) आपको अर्पित करता हूँ |)

२) – ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि |

(प्रभो ! मैं आकाशारूप पुष्प आपको अर्पित करता हुँ |)

३) – ॐ यं वाय्वात्मकं धुपं परिकल्पयामि |

(प्रभो ! मैं वायुदेवके रूपमें धुप आपको प्रदान करता हूँ |)

४)- ॐ रं वहन्यात्मकं दीपं दर्शयामि |

(प्रभो ! मैं अग्निदेवके रूपमें दीपक आपको प्रदान करता हूँ |)

५)- ॐ वं अमृतात्मकं नैवेद्य निवेदयामि |

(प्रभो ! मैं अमृतके समान नैवेद्य आपको निवेदन करता हूँ |)

६)- ॐ सौं सर्वात्मकं सर्वोपचार समर्पयामि |

(प्रभो ! मैं सर्वात्माके रूपमें संसार के सभी उपचारों को आपके चरणों में समर्पित करता हूँ |)- इन मन्त्रों से भावनापूर्वक मानस – पूजा की जा सकती है | 

यज्ञ

भारतीय संस्कृति और वेद–पुराणों में  यज्ञों की अपार महिमा निरुपित है |  यज्ञोंके द्वारा विश्वात्मा प्रभु को संतृप्त करने की  विधि बतलायी  गयी है | अतः जो  जन्म–मरण के बंधन से मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें यज्ञ–यागादि  शुभ कर्म अवश्य करने चाहिये | वेद, जो परमात्मा के निःश्वास भूत  हैं,  उनकी मुख्य प्रवृत्ति यज्ञों के अनुष्ठान–विधान में है | यज्ञोंद्वारा  समुद्भूत पर्जन्य–वृष्टि आदिसे संसारका पालन करते हैं | इस प्रकार परमात्मा यज्ञों के सहारे ही विश्वका संरक्षण  करते हैं | यज्ञ कर्ता को अक्षय सुख की प्राप्ति होती है | 

श्रीमद्भगवद्गीताके तृतीय अध्याय के १० से १५ तक के श्लोकों में यज्ञपर ही संसार को आधृत कहा  है और इसमें  वेद और परमात्माकी प्रतिष्ठा कही  है | भगवान् ने गीता में कहा है – 


सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः | 

अनेन प्रसविष्यध्वमेष  वोऽस्त्विष्टकामधुक् ||

( ३ | १० )


प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं की सृष्टि कर उनसे कहा –‘तुमलोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो |’ गीता में तो भगवान् ने तो यहाँ तक कहा है कि यज्ञ से बचे हुए अन्न को खानेवाले मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जातें हैं और जो पापी लोग अपना शारीर-पोषण करने के लिए अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं –


यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः |

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ||

( ३ | १३ ) 


इसलिये  भगवान् ने कहा – ‘तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ’    ( गीता ३ | १५ ) |  सर्वव्यापी परम अक्षर  परमात्मा सर्वदा यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं | शरीर और अन्तः  कारणकी शुद्धि तथा जीवनमें दिव्यताके आधान के लिये भी यज्ञ की आवश्यकता है – ‘महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः |’  ये  यज्ञ सकाम भी किये जाते हैं और निष्काम भी | अनेक राजाओं आदिके चरित्र – वर्णन में विविध  यज्ञानुष्ठानों के सुन्दर आख्यान– उपाख्यान भी पुराणों में उपलब्ध  होते हैं | इन यज्ञों से परम पुरुष नारायण की आराधना होती है | श्रीमद्भागवत ( ४ | १४ | १८ – २९ ) – में स्पष्ट वर्णित है –


यस्य राष्ट्रे पुरे चैव भगवान्  यज्ञपुरुषः | 

इज्यते स्वेन धर्मेण  जनैर्वर्णाश्रमान्वितैः ||  

तस्य राज्ञो महाभाग भगवान भूतभावनः | 

परितुष्यति विश्वात्मा तिष्ठतो निजशासने ||


जिस के राज्य अथवा नगर में वर्णाश्रम–धर्मों का पालन करने वाले पुरुष स्वधर्म–पालनके द्वारा भगवान् यज्ञ पुरुष की आराधना करते हैं, हे महाभाग ! भगवान् अपनी वेद शास्त्र रूपी आज्ञा का पालन करने वाले उस राजा से प्रसन्न रहते हैं ; क्योंकि वे ही सारे विश्व की आत्मा तथा सम्पूर्ण प्राणियों के रक्षक हैं | पद्मपुराण के सृष्टिखंड (३|१२४) में स्पष्ट कहा गया है कि – यज्ञ से देवताओं का आप्यायन अथवा पोषण होता है | यज्ञ द्वारा वृष्टि होनो से मनुष्यों का पालन होता है, इस प्रकार संसार का पालन-पोषण करने के कारण ही यज्ञ कल्याण के हेतु कहे गये हैं –


यज्ञेनाप्यायिता देवा वृष्टयुत्सर्गेण मानवाः |

आप्यायनं वै कुर्वन्ति यज्ञाः कल्याणहेतवः ||


सभी पुराणों ने यज्ञों के यथासम्भव सम्पादन पर अत्यधिक बल दिया है | यज्ञों का फल केवल इह लौकिक ही नहीं, अपितु पारलौकिक भी है |इनके अनुष्ठान से देवों, ऋषियों, दैत्यों, नागों, किन्नरों, मनुष्यों तथा सभी को अभीष्ट कामनाओं की प्राप्ति ही नहीं हुई है, प्रत्युत उनका सर्वांगीण अभ्युदय भी हुआ है | अतः इनका सम्पादन अवश्यकरणीय है |

