SHIV IS THE ONLY TRUTH

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व्रत पर्व त्यौहार

लौकिक जगत् के प्राणी के जीवन में अनेक उत्थान पतन आते हैं | उसे कभी सफलता मिलती है तो कभी विफलता | विफलता मिलती है तो वह रोता है| जीवन को सुख-दुःख का मिश्रण मानकर भगवन की शरण लेता है | उसकी आराधना करता है | उसके सामने मनौतीयाँ मानता है | उसकी पूजा करता है | व्रत रखता है | प्रभु का गुण-गान करता है और सुनता है | व्रतों को कथाओं के माध्यम से दैवी तथा असुरी वृतियों का परिचय पाकर आत्मा को शुद्ध करता है | भारतीय धर्म-साधना के परिवेश में वर्ष भर में शायद ही ऐसा कोई दिन हो जिस दिन त्यौंहार न होता हों | यहाँ प्रत्येक दिन पर्व है | ये पर्व, हमारे आचार-व्यवहार, रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, लोक विश्वास तथा कर्मकाण्डों के परिचायक हैं| इन लोक पर्वो की कथाओं तथा अनुष्ठानों का उद्देश्य है समाज सुधर |व्रतों से तात्पर्य मात्र भूखा रहना नहीं है | इनसे आत्मा की शुधि होती है | मन कलुषित भावनाओं से मुक्त होता है | जीवन में संयम बढ़ता है | आध्यात्मिक शक्ति विकसित होती है | अनेक रोग स्वतः नष्ट हो जाते हैं | हमारे लोक जीवन की अन्यतम विभूति-ये लोक –पर्व अब मिटने लगे हैं |आज के वैज्ञानिक युग में लोगों की आस्था इनसे उठने लगी है, किन्तु इन लोक –पर्वो में शक्ति नहीं है ,ऐसा नहीं खा जा सकता इनका भी वैज्ञानिक महत्व है |हमारे जीवन के ये प्रमुख अंग हैं|भारतीय संस्कृत को  स्पष्ट करने के प्रमुख उपादान हैं ये हमारा पर्व |इनसे हमारे लोक समाज का बिम्ब स्वष्ट होता हैं|

श्रावण
श्री हनुमान जनमोत्सव
नवरात्रि
दीपावली
भाईदूज
छठ

श्रावण

श्रावण में शिव-उपसना एवं सोमवार की विशेषता

१) श्रावण मास भगवान भोलेनाथ, शिव का है, जिसमे सही पूजा साधना करने से भगवान शंकर सारी इच्छाओं को पूर्ण कर देते है, यदि जीवन में शिवत्व प्राप्त करना है, तो श्रावण मास से अधिक कोई भी सिद्ध मुहूर्त नहीं है, इस पुण्य मुहूर्त की प्रतीक्षा केवल साधू योगियों को ही नहीं हर साधक स्त्री पुरुष सबको रहती  है, इस मास का आनंद कुछ और ही है? अलमस्त फुहारों से भरा यह मास मन और शारीर के भीतर ही भीतर एक विशेष उत्साह, आवेग, चेतना जगाता है |


शिव की तो महिमा ही निराली है, प्रसन्न हुए तो कुबेर को देवताओं का कोषाध्यक्ष ही बना दिया, अश्विनी कुमारो को आयुर्वेद विद्या  सौंप दी, महामृत्युंजय स्वरुप होकर भीषण से भीषणरोग से मुक्ति दे देते हैं | जीवन में श्रेष्ठता शिवत्व के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती है | इसीलिए इस मास में संपन्न किये जाने वाले हर प्रयोग-साधना सौभाग्यदायक होते है | आईये इस श्रावण मास के सोमवारों में कितना कुछ विशेष छुपा हुआ है जानने का प्रयास करे | आप भी जानियें कि आपके प्रयोजन  को सिद्ध करने के लिए श्रावण का कौन सा सोमवार उपयोगी है l

 

२)  भगवान शिव को रसेश्वर कहा गया है, क्योंकि यह जीवन में रस को प्रदान करने वाले है, और जिस व्यक्ति के जीवन में रस नही है उस व्यक्ति का जीवन मृत तुल्य है | प्रतीक रूप में भगवान शंकर ने गंगा के तेज प्रवाह को अपनी जटाओं में धारण किया था  और उनके शरीर से प्रवाहित होती हुई यह गंगा पूरे भारत वर्ष को जीवन रस से आप्लावित करती हुई निरंतर प्रवाहित हो रही है, सारी नदियाँ सूख सकती हैं लेकिन गंगा की मूल धरा कभी भी सूख नहीं सकती इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि भगवान शिव पर अभिषेक किया हुआ जल पूरे जीवन को आप्लावित करता है | यही गंगा कही नर्मदा बन जाती है, कहीं ब्रह्मपुत्र तो कही हुगली, क्षिप्रा इस प्रकार विभिन्न धाराओं  में बहती हुई समुद्र में विलीन हो जाती है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य का जीवन निरंतर प्रवाह वान, गतिशील होते हुए अपने जीवन में दूसरों को सुख प्रदान करने में समर्थ होता हुआ जीवन की पूर्णता रुपी समुद्र जिसमें भगवान नारायण बिराजमान हैं उस पूर्णत्व  मोक्ष को प्राप्त करे यही तो जीवन की वास्तविक गति है |


लौकिक पारंपरिक जगत में शिव को तमोगुण का अधिष्ठातृ देव और संहार शक्ति का नियामक माना है |  यही संहार-सामग्री, भूत-प्रेत, सर्प, बिच्छू, कुत्ता-भेड़िया आदि आदि पौराणिक शिव के पारिवारिक अंग हैं | इनका मुख्य उद्देश्य है तत्वों की सन्हारपरकता तथा रूप-भयंकरता के प्रतिपादन में योगदान है | बैल की सवारी भी इसी परिवार का एक अंश मानी जा सकती है, किन्तु वृष का मुख्य अर्थ सभी मंगलकामनाओं का आवश्यक धर्म-तत्त्व माना  गया ही | इसका रूप भयंकर नहीं है | सिर पर जटामुकुट, द्वितिया के चन्द्र का आभूषण, मस्तक में तृतीय नेत्र और नाग का यज्ञोपवित, गले, कान, मणिबंध, पादगुल्फ़ और कटि में सर्पमाला का आभूषण-सभी सौंदर्य और भीषणता के मिश्रित प्रतीक है | कवियों द्वारा वर्णित शिव-पार्वती-विवाह में शिव का यह श्रृंगार कविकुल के मनोविनोद-हास्य तथा श्रृंगार, भयानक आदि रसों का रुचिर सम्मिश्रण है | इन और ऐसे अनेक कारणों से शिव मनुष्यों, पशुओ, पक्षिओ, देव, दानव    आदि के संयुक्त उपास्य प्रतीक हैं |

  

३) भगवान शंकर की उपासना करने वाला कोई भी साधक अपने जीवन में निराश नहीं हो सकता क्योंकि भगवान शंकर तो औढरदानी है | यदि व्यक्ति भगवान शिव को अपना  आदर्श ही मान लें कि मैं शिव समान ही अपने जीवन को रसयुक्त रखूँगा और  जीवन यात्रा में चाहे कितने भी दुःख  रुपी सर्प आये उन दुखो को धारण करते हुए भी आनंद के साथ जीवन यात्रा करूँगा, तो भी मनुष्य का जीवन शांत और सर्वसुखों से युक्त महान बन जाता है फिर उसे छोटी-मोटी पीड़ा व्याधि नहीं सताती है |



