वेद–पुराणों तथा धर्म शास्त्रों में संस्कारों की आवश्यकता बतलायी है | जैसे खान से सोना, हीरा आदि निकालने पर उसमें चमक–प्रकाश तथा सौन्दर्य के लिये उसे तपाकर, तराशकर मल हटाना एवं चिकना करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार मनुष्य में मानवीय शक्ति का आधान होने के लिये उसे सुसंस्कृत होना आवश्यक है अर्थात् उसका पूर्णतः विधिपूर्वक संस्कार–साधन से दिव्य ज्ञान उत्पन्न कर आत्माओ को परमात्मा के रूप मे प्रतिष्ठित करना ही मुख्य संस्कार है और मानव-जीवन प्राप्त करने की सार्थकता भी इसी में है | संस्कारों से आत्मा-अन्तःकरण शुद्ध होता है | संस्कार मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त करते है | संस्कार मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं- १) मलापनयन और २) अतिशयाधान | किसी दर्पण आदि पर पड़ी हुई धूल आदि सामान्य मल को वस्त्र आदि से पोंछना-हटाना या स्वच्छ करना मलापनयन कहलाता है और फिर किसी रंग या तेजोमय पदार्थ द्वारा उसी दर्पण को विशेष चमत्कृत या प्रकाशमय बनाना अतिशयाधान कहलाता है | अन्य शब्दों में इसे ही भावना, प्रतियत्न या गुणाधान-संस्कार कहा जाता है |
संस्कारों की संख्या में विद्वानों में प्रारंभ से ही कुछ मतभेद रहा है | गौतम स्मृति में ४८ संस्कार बतलाये गए है | महर्षि अङ्गिरा ने २५ संस्कार निर्दिष्ट किये है | पुराणों में भी विविध संस्कारों का उल्लेख है, परन्तु उनमे मुख्य तथा आवश्यक षोडश संस्कार माने गए है | महर्षि व्यास द्वारा प्रति पादित प्रमुख षोडश संस्कार इस प्रकार है – १) गर्भाधान, २) पुंसवन, ३) सीमान्तोन्नयन, ४) जातकर्म ५) नामकरण ६) निष्क्रमण ७) अन्नप्राशन ८) वपन-क्रिया (चूडाकरण) , ९) कर्णवेध ,
१०) व्रतादेश (उपवन ), ११) वेदारम्भ , १२) केशान्त (गोदान ), १३) वेदस्त्रान (समावर्तन ), १४) विवाह , १५) विवाहाग्निपरिग्रह , १६) त्रेताग्निसंग्रह | आगे इन्हीं सोलह संस्कारों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है | इनका आरम्भ जन्म से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाता है | विशेष जानकारी के लिये गृह्यसूत्रों ,मनु आदि स्मृतियों के साथ पुराणों का भी गम्भीर अवलोकन करना चहिये |
(१) गर्भाधान – संस्कार - विधिपूर्वक संस्कार युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है | इस संस्कार से वीर्य सम्बन्धी तथा गर्भ सम्बन्धी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है | यही गर्भधान-संस्कार का फल है | गर्भधान के समय स्त्री–पुरुष जिस भाव से भावित होते हैं, उसका प्रभाव उनके रज–विर्य में भी पड़ता है | उस रज–विर्य जन्य संतान में भी वे भाव प्रकट होते है | अतः शुभमुहूर्त में शुभ मन्त्र से प्रार्थना करके गर्भाधान करे | इस विधान से कामुकता का दमन और शुभ–भावापन्न मन का सम्पादन हो जाता है | द्विजाति को गर्भाधान से पूर्व पवित्र होकर इस मन्त्र से प्रार्थना करनी चाहिये -
गर्भं धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि पृथुष्टुके |
गर्भं ते अश्र्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ ||
‘हे सिनीवाली देवि! एवं हे विस्तृत जघनोंवाली पृथुष्टुका देवि ! आप इस स्त्री को गर्भ धारण करने की सामर्थ्य दें और उसे पुष्ट करें | कमलों की माला से सुशोभित दोनों अश्विनी कुमार तेरे गर्भ को पुष्ट करें |