आहार – शुध्दि

भोजन के रस से ही शरीर, प्राण और मन का निर्माण होता है | म्लान चित्त में देवता और मन्त्र के प्रसाद का उदय नहीं होता | अशुद्ध भोजन से रोग, क्षोभ और ग्लानि होती है | शुद्ध भोजन से मन पवित्र होती है | अन्याय, बेईमानी, चोरी, डकैती आदि से उपार्जित दूषित अन्न द्वारा शुद्ध चित्त का निमार्ण होना असम्भवप्राय है | इसी प्रकार अशुद्ध स्थान में रखे दूध, दही आदि या कुत्ते आदि से स्पृष्ट पदार्थ भी त्याज्य हैं | गौके दूध, दही, घी, श्र्वेत तिल, मूँग, कन्द, केला, आम,नारियल, नारंगी, आँवला , साठी चावल, जौ, जीरा आदि हविष्यान्न व्रतों में उपादेय हैं | मधु, खारा नमक, तेल, लहसुन, प्याज, गाजर, उड़द, मसूर, कोदो, चना, बासी तथा परान्न त्याज्य हैं | जिन्हें भिक्षा लेने का अधिकार है, उन संन्यासी आदिकों के लिये भिक्षा परान्न नहीं है, पर भिक्षा सदाचारी एवं पवित्र गृहस्थों से लेनी चाहिये |

सोलह संस्कार एवं उसकी परिभाषा

वेद–पुराणों तथा धर्म शास्त्रों में संस्कारों की आवश्यकता बतलायी है | जैसे खान से सोना, हीरा आदि निकालने पर उसमें चमक–प्रकाश तथा सौन्दर्य के लिये उसे तपाकर, तराशकर मल हटाना एवं चिकना करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार मनुष्य में मानवीय शक्ति का आधान होने के लिये उसे सुसंस्कृत होना आवश्यक है अर्थात् उसका पूर्णतः विधिपूर्वक संस्कार–साधन से दिव्य ज्ञान उत्पन्न कर आत्माओ को परमात्मा के रूप मे प्रतिष्ठित  करना ही मुख्य संस्कार है और मानव-जीवन प्राप्त करने की सार्थकता भी इसी में है |  संस्कारों से आत्मा-अन्तःकरण शुद्ध होता है | संस्कार मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त करते है | संस्कार मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं- १) मलापनयन और २) अतिशयाधान | किसी दर्पण आदि पर पड़ी हुई धूल आदि सामान्य मल को वस्त्र आदि से पोंछना-हटाना या स्वच्छ करना मलापनयन कहलाता है और फिर किसी रंग या तेजोमय पदार्थ द्वारा उसी दर्पण को विशेष चमत्कृत या प्रकाशमय बनाना अतिशयाधान कहलाता है | अन्य शब्दों में इसे ही भावना, प्रतियत्न या गुणाधान-संस्कार कहा जाता है |


संस्कारों की संख्या में विद्वानों में प्रारंभ  से ही कुछ मतभेद रहा है | गौतम स्मृति में ४८ संस्कार बतलाये  गए है | महर्षि अङ्गिरा ने २५ संस्कार निर्दिष्ट किये है | पुराणों में भी विविध संस्कारों का उल्लेख है, परन्तु उनमे मुख्य तथा आवश्यक षोडश संस्कार माने गए है | महर्षि व्यास द्वारा प्रति पादित प्रमुख षोडश  संस्कार इस प्रकार है – १) गर्भाधान, २) पुंसवन, ३) सीमान्तोन्नयन, ४) जातकर्म ५) नामकरण ६) निष्क्रमण ७) अन्नप्राशन ८) वपन-क्रिया  (चूडाकरण) , ९) कर्णवेध , 

१०) व्रतादेश (उपवन ), ११) वेदारम्भ , १२) केशान्त (गोदान ), १३) वेदस्त्रान (समावर्तन ), १४) विवाह , १५) विवाहाग्निपरिग्रह , १६) त्रेताग्निसंग्रह | आगे इन्हीं सोलह संस्कारों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है | इनका आरम्भ जन्म से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाता है | विशेष जानकारी के लिये गृह्यसूत्रों ,मनु आदि स्मृतियों के साथ पुराणों का भी गम्भीर अवलोकन करना चहिये | 


(१) गर्भाधान – संस्कार -  विधिपूर्वक संस्कार युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है | इस संस्कार से वीर्य सम्बन्धी तथा गर्भ सम्बन्धी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है | यही  गर्भधान-संस्कार का फल है | गर्भधान के समय स्त्री–पुरुष जिस भाव से भावित होते हैं, उसका प्रभाव उनके रज–विर्य में भी पड़ता है | उस रज–विर्य जन्य संतान में भी वे भाव प्रकट होते है | अतः  शुभमुहूर्त में शुभ मन्त्र से प्रार्थना करके गर्भाधान करे | इस विधान से कामुकता का दमन और शुभ–भावापन्न मन का सम्पादन हो जाता है | द्विजाति को गर्भाधान से पूर्व पवित्र होकर इस मन्त्र से प्रार्थना करनी चाहिये -      


गर्भं धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि पृथुष्टुके |

गर्भं ते अश्र्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ ||


‘हे सिनीवाली देवि! एवं हे विस्तृत जघनोंवाली पृथुष्टुका देवि ! आप इस स्त्री को गर्भ धारण करने की सामर्थ्य दें और उसे पुष्ट करें | कमलों की माला से सुशोभित दोनों अश्विनी कुमार तेरे गर्भ को पुष्ट करें |


(२) पुंसवन – संस्कार – पुत्र की प्राप्ति के लिये शास्त्रों में पुंसवन – संस्कार का विधान है | ‘गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वरूपप्रतिपादनम्’ (स्मृतिसंग्रह ) | इस गर्भसे पुत्र उत्पन्न हो, इसलिये पुंसवन-संस्कार किया जाता है | ‘पुन्नाम्नो नरकात् त्रायते इति पुत्रः ’ अर्थात् ‘पुम् ’ नामक नरक से त्रान (रक्षा ) करता है , उसे पुत्र कहा जाता है | इस वचन के आधार पर नरक से बचने के लिये मनुष्य पुत्र – प्राप्ति की कामना करते हैं | मनुष्य की इस अभिलाषा की पूर्ति के लिये ही शास्त्रों में पुंसवन – संस्कार का विधान मिलता है | जब गर्भ दो–तीन मास का होता है अथवा गर्भिणी में गर्भ के चिन्ह स्पष्ट हो जाते हैं, तभी पुंसवन- संस्कार का विधान बताया गया हैं | शुभ मंगलमय  मुहुर्त में मांगलिक पाठ करके गणेश आदि देवताओं का पूजन कर वटवृक्ष के नवीन अंकुरों तथा पल्लवों और कुश की जड़ को जल के साथ पेसकर उस रस रुप औषधि को पति गर्भिणी की दाहिनी नाक से पिलाये और पुत्र की भावना से ----


ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् | 

स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवता हविषा विधेम ||


--इत्यादी मन्त्रों का पाठ करे | इन मन्त्रों से सुसंस्कृत तथा अभिमन्त्रित भाव –प्रधान नारी के मन में पुत्र भाव का प्रवाह प्रवाहित हो जाता है | जिसके प्रभाव से गर्भ के मांस –पिण्ड में पुरुष के चिन्ह उत्पन्न होते हैं |


पुंसवन –संस्कार का ही उपाङ्गभुत एक संस्कार होता  है जो ‘अनवलोभन’ कहलाता है | इस संस्कार का यह प्रयोजन है कि इससे गर्भस्थ शिशु की रक्षा  के लिये सभी माङ्गलिक पूजन, हवनादि कार्यों के अनंतर जल एवं ओषधियों की प्रार्थना की जाती है | पुत्र की प्राप्ति के लिये पुराणों में पुंसवन नामक एक व्रत – विशेष का विधान भी बतलाया गया है, जो एक वर्ष तक चलता है | स्त्रियाँ पति की आज्ञा से ही इस व्रत का संकल्प लेती हैं | भागवत के छठे स्कंध, अध्याय  १८ – १९ में बताया गया है कि  महर्षि कश्यप की आज्ञा से दिति ने इन्द्र के वध की क्षमता रखने वाले पुत्र की कामना से यह व्रत किया था | 


( ३ ) सीमन्तोन्नयन – संस्कार    -  गर्भ के छठे या आठवें मास में यह संस्कार किया जाता है | इस संस्कार का फल भी गर्भ की शुद्धि ही है | सामान्यतः गर्भ में ४ मास के  बाद  बालक के अङ्ग – प्रत्यंग – ह्रदय आदि प्रकट हो जाते हैं | चेतना का स्थान ह्रदय बन जाने के कारण गर्भ में चेतना आ जाती है | इसलिये उसमें इच्छाओं का उदय होने लगता है | वे इच्छाएँ माता के हृदय में प्रतिबिम्बित होकर प्रकट होती है, जो ‘दोहद’ कहलाता है | गर्भ में जब मन तथा बुद्धि में नूतन चेतना शक्ति का उदय होने लगता है, तब इनमें जो संस्कार डाले जाते हैं, उनका बालक पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है | इस समय गर्भ शिक्षण – योग्य होता है | महाभक्त  प्रह्लाद को देवर्षि नारद जी का उपदेश तथा अभिमन्यु को चक्रव्यूह – प्रवेश का उपदेश इसी समय में मिला था | अतः माता – पिता को चाहिए कि इन दिनों विशेष सावधानी के साथ शास्त्र सम्मत व्यवहार रखें | इस  संस्कार में घृतयुक्त यज्ञ – अवशिष्ट सुपाच्य पौष्टिक चरु ( खीर ) गर्भवती स्त्री को खिलाया जाता है | संस्कार के दिन सुपाच्य पौष्टिक भोजन का विधान करके यह संकेत कर दिया गया है कि प्रसव पर्यंत ऐसा ही  सुपाच्य पौष्टिक भोजन देना चाहिये | 

इस संस्कार में पति को शास्त्र वर्णित गूलर आदि वनस्पति द्वारा गर्भिणी के सीमंत ( माँग ) – का ‘ ॐ  भुर्विनयामि, ॐ भुवर्विनयामि, ॐ स्वर्विविनयामि’ मन्त्र से पृथक्करणादि क्रियाएँ करते हुए यह मन्त्र पढना चहिये – 


येनादितेः सीमानं नयित प्रजापतिर्महते सौभगाय | 

तेनाहमस्यै सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदिंष्ट कृणोमि || 


अर्थात् ‘ जिस प्रकार देवमाता अदितिकाका सिमन्तोंन्नयन प्रजापतिने किया था , उसी प्रकार इस गर्भिणी का सिमन्तोन्नयन करके पुत्रको जरावस्थाप्रर्यन्त दीर्घजीवी करता हूँ | इसके बाद वृध्दा  ब्राह्मणिंयोंद्वारा  आशीर्वाद  दिलाया जाता है | 

            

( ४ )  जातकर्म संस्कार -  इस संस्कार से गर्भस्त्राव –जन्य सारा दोष नष्ट हो जाता है | बालकका जन्म होते ही यह संस्कार करनेका विधान है | नालछेदनसे पूर्व बालकको स्वर्णकी त्रिदोष – नाशक है | घृत आयुवर्धक तथा वात –पित्तनाशक है एवं मधु कफनाशक है | इन तीनोंका सम्मिश्रण आयु ,लावण्य और मेधाशक्ति बढ़ानेवाला तथा पवित्र कारक होता है | बालकके पिता अथवा आचर्यको बालकके कानके पास उसके दिर्घयुके लिये इस मन्त्रका पाठ करना चहिये -     


अग्रिरायुष्मान्त्स वनस्पतिभिरायुष्माँस्तेन  त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मनतं करोमि ||’

( पारस्कर.१|१६|६)


जिस प्रकार अग्निदेव वनस्पतियों द्वारा आयुष्मान् हैं, उसी प्रकार उनके अनुग्रह से मैं तुम्हें दीर्घ आयु से युक्त करता हूँ | ऐसे आठ आयुष्य –मन्त्रोंको बालकके कानके पास गम्भीरतापूर्वकजप कर उसकेमनको  उत्तम भावोसे  भावित करे | पुनःपिताद्वारा पुत्र के दीर्घायु होनेतथा  उसकेकल्याणकी  कामनासे ॐ दिवस्परि प्रथमं जग्य्ने [यजु ०|१२ १८ – २८ ] इत्यादि ग्यारह मन्त्रो का पाठ करते हुए बालकके ह्रदय आदि सभी अंगोका स्पर्श करने का विधान है | इस संस्कार में माँ के स्तानोंको धोकर दूध पिलाने का विधान इसलिये किया गया है कि माँ के रक्त और मांस से उत्पन्न बालक के लिये माँ का दूध ही सर्वाधिक पोषक पदार्थ है |