श्रावण में बिल्वपत्र का महत्व


शिवपुराण एवं अनेकों ग्रंथों में शिव पूजा करते समय बिल्वपत्र  की महिमा का बखान किया गया है- अखण्ड-बिल्वपत्रों द्वारा एक बार भी जो पुरुष भगवान सदाशिव का पूजन करता है वह पुण्यात्मा समस्त पापों से छूटकर शिव के परमधाम को प्राप्त करता है | जो पुरुष पंचाक्षर मंत्रोच्चारण पूर्वक (नमः शिवाय) आशुतोष सदाशिव का श्रद्धापूर्वक बिल्वपत्रों द्वारा पूजन करता है, वह इस लोक में ऐश्वर्यवान् होकर अंत में शिवधाम को जाता है | हे नारद! बिल्ववृक्ष के दर्शन, स्पर्श तथा वंदना मात्र से भी दिन-रात किए हुए समस्त पापों से मुक्त हो जाता है |हे देवर्षि नारद! जो पुरुष सूखे, एक या दो दिन पूर्व के रखे बिल्वपत्रों से उमापति का पूजन करता है वह सभी पापों से छोट जाता है |


बिल्ववृक्ष का आश्रय लेकर जो पुरुष विधिवत् मंत्र का जप करता है, वह पुण्यात्मा पुरुष पुरुश्चरण का फल प्राप्त करता है | बिल्वपत्रों द्वारा शिवजी का पूजन सर्वकामनाओं का प्रदाता तथा संपूर्ण दरिद्रों का विनाशक है, बिल्वपत्र से बढ़कर महादेव को प्रसन्न करने वाली अन्य कोई वास्तु नहीं | भगवन् भोलेनाथ को आक-धतुरा बिल्वपत्र आदि अति प्रिय है अतः आप भक्तजन यही उन्हें अर्पित करें | बिल्वपत्र सदैव उल्टा अर्पित करें अर्थात् पत्तें का चिकना भाग शिवलिंग के ऊपर रहे | महादेव को बिल्वपत्र  अर्पित करते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करें :-


“त्रीदलं त्रिगुणाकारं त्रिनैत्रं च त्रिधायुताम् |

त्रीजन्म पापसंहारं एक बिल्व शिवार्पणम ||  

श्री हनुमान जनमोत्सव

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम |

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ||


जो अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्यरूपी वन (को ध्वंश करने) के लिए अग्निरूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी और श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त है, उन पवनपुत्र श्री हनुमानजी को मैं प्रणाम करता हूँ |  जगत के सात चिरंजीवियों में जिनकी गिनती होती है ऐसे श्री रामभक्त हनुमान का जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी भी प्रशस्त है | इस वर्ष हनुमान जयंती १८अक्टूबर को विशिष्ट कार्यक्रमों के साथ भव्य अनुष्ठान आयोजित किये गए ,एवं श्री विद्यावान हनुमान जी का जन्मोत्सव मनाया गया | शंकर का शिवालय जिस तरह बिना नंदी के नहीं होता है उसी तरह श्री राम के देवालय की पूर्णता हनुमान की मूर्ति के बिना नहीं होता है |भक्त के बिना भगवन अधूरे है , इस भाव का दर्शन इस घटना से होता है | एक दोहे में कहा गया है


‘भगवन् से भक्त बड़े कह गए संत सूजान ,

पुल बांध रघुवीर चले और कूद गये हनुमान’|


रावण की लंका में जाते समय भगवन राम को पुल बांधना पड़ा जबकि हनुमान जी कूदकर पार कर गए | हनुमान की भक्त की  महिमा बढ़ गयी | ‘पुत्राद् शिष्याद् पराजयः’ जिस तरह बेटे के पराक्रम से पिता आनन्दित होता है ,शिष्य से पराभूत होने में गुरु गौरव का अनुभव करते हैं ,उसी तरह भक्त की महिमा वृद्धि से प्रभु प्रसन्नता का अनुभव करते हैं ,जिसका चिंतन भगवान स्वयं करें ऐसे महापुरोषों में हनुमान एक हैं ,तब मानव तो उनका चिंतन करेगा ही |आज हजारों वर्षों से जन-समुदाय के ह्रदय में राम जैसा ही आदरणीय स्थान हनुमान को प्राप्त हुआ है |


हनुमान वीरता और बल के प्रतिक है ,इसलिए इनका ‘संकटमोचन’भी है अर्थात ये संकटों को हरने वाले ,रोग-शोक ,व्याधि ,पीड़ा,तथा संताप का प्रशमन एवं शत्रुओं का दमन करने वाले एक मात्र देव हैं ,जो संसार की सर्वश्रेष्ठ सिद्धियों के एक मात्र अधि पति माने  जाते हैं |हनुमान जी के जन्म से सम्बंधित एक कथा बताता हूं –हनुमान जी की माता का नाम अंजनी था  |वे केसरी नामक वानर की पत्नी थी |केसरी और अंजनी ने ऋष्यमुक्त पर्वत पर जा कर पुत्र प्राप्ति के लिए शिवजी की प्रसन्नता हेतु तप किया था |जब उन्हें कठोर तपस्या करते हुए बहुत वर्ष व्यतीत हो गए ,तो शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए और अंजनी से कहा –“हे अंजनी !काल सुबह तुम सूर्यनारायण के सामने अंजुली बांधकर खड़ी हो जाना ,उस समय तुम्हारी अंजुली में जो कुछ गिरे ,उसका सेवन कर लेना जिसके प्रभाव प्रभाव से तुम्हें अत्यन्त तेजस्वी तथा अजर-अमर पुत्र की प्राप्ति होगी |


तत्पश्चात शिवजी अंतर्ध्यान हो गए |दुसरे दिन प्रातः काल अंजनी सूर्यनारायण के सम्मुख अंजुली बांधकर खाड़ी हो गयी |उसी दिन अयोध्या में महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ पूर्ण किया था |यज्ञ की समाप्ति पर अग्नि देवता हवी लेकर प्रकट हुए थे और उस हवि के तीन भाग करके उनकी तीनों रानियों को खिला देने की आज्ञा प्रदान की थी |अग्निदेव के आदेशानुसार महाराग=जा दशरथ ने हवि के तीन भाग कर्कीक-एक भाग कैकेयी,कौशल्या और सुमित्रा को दे दिया |कैकयी नि जिस समय हवि के भाग को हाथ में लिया ,उसी समय एक चील वहां आ पहुंची और वह रानी कैकेयी के हाथ में स्थित हवि के भाग का कुछ अंश अपनी चोच में भरकर उड़ गई |ऋष्यमूक पर्वत पर ,जहां अंजनी अंजुली बांधे सूर्यनारायण के सम्मुख खड़ी हुई थी,वह चील अयोध्या से चलकर वही आ पहुंची और उसकी चोंच में से हवि निकलकर अंजनी की अंजुली में जा गिरा |अंजनी ने उसे सूर्य नारायण  का प्रसाद समझ कर ग्रहण कर लिया |उसी के फलस्वरुप अंजनी के गर्भ से रामभक्त हनुमान का जन्म हुआ |


जीवन में बल ,बुद्धि,साहस,कर्मठता ,तेजस्विता ,ओज और तुरन्त निर्णय लेने की क्षमता ,संकटों पर विजय प्राप्त कर लेने का साहस और सब कुछ कह लेने का उदम्य उत्साह का मिला-जुला रूप यदि कही है ,तो उस शब्द को हनुमान कहते है ,बजरंग कहते है ,क्योंकि जीवन पंगु,निर्बल ,कमजोर ,असहाय लोगों के लिये नहीं है |वे अपने आपमें जीते-जी मरे हुए हैं जिनमे उत्साह की कमी है ,जिनमे साहस की कमी है , जिनमे कर्मठता की कमी है और अगर यह नहीं है तो फिर जीवन बेकार है |