(२) पुंसवन – संस्कार – पुत्र की प्राप्ति के लिये शास्त्रों में पुंसवन – संस्कार का विधान है | ‘गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वरूपप्रतिपादनम्’ (स्मृतिसंग्रह ) | इस गर्भसे पुत्र उत्पन्न हो, इसलिये पुंसवन-संस्कार किया जाता है | ‘पुन्नाम्नो नरकात् त्रायते इति पुत्रः ’ अर्थात् ‘पुम् ’ नामक नरक से त्रान (रक्षा ) करता है , उसे पुत्र कहा जाता है | इस वचन के आधार पर नरक से बचने के लिये मनुष्य पुत्र – प्राप्ति की कामना करते हैं | मनुष्य की इस अभिलाषा की पूर्ति के लिये ही शास्त्रों में पुंसवन – संस्कार का विधान मिलता है | जब गर्भ दो–तीन मास का होता है अथवा गर्भिणी में गर्भ के चिन्ह स्पष्ट हो जाते हैं, तभी पुंसवन- संस्कार का विधान बताया गया हैं | शुभ मंगलमय मुहुर्त में मांगलिक पाठ करके गणेश आदि देवताओं का पूजन कर वटवृक्ष के नवीन अंकुरों तथा पल्लवों और कुश की जड़ को जल के साथ पेसकर उस रस रुप औषधि को पति गर्भिणी की दाहिनी नाक से पिलाये और पुत्र की भावना से ----
ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् |
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवता हविषा विधेम ||
--इत्यादी मन्त्रों का पाठ करे | इन मन्त्रों से सुसंस्कृत तथा अभिमन्त्रित भाव –प्रधान नारी के मन में पुत्र भाव का प्रवाह प्रवाहित हो जाता है | जिसके प्रभाव से गर्भ के मांस –पिण्ड में पुरुष के चिन्ह उत्पन्न होते हैं |
पुंसवन –संस्कार का ही उपाङ्गभुत एक संस्कार होता है जो ‘अनवलोभन’ कहलाता है | इस संस्कार का यह प्रयोजन है कि इससे गर्भस्थ शिशु की रक्षा के लिये सभी माङ्गलिक पूजन, हवनादि कार्यों के अनंतर जल एवं ओषधियों की प्रार्थना की जाती है | पुत्र की प्राप्ति के लिये पुराणों में पुंसवन नामक एक व्रत – विशेष का विधान भी बतलाया गया है, जो एक वर्ष तक चलता है | स्त्रियाँ पति की आज्ञा से ही इस व्रत का संकल्प लेती हैं | भागवत के छठे स्कंध, अध्याय १८ – १९ में बताया गया है कि महर्षि कश्यप की आज्ञा से दिति ने इन्द्र के वध की क्षमता रखने वाले पुत्र की कामना से यह व्रत किया था |
( ३ ) सीमन्तोन्नयन – संस्कार - गर्भ के छठे या आठवें मास में यह संस्कार किया जाता है | इस संस्कार का फल भी गर्भ की शुद्धि ही है | सामान्यतः गर्भ में ४ मास के बाद बालक के अङ्ग – प्रत्यंग – ह्रदय आदि प्रकट हो जाते हैं | चेतना का स्थान ह्रदय बन जाने के कारण गर्भ में चेतना आ जाती है | इसलिये उसमें इच्छाओं का उदय होने लगता है | वे इच्छाएँ माता के हृदय में प्रतिबिम्बित होकर प्रकट होती है, जो ‘दोहद’ कहलाता है | गर्भ में जब मन तथा बुद्धि में नूतन चेतना शक्ति का उदय होने लगता है, तब इनमें जो संस्कार डाले जाते हैं, उनका बालक पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है | इस समय गर्भ शिक्षण – योग्य होता है | महाभक्त प्रह्लाद को देवर्षि नारद जी का उपदेश तथा अभिमन्यु को चक्रव्यूह – प्रवेश का उपदेश इसी समय में मिला था | अतः माता – पिता को चाहिए कि इन दिनों विशेष सावधानी के साथ शास्त्र सम्मत व्यवहार रखें | इस संस्कार में घृतयुक्त यज्ञ – अवशिष्ट सुपाच्य पौष्टिक चरु ( खीर ) गर्भवती स्त्री को खिलाया जाता है | संस्कार के दिन सुपाच्य पौष्टिक भोजन का विधान करके यह संकेत कर दिया गया है कि प्रसव पर्यंत ऐसा ही सुपाच्य पौष्टिक भोजन देना चाहिये |