      

( ५ )   नामकरण-संस्कार -   इस संस्कार का फल आयु तथा तेजकी वृद्धि एवं लौकिक व्यवहारकी सिद्धि बताया गया है | जन्म से दस रात्रिके बाद ग्यारहवें दिन कुलक्रमानुसार सौवें दिन या एक वर्ष बीत जानेके बाद नामकरण-संस्कार करने की विधि है | पुरुष और स्त्रियों का नाम किस प्रकार का रखा जाय, इन साड़ी विधियों का वर्णन पुराणोंमें बताया गया है |


(६ )   निष्क्रमण-संस्कार  -   इस संस्कार का फल विद्वानों ने आयु की वृद्धि बताया है – ‘निष्क्रमणादायुषो वृद्धिरप्युद्दिष्टा मनीषिभिः’| यह संस्कार बालक के चौथे या छठे मास में होता है, सूर्य तथा चन्द्रादि देवताओं का पूजन कर बालक को उनके दर्शन करना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है | बालक का शरीर, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश से बनता है | बालक का पिता इस संस्कार के अंतर्गत आकाश आदि पंचभूतों के अधिष्ठता देवताओं से बालक के कल्याण की कामना करता है |

यथा – 


शिवे ते स्तां द्यावापृथ्वी  असंतापे  अभिश्रियौ|

शं ते सूर्य आ तपतु शं वातो वातु ते ह्रदे |

शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्याः पयस्वतिः ||

(अथर्ववेद ८|२|१४)


अर्थात् ‘हे बालक ! तेरे निष्क्रमण के समय द्युलोक तथा पृथिवीलोक कल्याणकारी, सुखद एवं शोभास्पद हों | सूर्य तेरे लिये कल्याणकारी प्रकाश करें | तेरे ह्रदय में स्वच्छ कल्याणकारी वायु का संचरण हो | दिव्य जलवाली गंगा-यमुना आदि नदियाँ तेरे लिये निर्मल स्वादिष्ठ जलका वहन करें |’                                                                                                                                                   

( ७ ) अन्नाप्रासन – संस्कार -  इस संस्कार के द्वारा माता के गर्भ में मलिन-भक्षण-जन्य जो दोष बालकमें आ जाते हैं,उनका नाश हो जाता है (अन्नाशनान्मातृगर्भेमलाशाद्यपि शुद्धयति’) जब बलाक ६-७ मास का होता है और दाँत निकलने लगते हैं, पाचन शक्ति प्रबल होने लगती है, तब यह संस्कार किया जाता है | शुभमुहुर्तमें देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता आदि सोने या चाँदीकी शलाका या चम्मच से निम्नलिखित मन्त्रसे बालकको हविष्यान्न (खीर) आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न चटाते हैं –


शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ |

एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः ||

(अथर्ववेद ८|२|१८)


अर्थात् ‘हे बालक ! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों; क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ यक्ष्मा-नाशक हैं तथा देवान्न होनेसे पापनाशक हैं |’

इस संस्कार के अंतर्गत देवोंको खाद्य-पदार्थ निवेदित कर अन्न खिलानेका विधान बताया गया है | अन्न ही मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है, उसे भगवान् का कृपाप्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिये |


वपनक्रिया (चूडाकरण-संस्कार ) - इसका फल बल,आयु तथा तेजकी वृद्धि करना है | इसे प्रायः तीसरे, पाँचवें या सातवें वर्ष अथवा कुलपरम्पराके अनुसार करने का विधान है | मस्तक के भीतर ऊपरको जहाँपर बलों का भँवर होता है, वहाँ सम्पूर्ण नाड़ियों एवं संधियों का मेल हुआ है | उसे ‘अधिपति’ नामक मर्मस्थान कहा गया है , इस मर्मस्थान की सुरक्षा के लिये ऋषियों ने उस स्थान पर चोटी रखनेका विधान किया है | यथा –


नि वर्त्तयाम्यायुषेऽनाद्याय प्रजननाय रायास्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुविर्याय ||                                                                                                                                                                                                                            ( यजु०३|६३)


‘हे बालक! मैं तेरे दीर्घ आयु के लिये तथा तुम्हें अन्नके ग्रहण करनेमें समर्थ बनानेके लिये, उत्पादन – शक्ति- प्राप्ति के लिए, ऐश्वर्य-वृद्धि के लिये, सुन्दर संतान के लिये, बल तथा पराक्रम-प्राप्ति के योग्य होनेके लिए तेरा चूडाकरण (मुण्डन) संस्कार करता हूँ |’ इस मन्त्र से बालकको संबोधित करके शुभमुहूर्तमें कुशल नाई से बालक का मुण्डन कराये | बादमें सिरमें दही-मक्खन लगाकर बालकको स्नान कराकर मांगलिक क्रियाएँ करनी चाहिये |


( ९ ) कर्ण वेधन  - पूर्ण पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिए यह संस्कार किया जाता है | शास्त्रोंमें कर्णवेधरहित पुरुष को श्राद्ध का अधकारी नहीं माना गया है | इस संस्कार को छः माससे लेकर सोलहवें मासतक अथवा तीन, पाँच आदि विषम वर्षमें या कुलक्रमागत आचारको मानते हुए संपन्न करना चाहिये | सूर्यकी किरणें कानों के छिद्रसे प्रविष्ट होकर बालक-बालिकाको पवित्र करती हैं और तेज-संपन्न बनाती हैं | यद्यपि ब्राह्मण और वैश्य का रजतशलाका(सुई ) –से , क्षत्रिय का स्वर्णशलाका से तथा शूद्रका लौहशलाका द्वारा कान छेदने का विधान है तथापि वैभवशाली पुरुषोंको स्वर्णशलाका  से ही यह क्रिया संपन्न करानी चाहिये | पवित्र स्थानमें शुभ समयमें देवताओंका पूजन कर सूर्यके सम्मुख बालक अथवा बालिकाके कानोंका निम्नलिखित मन्त्रद्वारा अभिमन्त्रण करना चाहिये –


भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः|

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाँ सस्तनूभिर्व्यशेमही देवहितं यदायुः ||

(यजु० २५|२१)


फिर बालकके प्रथम दाहिने कानमें तदनन्तर बायें कानमें सुईसे छेद करे | बालिकाके पहले बायें फिर दाहिने कानके वेधके साथ बायीं नासिकाके वेधका भी विधान मिलता है | इन वेधोंमें बालकोंको कुण्डल आदि तथा बालिकाको कर्णाभूषण आदि पहनाने चाहिये | कर्णवेधके नक्षत्र से तीसरे नक्षत्र में लगभग तीसरे दिन अच्छी तरहसे उष्ण-जलसे कानको धोना और स्नान कराना चाहिये | कर्णवेध के लिये जन्मनक्षत्र, रात्रि तथा दक्षिणायन निषिद्ध समय माना गया है |


( १० ) उपनयन ( व्रतादेश ) – संस्कार -   इस संस्कार से द्विजत्वकी प्राप्ति होती है | शास्त्रों तथा पुराणों में तो यहाँतक कहा गया है कि इस संस्कार के द्वारा ब्राह्मण-क्षत्रिय  और वैश्य का द्वितीय जन्म होता है | विधिवत् यज्ञोपवीत धारण करना इस संस्कार का मुख्य अंग है | इस संस्कार के द्वारा अपने आत्यंतिक कल्याण के लिये वेदाध्यन तथा गायत्री – जप और श्रौत – स्मार्त आदि कर्म करनेका अधिकार प्राप्त होता है | 


शास्त्र विधिसे उपनयन – संस्कार हो जानेपर गुरु बालक के कन्धों तथा ह्रदय का स्पर्श करते हुए कहता है – 


‘मम व्रते ते हृदयं दधामि | मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु मम वाचमेकमना जुषश्व  बृहस्पंतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्मम् ||’  


मैं वैदिक तथा लौकिक शास्त्रों के  ज्ञान करने वाले वेदव्रत तथा विद्याव्रत – इन दो व्रतों को तुम्हारे ह्रदय में स्थापित कर रहा हूँ | तुम्हारा चित्त – मन या अन्तः कारण  मेरे अंतःकरण का ज्ञानमार्ग में अनुसरण करता रहे अर्थात् जिस प्रकार मैं तुम्हें  उपदेश करता हूँ, उसे तुम्हारा चित्त ग्रहण करता चले | मेरी बातों को तुम एकाग्र – मन से समाहित होकर सुनो और ग्रहण करो | बुद्धि – विद्या के स्वामी बृहस्पति तुम्हें मेरी विद्याओं से संयुक्त करें | इसी प्रकार वेदाध्यन के साथ – साथ गुरुद्वारा बालक ( वटू ) – को कई उपदेश प्रदान किये जाते हैं | प्राचीन कालमें केवल वाणी से ही ये शिक्षाएं नहीं दि जाती थीं , प्रत्युत गुरुजन तत्परतापुर्वक शिष्यों से पालन भी करवाते थे | 

      

( ११ ) वेदारम्भ – संस्कार -  उपनयन हो जाने पर  बालक का वेदाध्यनमें अधिकार प्राप्त हो जाता है | ज्ञानस्वरूप  वेदों के सम्यक् अध्ययन से पूर्व मेधाजनन  नामक एक उपांग – संस्कार करने का विधान है | इस क्रिया से बालक की मेधा, विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है और वेदाध्यन आदिमें विशेष अनुकूलता प्राप्त होती है तथा विद्याध्ययन में कोई विघ्न नहीं होने पाता | ज्योतिर्निबंध में कहा गया है | 


विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाऽऽयुः प्रवर्धते |

विद्यया सर्वसिद्धिः स्याद्विद्ययाऽमृतमश्नुते  ||  


‘वेदविद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है,  आयुकी वृद्धि होती है, सारी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं,  यहांतक कि उसके समक्ष साक्षात् अमृत – रस अशन – पानके रूपमें उपलब्ध हो जाता है |’ गणेश और सरस्वती की पूजा करनेके पश्चात्  वेदारम्भ में प्रविष्ट होनेका विधान है | शास्त्रों में कही गयी निषिद्ध तिथियों में वेदका स्वाध्याय नहीं करना चाहिए | अपने गुरुजनों से  अंगोसहित  वेदों तथा उपनिषदों का अध्ययन  करना चाहिए | तत्व ज्ञानकी प्राप्ति कराना ही इस संस्कार का परम प्रयोजन है | ‘वेदव्रत’ नामक संस्कार में महानाम्नी, महान्, उपनिषद्, एवं उपाकर्म चार व्रत आते हैं | उपकर्मको सभी जानते हैं | यह प्रतिवर्ष श्रावण में होता है | शेष प्रथम महानाम्नी में प्रतिवर्षान्त सामवेदके महानाम्नी आर्चिक की नौ ऋचाओं का पाठ होता है | प्रथम मुख्य इस प्रकार है –


विदा मघवन् विदा गातुमनुश ँ् सिषो दिशः |

शिक्षा    शचीनां    पते   पूर्वीणां    पुरूवसो ||

(साम० ६४१) 


इसका भाव है –  ‘अत्यन्त वैभवशाली, उदार एवं पूज्य परमात्मन् ! आप सम्पूर्ण वेद-विद्याओंके ज्ञान से सम्पन्न हैं एवं आप सन्मार्ग और गम्य दिशाओं को भी ठीक-ठीक जानते हैं, हे आदिशक्ति के स्वामिन् ! आप हमें शिक्षा का सांगोपांग रहस्य बतला दें |’ द्वितीय तथा तृतीय वर्षोंमें क्रमशः ‘वैदिक महाव्रत’ तथा ‘उपनिषद्-व्रत’ किया जाता है, जिसमें वेदोंकी ऋचाओं तथा उपनिषदों का श्रद्धा पूर्वक पाठ किया जाता है और अन्तमें सावित्री-स्नान होता है | इसके अनन्तर वेदाध्यायी स्नातक कहलाता है | इसमें सभी मन्त्र- संहिताओं का गुरुमुख से श्रवण तथा मनन करना होता है | यह वेदारम्भ मुख्यतः ब्रह्मचर्याश्रम – संस्कार है |