हनुमान जी के बारे में दो बातें विशेष सिद्ध है ,सर्वप्रथम तो हनुमान-रूद्र अर्थात शिव के अवतार है और दूसरा यह पवन पुत्र है,हनुमान पूजन साधना से रुद्र सिद्धि प्राप्त होती है ,श्री हनुमान वीरता,पराक्रम ,दक्षता के प्रतीक है और शक्ति ,बल वीर्य,ओज,स्फूर्ति,धैर्य ,यश ,निर्भयता,निरोगता,विवेक वाक्पटूता इत्यादि महागुणों के प्रदाता है,इस कारण जो साधक ,जो व्यक्ति चाहे उसे शास्त्रों का ज्ञान हो या नहीं हो,अपनी बुद्धि के अनुसार पूर्ण सेवा भाव से यदि हनुमान साधना – भक्ति संपन्न करता है ,तो उसे से सभी गुण निश्चय ही प्राप्त होते है ,शक्ति बाहर से प्राप्त नहीं की जा सकती और न ही बाजार में मिलता है ,शक्ति-स्तोत्र तो आपको स्वयं के मनमे छिपा है ,उसे जाग्रत करने आवश्यकता है ,जिससे मन के साथ-साथ शरीर भी ऐसा तेजस्वी,बलवान और निरोगी हो जाये तो आत्माविश्वास का अमृत प्याला, शक्ति का सौन्दर्य ,ज्ञान की गंगा ,धैर्य का सागर, सरस्वती की सिद्धि आपसे छलकने लगे यही तो भक्ति,साधना का परम स्वरुप है | ऐसी कोई बाधा नहीं, ऐसा कोई रोग नहीं ,ऐसा कोई संकट नहीं जो हनुमान साधनासे दूर न हो सके l हनुमान साधना में सिद्धि और हनुमान का इष्ट प्राप्त साधक हजारों शत्रु उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते भूत-पिशाच का डर – भय और हानि हनुमान साधना सिद्ध साधक को कभी नहीं हो सकती ,चाहे वह आधी रात को श्मशान में ही जाकर क्यों न बैठ जाये,भुत-प्रेत ,पिशाच सभी का बल हनुमान के आगे नष्ट  हो जाता है l


जहां तक ग्रहों का प्रश्न है ,हनुमान साधना से विपरीत ग्रह पूर्ण रूप से शान्त होते है और शास्त्रों में ऐसा लिखा है की हनुमान और सूर्य एक – दुसरे के स्वरुप है और इनकी परस्पर मैत्री अत्यंत प्रबल है,इसलिए हनुमान साधना करने वाले साधक में सूर्य तत्व अर्थात आत्मविश्वास ,ओज ,तेजस्विता विसेस रूप से आ जाती है , यह तेज ही तो साधक को सामान्य व्यक्तियों से अलग करता है |यदि आप भी अपने जीवन में सफल होना चाहते है , शिखर पर पहुंचना चाहते है ,हर कठिनाई को मात देना चाहते हैं तो आपको महाबली हनुमान जी के निम्न साधना प्रयोगों को अवश्य ही संपन्न करना चाहिये |   

नवरात्रि

शक्ति उपासना का महापर्व है –नवरात्र

नवरात्र शक्ति साधना का संधि पर्व है निष्क्रिय ब्रम्ह जब सक्रिय होता हैं तो शक्ति आकार लेती है और यही

आदिशक्ति सृष्टीकी संरचना करती है –जड़ ,जीव और मनुष्य का सर्जन करती है |अतः यह संसार कुछ नहीं , बल्कि शक्ति का साधन है |यही शक्ति गायत्री , दुर्गा ,महालक्ष्मी ,महासरस्वती  और महाकाली के रूप में प्रतिपादित होती  है |इनकी प्रकृति की भिन्नता के होते हुए मूल में वही आदिशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित होती है | शक्ति की उपासना होती  है | दुर्गा की उपासना से दुष्प्रवृत्तियाँ नष्ट और गायत्री की साधना से सत्प्रवृत्तियों का उदय होता है | जीवन में दोनों की आवश्यकता है l 


नवरात्रि क्यों मनाते है

दुर्गा सप्तशती मे देवी माहात्म्य का  वर्णन करते हुये कहा गया है – देवी ने इस विश्व को उत्पन्न किया है और वे ही जब प्रसन्न होती है तव मनुष्यो को मोक्ष प्रदान कर देती है | मोक्ष की सर्वोत्तम हेतू वे ही  है , वे ही ईश्वर की अधश्वरी है | दुर्गा जो की हिमालय की पुत्री मानी जाती है उसे अपने घर बुलाने के लिए उनकी मां ने प्रार्थना की और दुर्गापति भगवान शिव ने वर्ष मे केवल नौ दिनों के लीये ही यह आज्ञा  दी | इन नौ दिनों मे भगवती दुर्गा विश्व में विचरण करती है और इस उपलक्ष्य में अपने घर आई पुत्री की पूजा पूरे भारत में शक्ति आराधना के रूप में संपन्न की जाती है |


नवरात्रि के नौ दिन ही क्यों 

नवरात्रि पूजन प्रतिपदा से लेकर नवमी तक चलता है | इस पूजन के लिये दिन ही क्यों नियत किये गए है ? यह सार्थक प्रश्न है | चूंकि देवी दुर्गा नव विद्या है, इसलिये उनकी उपासना के लिये नौ दिन का समय निश्चित किया गया है | तृतीय शक्ति के तीन गुण है – सत्व , रजस और तम | इनको तिगुना करने पर  ९ की संख्या प्राप्त होती है | जिस प्रकार यज्ञोपवीत में तीन बड़े  धागे होते है और उन तीनों मे  प्रत्येक धागा तीन – तीन धागों से होता है | उसी प्रकार प्रकृति , योग एवं माया  का त्रिवृत रूप नवविध  ही होता है | दुर्गा की उपासना मे उसके समग्र रूप की आराधना हो सके , इसी उद्देश्य से नवरात्रि के नौ दिन  निश्चित किए गए है |    

 

विजयोत्सव दशहरा , प्रारम्भ करें शुभ  कार्य

विजयोत्सव क्षत्रियों के लिए भी बड़ा पर्व है | पौराणिक काल से ही इसे क्षत्रियों , राजाओं , वीरों का विशेष माना जाता रहा है | आज के दिन अस्त्र  –शस्त्रों  , घोड़ों , वाहनों आदि की विशेष पूजा की जाती है | इस दिन ब्राम्हण सरस्वती पूजन करते है | इसलिये विजयादशमी या दशहरा राष्ट्रिय पर्व है | रामायण पढ़े वाल्मिकी रामायण में विस्तृत वर्णन भी है कि राम-रावण महायुद्ध नवरात्रों में ही हुआ था | लंकाधीश रावण की मृत्यु अष्टमी नवमी के संधिकाल में तथा अंत्येष्टि दशमी को होना बताया गया है | बाद में विजयदशमी मनाने का उद्देश्य रावण पर राम की जीत यानी असत्य पर सत्य की जीत हो गया | आज भी सम्पूर्ण, रामायण की रामलीला नवरात्रि में ही खेली जाती है तथा दसवें दिन सायंकाल में रावण मेघनाद, कुम्भकर्ण के पुतले जलाये जाते है | विजयदशमी, विजयोत्स के दिन शक्तिदायिनी, ऊर्जा उत्सर्जित करने वाली देवि माता अपराजिता की पूजा की जानी चाहिए | महर्षि वेदव्यास ने इस देवी को आदिकाल की श्रेष्ठ फलदायिनी , देवताओं दवर पूजित, वन्दित तथा त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु, महेश दवर प्रतिदिन ध्यान में लायी जाने वाली पूज्यनीय गायत्री स्वरुप देवी माना है | इस उत्सव पर निम्न मंत्र से इस देवि की पूजा आराधना की जानी चाहिए-


ॐ महादेव्यै च विद्महे  दुर्गायै धीमहि तन्नो देवि प्रचोदयात् ||

ॐ नमः सर्व हितार्थायै जगदाधार दायिकेl साष्टांग्रोष्भ्रणामस्ते प्रयत्नेंन मया कृतः ||

नमस्ते देवी देवेषि नमस्ते ईप्सित प्रदे | नमस्ते जगतां धात्रि नमस्ते शंकरप्रिये ||