इस संस्कार में पति को शास्त्र वर्णित गूलर आदि वनस्पति द्वारा गर्भिणी के सीमंत ( माँग ) – का ‘ ॐ भुर्विनयामि, ॐ भुवर्विनयामि, ॐ स्वर्विविनयामि’ मन्त्र से पृथक्करणादि क्रियाएँ करते हुए यह मन्त्र पढना चहिये –
येनादितेः सीमानं नयित प्रजापतिर्महते सौभगाय |
तेनाहमस्यै सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदिंष्ट कृणोमि ||
अर्थात् ‘ जिस प्रकार देवमाता अदितिकाका सिमन्तोंन्नयन प्रजापतिने किया था , उसी प्रकार इस गर्भिणी का सिमन्तोन्नयन करके पुत्रको जरावस्थाप्रर्यन्त दीर्घजीवी करता हूँ | इसके बाद वृध्दा ब्राह्मणिंयोंद्वारा आशीर्वाद दिलाया जाता है |
( ४ ) जातकर्म संस्कार - इस संस्कार से गर्भस्त्राव –जन्य सारा दोष नष्ट हो जाता है | बालकका जन्म होते ही यह संस्कार करनेका विधान है | नालछेदनसे पूर्व बालकको स्वर्णकी त्रिदोष – नाशक है | घृत आयुवर्धक तथा वात –पित्तनाशक है एवं मधु कफनाशक है | इन तीनोंका सम्मिश्रण आयु ,लावण्य और मेधाशक्ति बढ़ानेवाला तथा पवित्र कारक होता है | बालकके पिता अथवा आचर्यको बालकके कानके पास उसके दिर्घयुके लिये इस मन्त्रका पाठ करना चहिये -
अग्रिरायुष्मान्त्स वनस्पतिभिरायुष्माँस्तेन त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मनतं करोमि ||’
( पारस्कर.१|१६|६)
जिस प्रकार अग्निदेव वनस्पतियों द्वारा आयुष्मान् हैं, उसी प्रकार उनके अनुग्रह से मैं तुम्हें दीर्घ आयु से युक्त करता हूँ | ऐसे आठ आयुष्य –मन्त्रोंको बालकके कानके पास गम्भीरतापूर्वकजप कर उसकेमनको उत्तम भावोसे भावित करे | पुनःपिताद्वारा पुत्र के दीर्घायु होनेतथा उसकेकल्याणकी कामनासे ॐ दिवस्परि प्रथमं जग्य्ने [यजु ०|१२ १८ – २८ ] इत्यादि ग्यारह मन्त्रो का पाठ करते हुए बालकके ह्रदय आदि सभी अंगोका स्पर्श करने का विधान है | इस संस्कार में माँ के स्तानोंको धोकर दूध पिलाने का विधान इसलिये किया गया है कि माँ के रक्त और मांस से उत्पन्न बालक के लिये माँ का दूध ही सर्वाधिक पोषक पदार्थ है |
( ५ ) नामकरण-संस्कार - इस संस्कार का फल आयु तथा तेजकी वृद्धि एवं लौकिक व्यवहारकी सिद्धि बताया गया है | जन्म से दस रात्रिके बाद ग्यारहवें दिन कुलक्रमानुसार सौवें दिन या एक वर्ष बीत जानेके बाद नामकरण-संस्कार करने की विधि है | पुरुष और स्त्रियों का नाम किस प्रकार का रखा जाय, इन साड़ी विधियों का वर्णन पुराणोंमें बताया गया है |
(६ ) निष्क्रमण-संस्कार - इस संस्कार का फल विद्वानों ने आयु की वृद्धि बताया है – ‘निष्क्रमणादायुषो वृद्धिरप्युद्दिष्टा मनीषिभिः’| यह संस्कार बालक के चौथे या छठे मास में होता है, सूर्य तथा चन्द्रादि देवताओं का पूजन कर बालक को उनके दर्शन करना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है | बालक का शरीर, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश से बनता है | बालक का पिता इस संस्कार के अंतर्गत आकाश आदि पंचभूतों के अधिष्ठता देवताओं से बालक के कल्याण की कामना करता है |
यथा –
शिवे ते स्तां द्यावापृथ्वी असंतापे अभिश्रियौ|
शं ते सूर्य आ तपतु शं वातो वातु ते ह्रदे |
शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्याः पयस्वतिः ||
(अथर्ववेद ८|२|१४)
अर्थात् ‘हे बालक ! तेरे निष्क्रमण के समय द्युलोक तथा पृथिवीलोक कल्याणकारी, सुखद एवं शोभास्पद हों | सूर्य तेरे लिये कल्याणकारी प्रकाश करें | तेरे ह्रदय में स्वच्छ कल्याणकारी वायु का संचरण हो | दिव्य जलवाली गंगा-यमुना आदि नदियाँ तेरे लिये निर्मल स्वादिष्ठ जलका वहन करें |’