१२) केशान्त- संस्कार (गोदान) –  वेदारम्भ- संस्कार में ब्रह्मचारी गुरुकुल में वेदों का स्वाध्याय तथा अध्ययन करता है | उस समय वह ब्रह्यचर्य का पूर्ण पालन करता है तथा उसके लिये केश और श्मश्रु (दाढ़ी),मौञ्जी –मेखलादि धारण करने का विधान है | जब विद्याध्ययन पूर्ण हो जाता है, तब गुरुकुल में ही केशान्त-संस्कार संपन्न होता है | इस संस्कार में भी आरंभ में सभी संस्कारों की तरह गणेशादि देवों का पूजन कर तथा यज्ञादि के सभी अंगभूत कर्मों का सम्पादन करना पड़ता है | तदनन्तर श्मश्रु-वपन (दाढ़ी बनाने ) की क्रिया संपन्न कि जाती है, इसलिये यह श्मश्रु-संस्कार भी कहलाता है |

‘केशानाम् अन्तः समीपस्थितः श्मश्रुभाग इति व्युत्पत्त्या केशान्तशब्देन श्मश्रूणामभिधानात् श्मश्रुसंस्कार एवं केशान्तशब्देन प्रतिपाद्यते | अत एवाश्वलायनेनापी ‘श्मश्रूणीहोन्दति’ | इति श्मश्रूणां संस्कार एवात्रोपदिष्टः |’  

( संस्कारदीपक भाग २, पृ ३४२ )


पूर्वोक्त विवरण में यह स्पष्ट किया गे है कि केशान्त शब्दसे श्मश्रु (दाढ़ी) – का ही ग्रहण होता है, अतः मुख्यतः श्मश्रु-संस्कार ही केशान्त-संस्कार है | इसे गोदान संस्कार भी कहा जाता है ; क्योंकि ‘गौ’ यह नाम केश (बालों) – का भी है और केशोंका अन्तभाग अर्थात् समीपस्थित श्मश्रु भाग भी कहलाता है –


‘गावो लोमानि केशा दीयन्ते खण्ड्यन्तेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या गोदानं नाम ब्राह्मणादीनां षोडशादिषुवर्षेषु कर्तव्यं केशान्ताख्यं कर्मोच्यते |’

(रघुवंश ३|३३ पद्यकी मल्लिनाथव्याख्या )

‘गौ अर्थात् लोम-केश जिस में काट दिये जाते हैं, इस व्युत्पत्तिके अनुसार ‘गोदान’ पद यहाँ ब्राह्मण आदि वर्णों के सोलहवें वर्ष में करने योग्य केशान्त नामक कर्म का वाचक है |’ यह संस्कार केवल उत्तरायण में किया जाता है तथा प्रायः षोडश वर्ष में होता है |


१३) समावर्तन (वेदस्नान) - समावर्तन विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है | विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने के अनन्तर स्नातक ब्रह्मचारी अपने पूज्य गुरु की आज्ञा पाकर अपने घर में समावर्तित होता है – लौटता है | इसलिये इसे समावर्तन- संस्कार कहा जाता है | गृहस्थ – जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाना समावर्तन – संस्कार का फल है | वेद – मन्त्रों से अभिमन्त्रित जल से भरे हुए ८ कलशों से विशेष विधिपूर्वक ब्रह्मचारी को स्नान कराया जाता है, इसलिये यह वेदस्नान – संस्कार भी कहलाता है | समावर्तन – संस्कार की वास्तविक विधि के सम्बन्ध में आश्वलायन – स्मृति के १४वें अध्याय में पाँच प्रामाणिक श्लोक मिलते हैं, जिनके अनुसार केशान्त- संस्कार के बाद विधिपूर्वक स्नान के अनन्तर वह ब्रह्मचारी वेदविद्याव्रत – स्नातक कहलाता है | उसे अग्निस्थापन, परिसमूहन तथा पर्युक्षण आदि अग्निसंस्कार कर ऋग्वेदके दसवें मण्डल के १२८वें सूक्त की सभी ९ वों ऋचाओं से समिधा का हवन करना चाहिये | फिर गुरुदक्षिणा देकर , गुरुके चरणों का स्मरण कर, उनकी आज्ञा ले स्विष्टकृत् होम के अनन्तर निम्न मन्त्र द्वारा वरुणदेव से मौंजी-मेखला आदिके त्यागकी कामना करते हुए प्रार्थना करनी चाहिये –


‘उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत | अवाधमानि जीवसे ||’

( ऋग्वेद १|२५ |२१ )