ॐ सर्वरुपमयीं देवी सर्व देवीमयं जगत | अतोष्हं विश्वरुपां तां नमामि परमेश्वरी ||


वैसे नवदुर्गा स्वरूपों ने भी राक्षसों का विनाश करने में युद्ध किआ था | इस युद्ध में अयोध्या के प्रतापी राजा दशरथ, जनकपुरी के राजा  जनक जैसे राजाओं, यहाँ तक शोणक ऋषि जैसों ने भी दानवों से घोर संग्राम किया था, तब विजयोपरांत माता दुर्गा अपनी आदिशक्ति अपराजिता का पूजन करने के लिए शमी की घास लेकर हिमालय में अंतर्ध्यान हो गयी | आर्य व्रत के राजाओं ने इस विजय को उत्सव के रूप में मनाते हुए विजयदशमी पर्व प्रारंभ किया था | विजयोत्सव के दिन मैसूर में वहां के राजा की सवारी काफी प्रसिद्ध रही है | वह इस दिन हाथी पर बैठकर अपने महल से बाहर आते थे, दशहरा मैदान में पहुंचकर  माँ अपराजिता की पूजा करते थे | राजाओं की परिपाटी समाप्त होने के बाद आज वहां के राज्यपाल इस परंपरा का निर्वहन करते है | इसी तरह, हिमाचल प्रदेश स्थित कुल्लू का दशहरा भी बहुत प्रसिद्ध है | यहाँ दशमी से अगले १५ दिन तक प्रतिदिन वहां के भूतपूर्व राजा या उनके वंशज का कोई व्यक्ति जनसभा में रावण दाह करके विजयदशमी का पूजन करता है | ऐसे ही सार्वजनिक उत्सव बनारस, इलाहाबाद में भी होते है | बंगाल में यह पूजन दुर्गा पूजा से ही जोड़ा जाता है | दुर्गा पूजा की महानवमी के बाद विजयदशमी के दिन कोलकाता समेत सारे बंगाल में मंदिरों में पंडाल सजते है, उत्सव मनाया जाता है | इसी दिन आदिशक्ति दुर्गा सहित काली पूजन तथा अपराजिता पूजन की रस्म भी निभायी जाती है | यों भारत में सभी शहरो, गाँवों में दशहरा पूर्व की धूम, उत्सव, रावण वध यानी उसका पुतला जलाने के दृश्य देखे जा सकते हैं | शहरों मे तो ‘दशहरा’ मैदान अलग ही होता है |  


नवरात्रि पर दिवस अनुसार विशेष नैवेद्य व उसके लाभ


साधकों आपको नवरात्रि के नौ दिनों का माँ दुर्गाको चढ़ने वाले विशेष नैवेद्य  व उनसे होने वाले लाभ का विवरण  बता रहे है -


  • प्रतिपदा तिथि – नवरात्रि के प्रथम दिवस प्रतिपदा को गौ घृत से षोडशोपचार पूजा कर गौ घृत अर्पण करें | इससे आरोग्य लाभ होता है|  
  • द्वितीया  तिथि – शक्कर का भोग लगाकर उसे दान करे | शक्कर का दान दीर्घायु कारक होता है |
  • तृतीया  तिथि – को दूध की प्रधानता होती है | पूजन में दूध का प्रयोग कर उसे ब्राम्हण को दान करें | दूध का दान दुखों से मुक्ति का परम साधन है |
  • चतुर्थी तिथि – चतुर्थी को मालपुआ का नैवेद्य अर्पण करे | सुयोग्य ब्राम्हण को दान करे | इससे बुद्धि का विकास होता है|  निर्णय शक्ति में असाधारण विकास होता है |
  • पंचमी तिथि – पंचमी तिथि को केले का नैवेद्य चढ़ावे प्रसाद ब्राम्हण को दान करें | इससे बुद्धि का विकास होता है |  निर्णय शक्ति में असाधारण विकास होता है |
  • षष्ठी तिथि –षष्ठी तिथि को मधु का विशेष महत्व है | मधु से पूजन कर ब्राम्हण को दान करने से स्वरुप में आकर्षण का उदय होता  है |
  • सप्तमी तिथि – को गुड़ का नैवेद्य अर्पण ब्राम्हण को करना शोक मुक्ति का कारक है | गुड़ दान से आकस्मित विपत्ति से रक्षा होती है |
  • अष्टमी तिथि – को भगवती को नारियल का भोग लगाना तथा नारियल दान करना संताप  रक्षक है |
  • नवमी तिथि – को काले तिल का नैवेद्य अर्पण कर  दान करने से परलोक का भय नहीं होता है |


नवरात्रि मंत्र साधना का महत्व

सुख – समृद्धि किसे नहीं चाहिए तो इसके लिए नवरात्रि में देवी के मन्त्रों की सिद्धि कीजिए | मंत्र साधना का मानव जीवन में महत्व एसलिए है कि यह मानव मंत्र की समस्त लौकिक एवं पारलौकिक कामनाओं की  पूर्ति में उसकी सर्वाधिक सहायता करती है | मंत्र शास्त्र की भाषा में ‘इष्ट प्राप्ति’ एवं ‘अनिष्ट परिहार’ के विधि –विधानों का प्रतिपादन करने के कारण मंत्र साधना की उपयोगिता एवं महत्व हमेशा से मानव समाज को रहा है , हमेशा रहेगा | मानव जीवन की कैसी भी समस्या हो या कैसा भी संकट हो, मनुष्य मंत्र साधना द्वारा इसका निश्चित समाधान प्राप्त कर सकता है | ‘साधना शब्द का अर्थ बड़ा ही गूढ़ एवं अत्यन्त प्यापक है | कोई भी कार्य हो, उसका एक निश्चित साधन होता है , उसको प्राप्त करने की एक निश्चित प्रविधि या विधि – विधान होता है | अपने लक्ष्य या उद्देश्य की प्राप्ति की इसी प्रविधि या विधि – विधान को ‘साधना’ कहते है | यह साधना के माध्यम से साधक को उसके लक्ष्य तक पहुंचा देती है |


आगम  शास्त्र के अनुसार , वे सब पदार्थ , जो सिद्धि में सहायक होते है , वे ‘साधन’ कहलाते है | उनका अबलम्बन या उन पर आचरण करना ही ‘साधना’ कहलाती है | इसीलिए कवि का ‘कविव’ , मुनि का ‘मुनिव’ एवं ऋषि का ‘ऋषिव’ साधना की देन या परिणाम है l मंत्र योग संहिता के अनुसार – मंत्र साधना अपने अभीष्ट की सिद्धि का प्रमुखतम उपाय है | यह प्रायोगिक विज्ञान है , जी साधक को साध्य से मिलाकर न केवल उसकी कामनाओं को पूरा करता है , अपितु वह साधक को परम आनन्द से आप्लावित कर देता है l मंत्र की साधना का महत्व इसलिए है कि इसके लिये साधक चाहे तो भीग या मोक्ष अथवा इन दोनों को प्राप्त कर सकता है | जगत की अन्य साधनाए या तो भोग या मोक्ष दे सकती है किन्तु मंत्र साधना अपने साधक को एक हाथ से भोग, दुसरे हाथ से मोक्ष देती है|



*सप्तशती के कुछ सिद्ध सम्पुट मंत्र*

श्रीमार्कण्डेयपुराणान्तर्गत देवीमाहात्म्यमें शलोक ,अर्धश्लोक , और उवाच आदि मिलाकर ७०० मंत्र है | यह माहात्म्य दुर्गासप्तशतीके नामसे प्रसिद्ध है | सप्तशती अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष, -चारों पुरुषार्थोंको प्रदान करनेवाली है | जो पुरुष जिस भाव और जिस कमानासे श्रध्दा एवं विधिके साथ सप्तशतीका पारायण करता है ,उसे उसी भावना और कामनाके अनुसार निश्चय ही फल –सिद्ध होती है | इस बातका अनुभव अगणित पुरुषोंको प्रत्यक्ष हो चुका है | यहाँ हम कुछ ऐसे चुने हुए मन्त्रोंका उल्लेख करते है , जिनका सम्पुट देकर विधिवत् पारायण करनेसे विभिन्न पुरुषार्थोंकी व्यक्तिगत और सामूहिक रूपसे सिध्दि होती है | इनमे अधिकांश सप्तशतीके ही मंत्र है और कुछ बाहरके भी है | --- 