( ७ ) अन्नाप्रासन – संस्कार - इस संस्कार के द्वारा माता के गर्भ में मलिन-भक्षण-जन्य जो दोष बालकमें आ जाते हैं,उनका नाश हो जाता है (अन्नाशनान्मातृगर्भेमलाशाद्यपि शुद्धयति’) जब बलाक ६-७ मास का होता है और दाँत निकलने लगते हैं, पाचन शक्ति प्रबल होने लगती है, तब यह संस्कार किया जाता है | शुभमुहुर्तमें देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता आदि सोने या चाँदीकी शलाका या चम्मच से निम्नलिखित मन्त्रसे बालकको हविष्यान्न (खीर) आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न चटाते हैं –
शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ |
एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः ||
(अथर्ववेद ८|२|१८)
अर्थात् ‘हे बालक ! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों; क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ यक्ष्मा-नाशक हैं तथा देवान्न होनेसे पापनाशक हैं |’
इस संस्कार के अंतर्गत देवोंको खाद्य-पदार्थ निवेदित कर अन्न खिलानेका विधान बताया गया है | अन्न ही मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है, उसे भगवान् का कृपाप्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिये |
वपनक्रिया (चूडाकरण-संस्कार ) - इसका फल बल,आयु तथा तेजकी वृद्धि करना है | इसे प्रायः तीसरे, पाँचवें या सातवें वर्ष अथवा कुलपरम्पराके अनुसार करने का विधान है | मस्तक के भीतर ऊपरको जहाँपर बलों का भँवर होता है, वहाँ सम्पूर्ण नाड़ियों एवं संधियों का मेल हुआ है | उसे ‘अधिपति’ नामक मर्मस्थान कहा गया है , इस मर्मस्थान की सुरक्षा के लिये ऋषियों ने उस स्थान पर चोटी रखनेका विधान किया है | यथा –
नि वर्त्तयाम्यायुषेऽनाद्याय प्रजननाय रायास्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुविर्याय || ( यजु०३|६३)
‘हे बालक! मैं तेरे दीर्घ आयु के लिये तथा तुम्हें अन्नके ग्रहण करनेमें समर्थ बनानेके लिये, उत्पादन – शक्ति- प्राप्ति के लिए, ऐश्वर्य-वृद्धि के लिये, सुन्दर संतान के लिये, बल तथा पराक्रम-प्राप्ति के योग्य होनेके लिए तेरा चूडाकरण (मुण्डन) संस्कार करता हूँ |’ इस मन्त्र से बालकको संबोधित करके शुभमुहूर्तमें कुशल नाई से बालक का मुण्डन कराये | बादमें सिरमें दही-मक्खन लगाकर बालकको स्नान कराकर मांगलिक क्रियाएँ करनी चाहिये |
( ९ ) कर्ण वेधन - पूर्ण पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिए यह संस्कार किया जाता है | शास्त्रोंमें कर्णवेधरहित पुरुष को श्राद्ध का अधकारी नहीं माना गया है | इस संस्कार को छः माससे लेकर सोलहवें मासतक अथवा तीन, पाँच आदि विषम वर्षमें या कुलक्रमागत आचारको मानते हुए संपन्न करना चाहिये | सूर्यकी किरणें कानों के छिद्रसे प्रविष्ट होकर बालक-बालिकाको पवित्र करती हैं और तेज-संपन्न बनाती हैं | यद्यपि ब्राह्मण और वैश्य का रजतशलाका(सुई ) –से , क्षत्रिय का स्वर्णशलाका से तथा शूद्रका लौहशलाका द्वारा कान छेदने का विधान है तथापि वैभवशाली पुरुषोंको स्वर्णशलाका से ही यह क्रिया संपन्न करानी चाहिये | पवित्र स्थानमें शुभ समयमें देवताओंका पूजन कर सूर्यके सम्मुख बालक अथवा बालिकाके कानोंका निम्नलिखित मन्त्रद्वारा अभिमन्त्रण करना चाहिये –
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः|