इसका भाव है – हे वरुणदेव ! आप हमारे कटि एवं उर्ध्वभाग के मौंजी, उपवीत एवं मेखलाको हटाकर सूत की मेखला तथा उपवीत पहनने की आज्ञा दें और निर्विघ्न अग्रिम जीवन का विधान करें | इसके बाद गुरुजन घर आते समय उसे लोक-परलोक – हितकारी एवं जीवनोपयोगी शिक्षा देते हैं– सत्य बोलना | धर्म का आचरण करना | स्वाध्याय में प्रमाद न करना | आचार्य लिये प्रिय धन लाकर देना | संतान – परंपरा का उच्छेद न करना | सत्य में प्रमाद न करना  |  कुशल – कर्मों में प्रमाद न करना | ऐश्वर्य देनेवाले कर्मों में प्रमाद  न करना  | स्वाध्याय और प्रवचन में प्रमाद न करना | देवकार्यों और पितृकार्यों में प्रमाद नहीं करना | माता –पिता ,आचार्य तथा अतिथि को देवता माननेवाले होओ | जो अनिन्ध कर्म हैं ,उन्हीं की ओर प्रवृत्ति होनी चाहिये ,अन्य कर्मों की ओर नहीं | हमारे जो शुभ आचरण हैं ,तुम्हें उन्हीं का आचरण करना चाहिये ,दूसरों का नहीं | जोहमारी अपेक्षा भी श्रेष्ठ ब्रह्मण हैं ,उनका आसनादि के द्वारा तुम्हें आश्र्वासन(आदर)करना चाहिये | श्रध्दापूर्वक दान देना चाहिये | अश्रद्धापूर्व नहीं देना चाहिये | अपने ऐश्र्वर्य के अनुसार देना चाहिये | लज्जापूर्वक देना चाहिये | भय मानते हुए देना चाहिये |मित्रतापूर्वक देना चाहिये |यदि तुम्हें कर्म या आचरण के विषय में कोई संदेह उत्पन्न हो जाय तो वहाँ जो विचारशील ,कर्म में स्वेच्छा से भलीभाँति लगेरहनेवाले धर्ममति ब्राह्मण हों ,उस विषयमें वे जैस व्यवहार करते हों ,वैसा तुम्हें भी करना चाहिये |इसी प्रकार जिनपर संशययुक्त दोषारोपण किया गया हो ,उनके विषय में भी वहाँ जो विचारशील ,हों वे जैसा व्यवहार करें ,वैसा तुम्हें भी करना चाहिये | यह आदेश है ,यह उपदेश है ,यह वेदका रहस्य और ईश्वर की आज्ञा है | इस प्रकार तुम्हें उपासना करनी चाहिये | ऐसाही आचरण करना चाहिये | इस उपदेश – प्राप्ति के अनन्तर स्नातक को पुनः गुरु को प्रणाम कर मौंजी-मेखला आदि का परित्याग करके गुरु से विवाह की आज्ञा लेकर अपने माता-पिता के पास आना चाहिये और माता- पिता आदि अभिभावकों उस वेद-विद्याव्रत-स्नातक के घर आने पर मांगलिक वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर मधुपर्क आदि से उसका स्वागत -सत्कारपूर्वक अर्चन करना चाहिये |


१४) विवाह-संस्कार – पुराणों के अनुसार ब्रह्म आदि उत्तम विवाहों से उत्पन्न पुत्र पितरों को तारनेवाला होता है | विवाह का यही फल बताया गया है | यथा –


ब्राह्माद्युद्वाहसम्भूतः पितृणां तारकः सुतः |

विवाहस्य फलं त्वेतद् व्याख्यातं परमर्षिभिः ||

(स्मृतिसंग्रह)


विवाह-संस्कार का भारतीय संस्कृति में अत्यधिक महत्व है | जिस दार्शनिक विज्ञान और सत्यपर वर्णाश्रमी आर्यजाति के स्त्री-पुरुषों का विवाह-संस्कार प्रतिष्ठित है, उसकी कल्पना दुर्विज्ञेय है | कन्या और वर दोनों के स्वेच्छाचारि तापर नियंत्रण होता है | पाणिग्रहण – संस्कार देवता और अग्नि के साक्षित्व में करने का विधान है | भारतीय संस्कृति में यह दांपत्य सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर, युग-युगान्तर तक मन गया है |


१५) विवाहग्नि परिग्रह – विवाह-संस्कार में लाजा-होम आदि क्रियाएँ जिस अग्नि में संपन्न की जाती हैं, वह ‘आवसथ्य’ नामक अग्नि कहलाती है |इसीको विवाहग्नि भी कहा जाता है | उस अग्नि का आहरण तथा परिसमूहन आदि क्रियाएँ इस संस्कार में सम्पन्न होती हैं | शास्त्रों में निर्देश है कि किसी बहुत पशुवाले वैश्य के घर से अग्नि को लाकर विवाह – स्थल की उपलिप्त पवित्र भूमि में परिसमूहन तथा पर्युक्षण पूर्वक उस अग्निकी मन्त्रों से स्थापना करनी चाहिये और उसी स्थापित अग्नि में विवाह- सम्बन्धी लजा-होम तथा औपासन होम करना चाहिये | तदनन्तर अग्नि की प्रदक्षिणा कर स्विष्टकृत् होम तथा पूर्णाहुति करने का विधान है | कुछ विद्वानों का मत है कि अग्नि कहीं बाहर से न लाकर अरणि-मन्थनद्वारा उत्पन्न करनी चाहिये |

विवाह के अनन्तर जब वर-वधू अपने घर आने लगते हैं, तब उस स्थापित अग्नि को घर लाकर किसी पवित्र स्थान में प्रतिष्ठित कर उसमें प्रतिदिन अपनी कुलपरम्परानुसार सायं-प्रातः हवन करना चाहिये | यह नित्य-हवन-विधि द्विजाति के लिये आवश्य बतायी गयी है और नित्य –कर्मों में परिगणित है | सभी वैश्वदेवादि स्मार्त-कर्म तथा पाक-यज्ञ इसी अग्नि में अनुष्ठित किये जाते हैं | जैसा कि याज्ञवल्क्य ने भी लिखा है –


‘कर्म स्मार्तं विवाहाग्नौ कुर्वीत प्रत्यहं गृही |’

(या०स्मृति, आचाराध्याय ५|९७)


१६) त्रेताग्निसंग्रह-संस्कार –

‘स्मार्तं वैवाहिके वह्नौ श्रौतं वैतानिकाग्निषु’

(व्यासस्मृति २|१७)