( १ ) सामूहिक कल्याणके लिये ---

देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या

तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः |


(२) विश्वके अशुभ तथा भयका विनाश करनेके लिये ---

यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रम्हा हरश्च न ही वक्तुमलं वलं च |

सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ||


( ३ ) विश्वकी रक्षाके लिये ---

याः श्री स्वयं सुकृतीनां भवनेष्वलक्ष्मीः पापात्मनां कृतधियां ह्रुदयेषु बुद्धिः ।

श्रद्धां सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नतास्मः परिपालय देवि विश्वम् ॥


( ४ ) विश्वके अभ्युदयके लिये ---

वुश्वेश्वरी त्वं परिपासि विश्वं विश्वात्मिका धारयसिती विस्वम्

विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्नाः ||


( ५ ) विश्वव्यापी विपत्तियोंके नाशके लिये –

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद  प्रसीद मातार्जगतोऽखिलस्य |

प्रसीद विश्वेश्वरी पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ||


( ६ ) विश्वके पाप –ताप –निवारणके लिये ---

देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते – र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः |

पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान् ||


( ७ ) विपत्ति –नाशके लिये ---

शरणागतदीनार्तपरित्राणपारायणे | सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणी नमोऽस्तु ते || 


( ८) भय नाशके लिये --- 

(क ) सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते | भयेभ्यास्त्राही नो देवि दिर्गे देवि नमोऽस्तु ते || 

( ख ) एतते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभुषितम् | पातु नः सर्वभितीभ्यः कात्यायनी नमोऽस्तु ते ||


( ९ ) रोग – नाशके लिये

रोगान शेषा नपहंसि तुष्टारुष्टा तु कामान् सकलान भीष्टान् ।

त्वामाश्रितानां न विपन् नराणांत्वामाश्रिता ह्या श्रयतां प्रयान्ति ।।


१० महामारी –नाशके लिये ---

ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी ।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते ।।



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नवदुर्गा शक्ति साधना

इस साधना को संपन्न करने के लिए आप सर्वप्रथम नवरात्रि की प्रतिपदा तिथि को ब्रम्हमुहुर्त ( सूर्योदय से पहले ) अथवा अन्य श्रेष्ठ मुहूर्त में आप स्नान आदि से निवृत होकर अपने पूजा कक्ष अथवा अन्य एकान्त कमरे में सफ़ेद सूती आसन लगाकर पूर्वाभिमुख होकर बैठे | तत्पश्चात्  बाएं हाथ में जल लेकर इसे दुसरे हाथ से ढक लें एवं नीचे दीये गए मंत्र का उच्चारण करें | 


ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा |

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः  ||


इस मंत्र का उच्चारण करने के पश्चात् दाहिने हाथ के बीच की दो अंगुलियों से जल को पहले कान पर , फिर कंठ ( गले ) पर ,आखों पर लगाए  बाकी बचा जल अपने शरीर पर छोड़ दे | ऐसा पवित्र जल डालने से आपके शरीर का शुद्धिकरण हो जाएगा | तत्पश्चात् अपने  सामने एक ( पाटा / चौकी ) पर लाल वस्त्र विछाकर उसके मध्य में चावल की ढेरी बनाकर उस पर मंत्रसिद्ध नवदुर्गा शक्ति यन्त्र स्थापित करें तथा उस पर  अभिमंत्रित नवदुर्गा शक्ति कवच स्थापित करें तथा इनके बाई एवं  दाई ओर तांबे के कलश में जल भरकर उनमे अशोक बृक्ष के पत्ते डाल दें तथा श्रीफल लेकर उसे लाल कपड़े में लपेटकर कलश पर स्थापित करें | ( बीच में यन्त्र रहेगा तथा दोनों ओर श्रीफल सहित तांबे के कलश रहेगा | )


कलश में जल भरते समय कुछ पुष्प व कुमकुम डालकर निम्न मंत्र का उच्चारण करें | 


गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती |

नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् सन्निधिम् कुरु ||   


तत्पश्चात बाजोट ( चौकी ) के दाहिनी तथा बाई  ओर सरसों के तेल के तीन –तीन दीपक जलाये तथा बाजोट ( चौकी ) के सामने ( यन्त्र के आगे ) तीन ओर सरसों  के तेल से दीपक जलाएं | फिर हाथ जोड़कर मन ही मन माँ दुर्गा की छवि का इस प्रकार ध्यान करें – “ की समस्त सागर में शक्ति रूप में व्याप्त दुष्ट का नाश  करने वाली ,जड़ता  और अज्ञान को समाप्त करने वाली तथा शत्रु का संहार करने वाली देवी भगवती को नमन करता हूँ मुझे एवं पुरे परिवार को ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि हमारे जीवन में सदैव सुख –समृद्धि व शांति हो तथा मां भगवती ऐसी कृपा  करें कि यह साधना सही रूप से संपन्न हो जाये |’’


इस प्रकार ध्यान करने के पश्चात् अपने दाहिने हाथ में जल लेकर पाँच बार आचमनी ( हाथ में जल लेकर धरती पर छोड़े ) करें | ऐसा आप पाँच बार परिवार के  किसी भी सदस्य के लिये कर सकतें है | सर्वप्रथम स्वयं के लिये, द्वितीय पति/पत्नी के लिए, तृतीय पुत्र के लिए, चतुर्थ पुत्री के लिए, पंचम अन्य रिश्तेदार या मित्रगण के लिए संकल्प करे| जल छोड़ते समय मन ही मन अपनी मनोकामना पूर्ति की कामना करे| तत्त्पश्चात्  बाजोट (चौकी) पर रखे कलश की पूजा केसर-कुमकुम तथा पुष्प द्वारा करे (ऐसा करने से सभी प्रकार के शत्रुओं का नाश हो जाता है तथा किसी भी प्रकार की ऊपरी बाधा समाप्त हो जाती है | ) थोड़ी पीली सरसों बाएं हाथ में लेकर दाहिने हाथ से स्फुंटित करें तथा निम्न मंत्र का जाप करने के पश्चात् सारी सरसों दस दिशाओं में डाल दें |


“ॐ अपसर्पन्तु ये भूता ये भूता भूमिसंस्थिताः |

ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नष्यन्तु शिवाज्ञया ||

अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचा सर्वतो दिशम् |

सर्वेषामविरोधेन पूजाकर्म समारभे ||”


इस मंत्र का उच्चारण एक बार करना है उसके पश्चात आपको पीली सरसों को दसों दिशाओं में डालना है| इससे चारों ओर से जो भी व्यक्ति नजरबंद, टोना-टोटका, कुछ भी कर रहा हो तो वह बंद हो जाएगा | उसके पश्चात् थोड़े से अक्षत (चावल) हाथ में लेकर दसों दिशाओं में उछालने के साथ साथ नीचे दिये गए मंत्र का उच्चारण करे |


“ॐ रक्ष-रक्ष हूं फट् स्वाहा |”


उसके बाद आसन के दाहिने कोने में कुमकुम में जल मिलाकर एक त्रिभुज बनाये तथा उस पर अक्षत (चावल) रखे और थोड़े से पुष्प रखे तथा निम्न मंत्र का उच्चारण करे |


“ॐ पवित्र व्रज भूमे हूं फट् स्वाहा |”