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाँ सस्तनूभिर्व्यशेमही देवहितं यदायुः ||
(यजु० २५|२१)
फिर बालकके प्रथम दाहिने कानमें तदनन्तर बायें कानमें सुईसे छेद करे | बालिकाके पहले बायें फिर दाहिने कानके वेधके साथ बायीं नासिकाके वेधका भी विधान मिलता है | इन वेधोंमें बालकोंको कुण्डल आदि तथा बालिकाको कर्णाभूषण आदि पहनाने चाहिये | कर्णवेधके नक्षत्र से तीसरे नक्षत्र में लगभग तीसरे दिन अच्छी तरहसे उष्ण-जलसे कानको धोना और स्नान कराना चाहिये | कर्णवेध के लिये जन्मनक्षत्र, रात्रि तथा दक्षिणायन निषिद्ध समय माना गया है |
( १० ) उपनयन ( व्रतादेश ) – संस्कार - इस संस्कार से द्विजत्वकी प्राप्ति होती है | शास्त्रों तथा पुराणों में तो यहाँतक कहा गया है कि इस संस्कार के द्वारा ब्राह्मण-क्षत्रिय और वैश्य का द्वितीय जन्म होता है | विधिवत् यज्ञोपवीत धारण करना इस संस्कार का मुख्य अंग है | इस संस्कार के द्वारा अपने आत्यंतिक कल्याण के लिये वेदाध्यन तथा गायत्री – जप और श्रौत – स्मार्त आदि कर्म करनेका अधिकार प्राप्त होता है |
शास्त्र विधिसे उपनयन – संस्कार हो जानेपर गुरु बालक के कन्धों तथा ह्रदय का स्पर्श करते हुए कहता है –
‘मम व्रते ते हृदयं दधामि | मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु मम वाचमेकमना जुषश्व बृहस्पंतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्मम् ||’
मैं वैदिक तथा लौकिक शास्त्रों के ज्ञान करने वाले वेदव्रत तथा विद्याव्रत – इन दो व्रतों को तुम्हारे ह्रदय में स्थापित कर रहा हूँ | तुम्हारा चित्त – मन या अन्तः कारण मेरे अंतःकरण का ज्ञानमार्ग में अनुसरण करता रहे अर्थात् जिस प्रकार मैं तुम्हें उपदेश करता हूँ, उसे तुम्हारा चित्त ग्रहण करता चले | मेरी बातों को तुम एकाग्र – मन से समाहित होकर सुनो और ग्रहण करो | बुद्धि – विद्या के स्वामी बृहस्पति तुम्हें मेरी विद्याओं से संयुक्त करें | इसी प्रकार वेदाध्यन के साथ – साथ गुरुद्वारा बालक ( वटू ) – को कई उपदेश प्रदान किये जाते हैं | प्राचीन कालमें केवल वाणी से ही ये शिक्षाएं नहीं दि जाती थीं , प्रत्युत गुरुजन तत्परतापुर्वक शिष्यों से पालन भी करवाते थे |
( ११ ) वेदारम्भ – संस्कार - उपनयन हो जाने पर बालक का वेदाध्यनमें अधिकार प्राप्त हो जाता है | ज्ञानस्वरूप वेदों के सम्यक् अध्ययन से पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग – संस्कार करने का विधान है | इस क्रिया से बालक की मेधा, विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है और वेदाध्यन आदिमें विशेष अनुकूलता प्राप्त होती है तथा विद्याध्ययन में कोई विघ्न नहीं होने पाता | ज्योतिर्निबंध में कहा गया है |
विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाऽऽयुः प्रवर्धते |
विद्यया सर्वसिद्धिः स्याद्विद्ययाऽमृतमश्नुते ||
‘वेदविद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है, आयुकी वृद्धि होती है, सारी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, यहांतक कि उसके समक्ष साक्षात् अमृत – रस अशन – पानके रूपमें उपलब्ध हो जाता है |’ गणेश और सरस्वती की पूजा करनेके पश्चात् वेदारम्भ में प्रविष्ट होनेका विधान है | शास्त्रों में कही गयी निषिद्ध तिथियों में वेदका स्वाध्याय नहीं करना चाहिए | अपने गुरुजनों से अंगोसहित वेदों तथा उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिए | तत्व ज्ञानकी प्राप्ति कराना ही इस संस्कार का परम प्रयोजन है | ‘वेदव्रत’ नामक संस्कार में महानाम्नी, महान्, उपनिषद्, एवं उपाकर्म चार व्रत आते हैं | उपकर्मको सभी जानते हैं | यह प्रतिवर्ष श्रावण में होता है | शेष प्रथम महानाम्नी में प्रतिवर्षान्त सामवेदके महानाम्नी आर्चिक की नौ ऋचाओं का पाठ होता है | प्रथम मुख्य इस प्रकार है –