स्मार्त या पाकयज्ञ-संस्था के सभी कर्म वैवाहिक अग्नि में तथा हविर्यज्ञ एवं सोमयज्ञ-संस्था के सभी श्रौत –कर्मनुष्ठानादि कर्म वैतानाग्रि (श्रौताग्नि–त्रेताग्नि) - में सम्पादित होते हैं | इससे पूर्व विवाहग्निपरिग्रह – संस्कार के परिचय में यह स्पष्ट किया गया है कि विवाह में घर में लायी गयी आवसथ्य अग्रि प्रतिष्टित की जाती है और उसी में स्मार्त कर्म आदि अनुष्ठान किये जीते हैं | उस स्थापित अग्रि से अतिरिक्त तीन अग्रियों (दक्षिणाग्रि, गार्हपत्य तथा आहवनीय ) की स्थापना तथा उनकी   रक्षा आदि का विधान भी शास्त्रों में निर्दिष्ट है | ये तीन अग्रियाँ त्रेताग्नि कहलाती हैं, जिसमें श्रौतकर्म सम्पादित होते हैं | भगवान् श्रीराम जब लंका–विजय कर सीता के साथ पुष्पक–विमान से वापस लौट रहे थे, तब उन्होंने मलयाचल के ऊपर से आते समय सीता को अगस्त्य जी के आश्रम का परिचय देते हुए बताये की यह अगस्त्य मुनि का आश्रम है, जहाँ कि त्रेताग्नि में सम्पादित यज्ञों के सुगन्धित धूएँ को सूँघकर मैं अपने को  सभी  पाप–तापों से मुक्त  अनुभव  कर रहा हूँ   | 

जातकर्म, नामकर्म, और विवाह संस्कार की विधि

पुत्र के उत्पन्न होने पर पिता को चाहिये कि उसके जातकर्म आदि सकल कर्मकाण्ड और आभ्युदयिक श्राद्ध करे | पूर्वाभिमुख बिठाकर युग्म ब्राह्मणों को भोजन करावे तथा द्वि-जातियों के व्यवहार के अनुसार देव और पितृ पक्ष की तृप्ति के लिये श्राद्ध करे प्रसन्नतापूर्वक देवतीर्थ ( अँगुलियों के अग्रभाग )  द्वारा नन्दी मुख पितृ गन को दही, जौ और बदरीफल मिलाकर बनाये हुए पिण्ड दे | अथवा प्राजापत्य तीर्थ (कनिष्ठिका के मूल) द्वारा सम्पूर्ण उपचार द्रव्यों का दान करे | इसी प्रकार [कन्या अथवा पुत्रों के विवाह आदि] समस्त वृद्धि कालों में भी करे |


तदन्तर,पुत्रोत्पत्ति के दसवें दिन पिता नाम करण संस्कार करे | पुरुष का नाम पुरुष वाचक होना चाहिये | उसके पूर्व में देव वाचक शब्द हो तथा पीछे शर्मा, वर्मा, आदि होने चाहिये | ब्राह्मण के नाम के अन्त में शर्मा, क्षत्रिय के अन्त में वर्मा तथा वैश्य और शूद्रों के नामान्त में क्रमशः गुप्त और दास शब्दों का प्रयोग करना चाहिये | नाम अर्थहीन, अविहित, अपशब्दयुक्त, आमांगलिक और निन्दनीय न होना चाहिये तथा उसके अक्षर सामान होने चाहिये | अति दीर्घ, अति लघु अथवा कठिन अक्षरों से युक्त नाम न रखे | जो सुख पूर्वक उच्चारण किया जा सके और जिस के पीछे के वर्ण लघु हों ऐसे नामका व्यवहार करे |


तदनन्तर उपनयन-संस्कार हो जाने पर गुरु गृह में रह कर विधि पूर्वक विद्याध्ययन करे | फिर विद्याध्ययन कर चुकने पर गुरु को दक्षिणा देकर यदि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की इच्छा हो तो विवाह कर ले | या दृढ़ संकल्प पूर्वक नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहण कर गुरु अथवा गुरु पुत्रों की सेवा-शुश्रूषा करता रहे | अथवा अपनी इच्छानुसार वानप्रस्थ या सन्यास ग्रहण कर ले | पहले जैसा संकल्प किया हो वैसा ही करे |

[यदि विवाह करना हो तो ] अपने से तृतीयांश अवस्था वाली कन्या से विवाह करे तथा अधिक्य अल्प केश वाली अथवा अति साँवली या पाण्डु वर्ण (भूरे रंग की) स्त्रि से सम्बन्ध न करे | जिस के जन्म से ही अधिक या न्यून अंग हों, जो अपवित्र, रोमयुक्त, अकुलीना अथवा रोगिणी हो उस स्त्री से पाणिग्रहण न करे | बुद्धिमान् पुरुष को उचित है कि जो दुष्ट स्वभाव वाली हो, कटुभाषिणी हो, माता अथवा पिता के अनुसार अंग हीना हो, जिसके श्मश्रु (मुछों के) चिन्ह हों, जो पुरुष के – से आकर वाली हो अथवा घर्घर शब्द करनेवाले अति मन्द या कौए के सामान (कर्णकटु) स्वर वाली हो तथा पक्ष्मशून्या या गोल नेत्रों वाली हो उस स्त्री से विवाह न करे | जिसकी जंघाओं पर रोम हों, जिसके गुल्फ़ (टखने) ऊँचे हों तथा हँसते समय जिस के कपोलों में गड्ढे पड़ते हों उस कन्या से विवाह न करे | जिसकी कान्ति अत्यंत उदासीन न हो, नख पाण्डु वर्ण, नेत्र लाल हों तथा हाथ-पैर कुछ भारी हों, बुद्धिमान् पुरुष उस कन्या से सम्बन्ध न करे | जो अति वामन (नाटी) अथवा दीर्घ (लम्बी) हो, जिस की भृकुटियाँ जुड़ी हुई हों, जिस के दाँतों में अधिक अन्तर हो तथा जो दन्तुर (आगे का दाँत निकले हुए) मुख वाली हो उस स्त्री से कभी विवाह न करे | मातृ पक्ष से पाँचवीं पीढ़ी तक और पितृ पक्ष से सातवीं पीढ़ी जिस कन्या का सम्बन्ध न हो, गृहस्थ पुरुष को नियमानुसार उसी से विवाह करनी चाहिये | ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गंदार्व, राक्षस और पैशाच – ये आठ प्रकार के विवाह हैं | इनमें से जिस विवाह को जिस वर्ण के लिये महर्षियों ने धर्मानुकूल कहा है उसी के द्वारा दार–परिग्रह करे, अन्य विधियों को छोड़ दे | इस प्रकार सह-धर्मिणी को प्राप्त कर उसके साथ गृहस्थ्य धर्म का पालन करे, क्योंकि उसका पालन करने पर वह महान् फल देने वाला होता है |

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