फिर अपने बायें पैर से तीन बार भूमि ताड़िए (पैर से भूमि पर मारे ) ताकि कोई भी अज्ञात शत्रु हो वह भी समाप्त होकर दूर हो जाएगा | फिर एक शुद्ध व साफ़ थाली लेकर उसमे केसर-कुमकुम व अष्टगंध से “श्री” का चिन्ह बनाए | उस पर नवदुर्गा शक्ति यन्त्र एवं कवच स्थापित करे | उसके बाद यन्त्र व कवच को शुद्ध जल से तत्पश्चात् दुग्ध से स्नान करवाएं | पुनः शुद्ध जल से स्नान करवाए एवं बाजोट पर यथा स्थिति में विराजमान कर दे तथा यन्त्र के पीछे (आपकी सुविधा अनुसार) माता की मूर्ति (प्रतिमा, तस्वीर) जो भी आपके घर में हो वह विराजमान दे |


यन्त्र व कवच पर केसर-कुमकुम का तिलक करे, अक्षत चढ़ाये, धुप अगरबत्ती करे , पुष्प चढ़ाये तथा ताम्बुल (पान) के पत्ते पर लौंग-इलायची अर्पित करे | तत्त्पश्चात उनके आगे सौभाग्यदायक द्रव्य (सुहाग की साड़ी व अन्य श्रृंगार प्रसाधन की सामग्री ) चढ़ाये |

उसके बाद नीचे दिये गए मंत्र का सवा लाख, ५१ हजार, २१ हजार मंत्र जाप यथाशक्ति करे | यह मंत्र जाप आप   छः महीनो में भी पूर्ण कर सकते है परन्तु मंत्र जाप अवश्य करना चाहिये | अन्यथा नवरात्रि में प्रत्येक दिन एक-एक माला जाप तो अवश्य ही करे जो नवदुर्गों की शक्ति को अपने में समाहित रखेगा | मंत्र:-


“सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते |

भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ||”


इस यन्त्र एवं कवच को प्रथम दिन दूध से अभिषेक करे, द्वितीया को दही से, तृतीया को घृत से, चतुर्थी को मधु से, पंचमी को शक्कर से, षष्ठी को पंचामृत से, सप्तमी को इत्र से, अष्टमी को पुष्प से एवं नवमी को अक्षत से अभिषेक करे और दशमी तिथि को आप स्वयं या किसी पंडित को बुलाकर हवन करवाएं | तत्पश्चात् आपको कपूर द्वारा नौ दिन नित्य  नीचे दी गयी आरती करनी है | एक थाली में पांचबत्ती (कपूर की पांच टिकिया) कपूर जलाकर आपको रोज नवदुर्गा की आरती करनी है | इस से आपको सूर्य व चन्द्रमा का भी लाभ मिलेगा | सूर्य आपको तेज प्रदान करेगा और चन्द्रमा आपके मन में शान्ति प्रदान करेगा | दसवें  दिन माँ भगवती का ध्यान करके उनकी वंदना करे | आपको मन्त्रों का अच्छा परिणाम अवश्य मिलेगा | क्षमायाचना करके इस कवच को चैन या धागे में धारण करे, यन्त्र को घर/फैक्ट्री/दुकान/ऑफिस के पूजा कक्ष में स्थापित करें एवं नित्य धूप अगरवत्ती करें | ऐसा करने से ईश्वर ने चाहा तो आपकी सभी समस्याए स्वतः धीरे-धीरे समाप्त हो जायेगी एवं घर में सुख-समृद्धि वास एवं माता की कृपा से आपके जीवन में खुशहाली व शांति बनी रहेगी |

त्रयोदशी

कार्तिक कृष्णा  त्रयोदशी को  प्रातः काल दंतधावन करके  स्नान करें और त्रिरात्री व्रतका नियम लेकर भगवान् गोविंद के  भजन में तत्पर रहें तथा इस व्रत के अंत में गोवर्द्धनोत्सव मनावे |  त्रयोदशी तीन मुहूर्त से अधिक हो तो वह इस व्रत को ग्राह्य है , पर तिथि से वेध होना दोषकी बात नहीं है | कार्तिकके कृष्ण पक्षमे त्रयोदशी के प्रदोषकाल में यमराज के लिये दीप और नैवेद्य समर्पित करे तो अपमृत्यु ( अकालमृत्यु या दुर्मरण ) का नाश होता है | ऐसे महोत्सव के अवसर पर जिस प्रकार जीव अपने जीवनसे वियुक्त न हो, वह उपाय हमारे आगे वर्णन कीजिये |


कार्तिक  कृष्णा त्रयोदशी को प्रतिवर्ष प्रदोष काल में जो अपने घर क्र दरवाजे पर निम्नांकित मंत्र से उत्तम दीप देता है , वह अपमृत्युको प्राप्त होनेपर भी यहाँ ले आने योग्य नहीं है | वह मंत्र इस प्रकार है :


मृत्युना पाशदण्डाभ्यां  कालेन च मया सह |

त्रयोदश्यां दिपदानात् सुर्यजः प्रियतामिति  ||


त्रयोदशी को दीपदान करनेसे मृत्यु, पाश, दण्ड,  काल और लक्ष्मी के साथ सुर्यनंदन यम प्रसन्न हों | इस मंत्र से जो अपने द्वारपर उत्सव में दीपदान करता है , उसे अपमृत्यु का भय नहीं होता है | दीपावली के पहले की चतुर्दशी को तेलमात्र में लक्ष्मी और जलमात्र में गंगा निवास करती है | जो उस दिन प्रातः काल स्नान करता है, वह यमलोक नहीं देखता |   नरकभय का नाश करने के लिये स्नान के बीच में अपामार्ग को मस्तक पर घुमावे | तीन बार मंत्र पढ़कर तीन ही बार घुमाना चाहिए | मन्त्र इस प्रकार है |


सीतालोष्ठसमायुक्त  सकण्टकदलान्वित |

हर पापमपामार्ग  भ्राम्यमाणः पुनः पुनः ||


जोते हुए खेत के ढेलेसे युक्त और कंटक विशिष्ट पत्तों से सुशोभित अपामार्ग !तुम बार – बार घुमाए जानेपर मेरे पपोंको हर लो | ऐसा कहकर अपने सिरपर अपामार्ग घुमावे | स्नान करके भीगे वस्त्र से मृत्यु के पुत्ररूप दो कुत्तोंको दीपदान दे | उस समय यह मन्त्र पढ़े:


शुनकौ श्यामशवलौ भ्रातरौ यमसेवकौ |

तुष्टौ स्यातां चतुर्दश्यां दीपदानेन   मृत्युजौ ||


काले और चितकबरे रंगके दो श्वान जो मृत्यु के पुत्र , यमराज के सेवक तथा परस्पर भाई हैं , चतुर्दशी को दीपदान करने से मुझपर प्रसन्न हों | फिर स्नानांगतर्पण करनेके पाश्चात् चौदह यमों का तर्पण करे , जिनके नाम – मंत्र इस प्रकार है:


यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च | वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ||

औदुम्बराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने | वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय ते नमः ||


ये चौदह नाम – मन्त्र   हैं | इनमेंसे प्रत्येक के अंत में नमः पद जोड़कर बोले और एक – एक मन्त्र को तीन – तीन बार कहकर तिलमिश्रित जलकी तीन – तीन अंजलियाँ दे | यमराजका  तर्पण यज्ञोपवीत होकर अर्थात् यज्ञोपवीत को बायें कंधेपर रखकर अथवा प्राचीन वीती  होकर ( जनेऊ को दाहिने कंधेपर करके ) भी किया जा सकता है | क्योंकि यमराज देवता और पितर दोनों ही पदोंपर स्थित है | अतः उनमे उभयरुपता है | जिसके पिता जीवित हों , वह भी यम और भीष्म  के लिये तर्पण कर सकता है | कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को यदि अमावस्या भी हो और उसमे स्वाती नक्षत्र का योग हो तो उसी दिन दीपावली  होती है | उस दिन से आरम्भ करके तीन दिनोंतक दीपोत्सव करना चाहिए | क्योंकि एक समय राजा बलिने भगवान् यह वर माँगा था कि ‘मैंने छद्म से वामनरूप धारण करनेवाले आपको भूमिदान दी है और आपने उसे तीन दिनों में तीन पगोंद्वारा नाप लिया है , अतः आजसे लेकर तीन दिनों तक प्रतिवर्ष पृथ्वीपर मेरा राज्य रहे | उस समय जो मनुष्य पृथ्वी पर दीपदान करें , उनके घरमे आपकी पत्नी लक्ष्मी स्थिरभाव  से  निवास करें |’