विदा मघवन् विदा गातुमनुश ँ् सिषो दिशः |
शिक्षा शचीनां पते पूर्वीणां पुरूवसो ||
(साम० ६४१)
इसका भाव है – ‘अत्यन्त वैभवशाली, उदार एवं पूज्य परमात्मन् ! आप सम्पूर्ण वेद-विद्याओंके ज्ञान से सम्पन्न हैं एवं आप सन्मार्ग और गम्य दिशाओं को भी ठीक-ठीक जानते हैं, हे आदिशक्ति के स्वामिन् ! आप हमें शिक्षा का सांगोपांग रहस्य बतला दें |’ द्वितीय तथा तृतीय वर्षोंमें क्रमशः ‘वैदिक महाव्रत’ तथा ‘उपनिषद्-व्रत’ किया जाता है, जिसमें वेदोंकी ऋचाओं तथा उपनिषदों का श्रद्धा पूर्वक पाठ किया जाता है और अन्तमें सावित्री-स्नान होता है | इसके अनन्तर वेदाध्यायी स्नातक कहलाता है | इसमें सभी मन्त्र- संहिताओं का गुरुमुख से श्रवण तथा मनन करना होता है | यह वेदारम्भ मुख्यतः ब्रह्मचर्याश्रम – संस्कार है |
१२) केशान्त- संस्कार (गोदान) – वेदारम्भ- संस्कार में ब्रह्मचारी गुरुकुल में वेदों का स्वाध्याय तथा अध्ययन करता है | उस समय वह ब्रह्यचर्य का पूर्ण पालन करता है तथा उसके लिये केश और श्मश्रु (दाढ़ी),मौञ्जी –मेखलादि धारण करने का विधान है | जब विद्याध्ययन पूर्ण हो जाता है, तब गुरुकुल में ही केशान्त-संस्कार संपन्न होता है | इस संस्कार में भी आरंभ में सभी संस्कारों की तरह गणेशादि देवों का पूजन कर तथा यज्ञादि के सभी अंगभूत कर्मों का सम्पादन करना पड़ता है | तदनन्तर श्मश्रु-वपन (दाढ़ी बनाने ) की क्रिया संपन्न कि जाती है, इसलिये यह श्मश्रु-संस्कार भी कहलाता है |
‘केशानाम् अन्तः समीपस्थितः श्मश्रुभाग इति व्युत्पत्त्या केशान्तशब्देन श्मश्रूणामभिधानात् श्मश्रुसंस्कार एवं केशान्तशब्देन प्रतिपाद्यते | अत एवाश्वलायनेनापी ‘श्मश्रूणीहोन्दति’ | इति श्मश्रूणां संस्कार एवात्रोपदिष्टः |’
( संस्कारदीपक भाग २, पृ ३४२ )
पूर्वोक्त विवरण में यह स्पष्ट किया गे है कि केशान्त शब्दसे श्मश्रु (दाढ़ी) – का ही ग्रहण होता है, अतः मुख्यतः श्मश्रु-संस्कार ही केशान्त-संस्कार है | इसे गोदान संस्कार भी कहा जाता है ; क्योंकि ‘गौ’ यह नाम केश (बालों) – का भी है और केशोंका अन्तभाग अर्थात् समीपस्थित श्मश्रु भाग भी कहलाता है –
‘गावो लोमानि केशा दीयन्ते खण्ड्यन्तेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या गोदानं नाम ब्राह्मणादीनां षोडशादिषुवर्षेषु कर्तव्यं केशान्ताख्यं कर्मोच्यते |’
(रघुवंश ३|३३ पद्यकी मल्लिनाथव्याख्या )
‘गौ अर्थात् लोम-केश जिस में काट दिये जाते हैं, इस व्युत्पत्तिके अनुसार ‘गोदान’ पद यहाँ ब्राह्मण आदि वर्णों के सोलहवें वर्ष में करने योग्य केशान्त नामक कर्म का वाचक है |’ यह संस्कार केवल उत्तरायण में किया जाता है तथा प्रायः षोडश वर्ष में होता है |