दैत्यराज बलिको भगवन विष्णुने चतुर्दशीसे लेकर तीन दिनोंतकका  राज्य दिया है |इसलिये इन तिन दिनोमे यहाँ सर्वथा महोत्सव करना चाहिए |चतुर्दाशीकी रत्रिमे देवी महारात्रिका प्रादुर्भाव हुआ है ,अतः शक्तिपुजापरायण पुरुषोंको चतुर्दाशीका उत्सव अवश्य करना चाहिए |भगवन सूर्य के तुलाराशिमें स्थित होनेपर चतुर्दशी और अमावस्याकी संध्याके समय मनुष्य हाथ में उल्का लेकर पितरोंको मार्ग – प्रदर्शन करावें |कार्तिकमासमें चतुर्दशी आदि तीन तिथियाँ दीपदान आदिके कार्योमें ग्रहण करने योग्य है |यदि ये तीन तिथियाँ संगवकालसे पहले ही समाप्त हो जाती हो तो दीपदान आदिके कार्योमें इन्हें पूर्वतिथिसे युक्त ही ग्रहण करना चाहिए |


तदनंतर अमावास्याको प्रातः काल स्नान करके भक्तिपूर्वक देवताओं और पितरोंकी पूजा और उन्हें प्रणाम करे | फिर दही ,दूध तथा घी आदिसे पार्वण श्राद्ध करे |इस दिन बालकों और रोगियोंके सिवा और किसीको दिनमें भोजन नहीं करनी चाहिये | प्रदोषके समय कल्याणमयी लक्ष्मी देवी का  पूजन करे|उस दिन लक्ष्मीजी  का सुख बढ़ानेके लिए जो उनके लिए कमलके फूलोंकी शय्या बनता है ,उसके घरको छोड़कर भगवती लक्ष्मी कहीं  नहीं जातीं |जावित्री ,लवंग , इलाइची और कपुरके साथ गायके दूधको अच्छी तरह पकाकर उसमे आवश्यकताके अनुसार शक्कर देकर लड्डू बना ले तथा उन्हें महालक्ष्मीजीको  अर्पण करे |पूजा के पश्चात लक्ष्मीजीकी स्तुति इस प्रकार करनी चाहिए _दीपककी ज्योतीमे विराजमान महालक्ष्मी !तुम ज्योतिर्मयी हो |सूर्य ,चन्द्रमा ,अग्नि ,सुवर्ण और तारा आदि सभी ज्योतियोंकी ज्योति हो; तुम्हे नमस्कार है |कर्तिककी दिपवालिके पवित्र दिनको इस भूतलपर और गौओंके गोष्ठमें जो लक्ष्मी जो शोभा पाती हैं  ,वे सदा मेरे लिये वरदायिनी हों |


इस प्रकार स्तुति करनेके पश्चात प्रदोषकालमें दीपदान करे |अपनी शक्तिके अनुसार देवमंदिर आदिमें दिपकोका वृक्ष बनावे |चौराहेपर ,श्मशान भूमिमें ,नदीके किनारे ,पर्वतपर ,घरोमें ,वृक्षोकी जड़ोमें ,गोशालाओंमें ,चबुतरोंपर तथा प्रत्येक गृहमें दीपक जलाकर रखना चाहिये |पहले ब्राह्मणों और भूखे मनुष्योंकों भोजन कराकर पीछे स्वयं नूतन वस्त्र और आभूषण से विभूषित होकर भोजन करना चाहिये |जिवहिंसा ,मदिरापान , अगम्यागमन ,चोरी और विश्वासघात – ये पाँच नरक के द्वार कहे गये है | इनका सदैव त्याग करना चाहिये |तदनंतर आधी रातके समय नगरकी शोभा देखनेके लिये धीरे-धीरे पैदल चले और उस समयका आनंदोत्सव देखकर अपने घर लौट आवे |

गोवर्धन पूजा की परम्परा

धनतेरस के बाद चतुर्थ दिवस जो होता है वह गोवर्धन पूजा का होता है | इसे पंच पर्व का चतुर्थ दिवस कह सकते है | कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन की पूजा , गौ – पूजा और अन्न – कूट होता है |


अन्नकूट में चन्द्रदर्शन अशुभ माना जाता है | यदि प्रतिपदा में द्वितीया हो तो अन्नकूट अमावस्या को मनाया जाता है  | इस दिन प्रातः तेल मल कर स्नान करना चाहिए | पूजन का समय कहीं प्रातः काल है तथा कहीं दोपहर को | गाय , बैल आदि – पशुओं को स्नान कराया जाता है | उनके पैर धोए जाते हैं |फुल , माला , धुप , चन्दन आदि से उनका पूजन किया जाता हैं |गायों को मिष्ठान्न खिलाकर उनका आरती करके प्रदक्षिणा ली जाती है | कई तरह के पकवानों का पहाड़ बनाकर बीच में श्रीकृष्ण की मूर्ति रखकर पूजा की जाती है | कहीं – कहीं गोबर से गोवर्धन व कृष्ण की मूर्ति बनाकर भी पूजा की जाती है | इस दिन संध्या समय दैत्यराज बलि का पूजन भी किया जाता है | पूजन के बाद अन्नकूट की कथा भी सुननी चाहिए | इस पर्व का भी बहुत धार्मिक महत्त्व है | आइये इस संबंध में बिस्तार से जानें !!


गोवर्धन पूजा का महत्त्व -    इसका प्रारम्भ पांच  हजार वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत की तलहटी के उद्धार और कृषि साधनों के नवीनीकरण के अवसर पर हुआ था |इस पर्व के प्रारम्भ होने से पूर्व ब्रजमंडल की जनता ‘देव मातृक” थी , अन्न के लिये वर्षा पर निर्भर रहती थी | यद्यपि उसके समीप गोवर्धन पर्वत सदृश जलस्तोत्र से पूर्ण पर्वत था जिसका समुचित उपयोग करने पर अच्छी खेती हो सकती थी किन्तु लोगों का ध्यान इस ओर न था | वे वर्षा की प्रतीक्षा करते , वर्षा के देव इन्द्र को प्रसन्न करने कर लिये यज्ञ करते और उसी की कृपा पर निर्भर रहते  थे | बालक कृष्ण ने – जिनका लोकाभ्युदय के लिये हुआ था – इसके विरोध में लोगों को संगठित कीया | गोवर्धन के लिये सामूहिक प्रयाण हुआ | स्तोत्रो का जो जल अभी तक व्यर्थ ही चला जाता था , गोवर्धन के आंचल में फैली हुई जो वनस्पति या शस्य समृद्धि लोगों की अपेक्षा से प्रतिवर्ष नष्ट हो जाती थी , जो सैकड़ो बीघा भूमि बंजर पड़ी थी , उस सब की ओर उन्होंने समुचित ध्यान दिया और व्यवस्था की| इससे सम्पूर्ण ब्रज - मंडल धनधान्य से परिपूर्ण हो गया |