१३) समावर्तन (वेदस्नान) - समावर्तन विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है | विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने के अनन्तर स्नातक ब्रह्मचारी अपने पूज्य गुरु की आज्ञा पाकर अपने घर में समावर्तित होता है – लौटता है | इसलिये इसे समावर्तन- संस्कार कहा जाता है | गृहस्थ – जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाना समावर्तन – संस्कार का फल है | वेद – मन्त्रों से अभिमन्त्रित जल से भरे हुए ८ कलशों से विशेष विधिपूर्वक ब्रह्मचारी को स्नान कराया जाता है, इसलिये यह वेदस्नान – संस्कार भी कहलाता है | समावर्तन – संस्कार की वास्तविक विधि के सम्बन्ध में आश्वलायन – स्मृति के १४वें अध्याय में पाँच प्रामाणिक श्लोक मिलते हैं, जिनके अनुसार केशान्त- संस्कार के बाद विधिपूर्वक स्नान के अनन्तर वह ब्रह्मचारी वेदविद्याव्रत – स्नातक कहलाता है | उसे अग्निस्थापन, परिसमूहन तथा पर्युक्षण आदि अग्निसंस्कार कर ऋग्वेदके दसवें मण्डल के १२८वें सूक्त की सभी ९ वों ऋचाओं से समिधा का हवन करना चाहिये | फिर गुरुदक्षिणा देकर , गुरुके चरणों का स्मरण कर, उनकी आज्ञा ले स्विष्टकृत् होम के अनन्तर निम्न मन्त्र द्वारा वरुणदेव से मौंजी-मेखला आदिके त्यागकी कामना करते हुए प्रार्थना करनी चाहिये –
‘उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत | अवाधमानि जीवसे ||’
( ऋग्वेद १|२५ |२१ )
इसका भाव है – हे वरुणदेव ! आप हमारे कटि एवं उर्ध्वभाग के मौंजी, उपवीत एवं मेखलाको हटाकर सूत की मेखला तथा उपवीत पहनने की आज्ञा दें और निर्विघ्न अग्रिम जीवन का विधान करें | इसके बाद गुरुजन घर आते समय उसे लोक-परलोक – हितकारी एवं जीवनोपयोगी शिक्षा देते हैं– सत्य बोलना | धर्म का आचरण करना | स्वाध्याय में प्रमाद न करना | आचार्य लिये प्रिय धन लाकर देना | संतान – परंपरा का उच्छेद न करना | सत्य में प्रमाद न करना | कुशल – कर्मों में प्रमाद न करना | ऐश्वर्य देनेवाले कर्मों में प्रमाद न करना | स्वाध्याय और प्रवचन में प्रमाद न करना | देवकार्यों और पितृकार्यों में प्रमाद नहीं करना | माता –पिता ,आचार्य तथा अतिथि को देवता माननेवाले होओ | जो अनिन्ध कर्म हैं ,उन्हीं की ओर प्रवृत्ति होनी चाहिये ,अन्य कर्मों की ओर नहीं | हमारे जो शुभ आचरण हैं ,तुम्हें उन्हीं का आचरण करना चाहिये ,दूसरों का नहीं | जोहमारी अपेक्षा भी श्रेष्ठ ब्रह्मण हैं ,उनका आसनादि के द्वारा तुम्हें आश्र्वासन(आदर)करना चाहिये | श्रध्दापूर्वक दान देना चाहिये | अश्रद्धापूर्व नहीं देना चाहिये | अपने ऐश्र्वर्य के अनुसार देना चाहिये | लज्जापूर्वक देना चाहिये | भय मानते हुए देना चाहिये |मित्रतापूर्वक देना चाहिये |यदि तुम्हें कर्म या आचरण के विषय में कोई संदेह उत्पन्न हो जाय तो वहाँ जो विचारशील ,कर्म में स्वेच्छा से भलीभाँति लगेरहनेवाले धर्ममति ब्राह्मण हों ,उस विषयमें वे जैस व्यवहार करते हों ,वैसा तुम्हें भी करना चाहिये |इसी प्रकार जिनपर संशययुक्त दोषारोपण किया गया हो ,उनके विषय में भी वहाँ जो विचारशील ,हों वे जैसा व्यवहार करें ,वैसा तुम्हें भी करना चाहिये | यह आदेश है ,यह उपदेश है ,यह वेदका रहस्य और ईश्वर की आज्ञा है | इस प्रकार तुम्हें उपासना करनी चाहिये | ऐसाही आचरण करना चाहिये | इस उपदेश – प्राप्ति के अनन्तर स्नातक को पुनः गुरु को प्रणाम कर मौंजी-मेखला आदि का परित्याग करके गुरु से विवाह की आज्ञा लेकर अपने माता-पिता के पास आना चाहिये और माता- पिता आदि अभिभावकों उस वेद-विद्याव्रत-स्नातक के घर आने पर मांगलिक वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर मधुपर्क आदि से उसका स्वागत -सत्कारपूर्वक अर्चन करना चाहिये |
१४) विवाह-संस्कार – पुराणों के अनुसार ब्रह्म आदि उत्तम विवाहों से उत्पन्न पुत्र पितरों को तारनेवाला होता है | विवाह का यही फल बताया गया है | यथा –
ब्राह्माद्युद्वाहसम्भूतः पितृणां तारकः सुतः |
विवाहस्य फलं त्वेतद् व्याख्यातं परमर्षिभिः ||
(स्मृतिसंग्रह)
विवाह-संस्कार का भारतीय संस्कृति में अत्यधिक महत्व है | जिस दार्शनिक विज्ञान और सत्यपर वर्णाश्रमी आर्यजाति के स्त्री-पुरुषों का विवाह-संस्कार प्रतिष्ठित है, उसकी कल्पना दुर्विज्ञेय है | कन्या और वर दोनों के स्वेच्छाचारि तापर नियंत्रण होता है | पाणिग्रहण – संस्कार देवता और अग्नि के साक्षित्व में करने का विधान है | भारतीय संस्कृति में यह दांपत्य सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर, युग-युगान्तर तक मन गया है |
१५) विवाहग्नि परिग्रह – विवाह-संस्कार में लाजा-होम आदि क्रियाएँ जिस अग्नि में संपन्न की जाती हैं, वह ‘आवसथ्य’ नामक अग्नि कहलाती है |इसीको विवाहग्नि भी कहा जाता है | उस अग्नि का आहरण तथा परिसमूहन आदि क्रियाएँ इस संस्कार में सम्पन्न होती हैं | शास्त्रों में निर्देश है कि किसी बहुत पशुवाले वैश्य के घर से अग्नि को लाकर विवाह – स्थल की उपलिप्त पवित्र भूमि में परिसमूहन तथा पर्युक्षण पूर्वक उस अग्निकी मन्त्रों से स्थापना करनी चाहिये और उसी स्थापित अग्नि में विवाह- सम्बन्धी लजा-होम तथा औपासन होम करना चाहिये | तदनन्तर अग्नि की प्रदक्षिणा कर स्विष्टकृत् होम तथा पूर्णाहुति करने का विधान है | कुछ विद्वानों का मत है कि अग्नि कहीं बाहर से न लाकर अरणि-मन्थनद्वारा उत्पन्न करनी चाहिये |
विवाह के अनन्तर जब वर-वधू अपने घर आने लगते हैं, तब उस स्थापित अग्नि को घर लाकर किसी पवित्र स्थान में प्रतिष्ठित कर उसमें प्रतिदिन अपनी कुलपरम्परानुसार सायं-प्रातः हवन करना चाहिये | यह नित्य-हवन-विधि द्विजाति के लिये आवश्य बतायी गयी है और नित्य –कर्मों में परिगणित है | सभी वैश्वदेवादि स्मार्त-कर्म तथा पाक-यज्ञ इसी अग्नि में अनुष्ठित किये जाते हैं | जैसा कि याज्ञवल्क्य ने भी लिखा है –
‘कर्म स्मार्तं विवाहाग्नौ कुर्वीत प्रत्यहं गृही |’
(या०स्मृति, आचाराध्याय ५|९७)
१६) त्रेताग्निसंग्रह-संस्कार –
‘स्मार्तं वैवाहिके वह्नौ श्रौतं वैतानिकाग्निषु’
(व्यासस्मृति २|१७)
स्मार्त या पाकयज्ञ-संस्था के सभी कर्म वैवाहिक अग्नि में तथा हविर्यज्ञ एवं सोमयज्ञ-संस्था के सभी श्रौत –कर्मनुष्ठानादि कर्म वैतानाग्रि (श्रौताग्नि–त्रेताग्नि) - में सम्पादित होते हैं | इससे पूर्व विवाहग्निपरिग्रह – संस्कार के परिचय में यह स्पष्ट किया गया है कि विवाह में घर में लायी गयी आवसथ्य अग्रि प्रतिष्टित की जाती है और उसी में स्मार्त कर्म आदि अनुष्ठान किये जीते हैं | उस स्थापित अग्रि से अतिरिक्त तीन अग्रियों (दक्षिणाग्रि, गार्हपत्य तथा आहवनीय ) की स्थापना तथा उनकी रक्षा आदि का विधान भी शास्त्रों में निर्दिष्ट है | ये तीन अग्रियाँ त्रेताग्नि कहलाती हैं, जिसमें श्रौतकर्म सम्पादित होते हैं | भगवान् श्रीराम जब लंका–विजय कर सीता के साथ पुष्पक–विमान से वापस लौट रहे थे, तब उन्होंने मलयाचल के ऊपर से आते समय सीता को अगस्त्य जी के आश्रम का परिचय देते हुए बताये की यह अगस्त्य मुनि का आश्रम है, जहाँ कि त्रेताग्नि में सम्पादित यज्ञों के सुगन्धित धूएँ को सूँघकर मैं अपने को सभी पाप–तापों से मुक्त अनुभव कर रहा हूँ |