कार्य सिद्धि के लिये दैविकबल का आश्रय और अपना शिरतोड़ पुरुषार्थ , दोनों ही साथ – साथ परमावश्यक है | जो गोप ग्वाले केवल इन्द्रपुजा रूप दैवी साधन पर ही सदैव निर्भर रहते  थे , स्वयं कुछ पुरुषार्थ नहीं करते थे | अतएव वे अनावृष्टि तथा अतिवृष्टि की समस्या का सफल समाधान न कर पाते थे  | भगवान ने गोवर्धन से वर्षा काल में बहने वाले जल – स्तोत्रों को बृहत्तडाग रूप में  बांध कर जहां अनावृष्टि के समय सिंचाई का प्रबन्ध किया , वहां इन्द्र के कोप से होने वाली अतिवृष्टि की दुःखद बाढ़ में डूबते हुए ब्रज – मण्डल को भी गोवर्धन उठाकर बचा लिया अर्थात् – उसे जल रोधक सुरक्षा बांध  के रूप में परिणत करके तथा पर्वतीय ऊँचे स्थानों मेर आवास की व्यवस्था करके महाप्रलयंकारी संवर्तक मेघो की आप्लावन शक्ति को भी कुण्ठित कर दिया | इस प्रकार जब पशुओं को सदैव भर पेट चारा और विशुद्ध पानी मिलने लगा तो उक्त पर्वत का “गोवर्धन” नाम सार्थक हो गया |


गोवर्धनोध्दार की वह सुखद स्मृति आज भी हमारे हृदयपटल में सदैव सुरक्षित है | भारत जैसे कृषि प्रधान देश में गोवर्धन पूजा जैसे प्रेरणाप्रद पर्वो की अत्यन्त आवश्यकता है | जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है कि हमें इस दिन अपनी  राष्ट्र की गो = पृथ्वी और गाय दोनों की उन्नति तथा विकास की ओर ध्यान देना चाहिए और इनके संवर्धन के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये | यही इस “गोवर्धन” पर्व का महान् सन्देश है | गोवर्धन पूजा की कथा -   प्राचीन काल में दीपावली के दुसरे दिन  भारत में विशेषकर ब्रज – मंडल में इंद्र की पूजा हुआ करती थी | श्रीकृष्ण ने कहा की कार्तिक में इन्द्र की पूजा का कोई लाभ नहीं इसलिए हमें गऊ के वंश की उन्नति  के लिये पर्वत , वृक्षों की पूजा करते  हुए न केवल उनकी रक्षा करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए अपितु पर्वतों और भूमि पर घास – पौधे लगाकर हमें  वन महोत्सव भी मनाना चाहिए | इसके सिवा हमें सदैव गोबर को ईश्वर रूप में पूजा करते हुए उसे कदापि नहीं जलाना चाहिए | इसके बदले खेतों में डालकर उस पर हल चलाते हुए अनौषणि उत्पन्न करनी चाहिए , क्योंकि ऐसा करने से ही हमारे सहित देश की उन्नति होगी |


भगवान् श्री कृष्ण के ऐसे उपदेश देने के पश्चात् लोगों ने ज्यों ही पर्वत , वन और गोबर की पूजा आरम्भ की , त्यों इन्द्र ने कुपित होकर सात दिन की अखण्ड झड़ी लगा दी परन्तु श्री कृष्ण ने पर्वत को अपनी चितली अंगुली पर उठाकर ब्रज को बचा लिया और इन्द्र को लज्जित होने के पश्चात् उनसे क्षमा याचना करनी पड़ी | गोवर्धन  पूजा साधना, जिसके संपन्न करने से घर में जहां अन्न – दूध आदि कभी कम नहीं पड़ता वही भगवान् कृष्ण के गोवर्धन स्वरूप की कृपा से प्राकृतिक आपदाओं से भी सुरक्षा होती है l 


कार्तिक मास की दीपावली के बाद अन्नकूट की पूजा की , जिसे गोवर्धन पूजा भी कहते | प्रातः काल शरीर पर तेल लगाकर फिर स्नान करना चाहिए | दैनिक पूजा के बाद गाय की पूजा करनी चाहिए | ‘गाय’को समृद्धि का प्रतीक माना गया है , और समृद्धि में वर्धन या वृद्धि करने वाले होने के कारण भगवान् कृष्ण को गोवर्धन भीं कहा गया  है | यदि घर में गाय हो तो गाय के शरीर पर लाल एवं पीला रंग लगाना चाहिए , उसकी सिंग पर तेल लगना चाहिए | फिर उसे घर में बने भोजन का प्रथम प्रथम अंश खिलाना चाहिए | यदि घर में गाय न हो तो किसी भी गाय की पूजा की जा सकती है | इसके बाद ‘गोवर्धन पूजा’ ( अन्नकूट पूजा ) करनी चाहिए  | इसके लिये गाय के गोबर से पर्वत की आकृति देकर एक छोटा – सा गोवर्धन पर्वत बना लें, इसे पूजा के लिये प्रयोग में लाया जाता है | यदि गोबर उपलब्ध न हो , तो अन्न ( चावल या गेहूं आदि ) की ढेरी के रूप में भी गोवर्धन पर्वत बनाया जा सकता है | इस प्रकार अन्न की ढेरी से बने गोवर्धन को ही अन्नकूट कहते है |


गोवर्धन पूजा का अपना विशेष महत्त्व है | प्राकृतिक विपत्तियों से सावधान रहने की सूचना ‘गोवर्धन पर्वत’ की कथा से मिलती है | अधिकांश खाद्य पदार्थ गाय के दूध से ही बनते है , गाय को घर में अन्न और समृद्धि का प्रतीक माना गया है | गो पूजन, गोवर्धन पूजा या अन्नकूट पूजा से घर में अन्न , दूध आदि की कमी नहीं होती है | भगवान् कृष्ण इस दिन अपनी पूजा करने वाले की अकाल , भूकंप , अनावृष्टि , अति वृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा करते है  , ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार गोवर्धन पर्वत उठाकर उन्होंने ब्रजवासियों की वर्षा से रक्षा की थी | शुभ मुहूर्त में अपने आसन पर बैठ जाएं | गोवर्धन पर्वत के चारों ओर हल्दी एवं कुंकुम का लेप बनाकर तीन गोल घेरे  बनाएं | इस घेरे के बाहर आठ दिशाओ में आठ स्वस्तिक बनाएं | प्रत्येक स्वस्तिक एवं गोवर्धन पर एक – एक पुष्प निम्न मंत्र बोलते हुए अर्पित करें |


ॐ ह्रीं ह्रीं गोवर्धनाय भद्राय ऐं ऐं ॐ  नमः |


इसके बाद गोवर्धन के सम्मुख एक दीपक प्रज्वलित करें , धूप जला दें | फिर पर्वत को चारों और मौली से उपरोक्त मन्त्र बोलते हुए बांध दे तथा तीन गांठ लगाएं | फल ,बताशा आदि नैवेद्य रूप में अर्पित करते हुए भगवान कृष्ण का स्मरण करें | उपरोक्त मंत्र का पाँच मिनट तक जप करें और चढ़ाये हुए नैवेद्य को प्रसाद रूप में स्वीकार करें |

दीपावली

दीपावली पर ही लक्ष्मी पूजन क्यों


हम त्यौहार मनाते है परंपरा के अनुसार , चले आ रहे रीति – रिवाजों के अनुसार | लेकिन क्या हमने यह कभी जानने की चेष्टा की है कि यह त्यौहार कब से मनाया जा रहा है , अथवा इसके मनाने के पीछे कारण क्या है ? आखिर क्यों दीपावली को ही लक्ष्मी पूजा की  जाती है ?


माँ लक्ष्मी प्रत्येक व्यक्ति के संपूर्ण जीवन कि आराध्य है , संसार का आधार है | माँ महालक्ष्मी मात्र धन ही प्रदान नहीं करती क्योंकि मात्र धन से ही सुख शांति  नहीं मिलती धन से भोजन ख़रीदा जा सकता है , लेकिन भूख या स्वास्थ्य नहीं | | रूपया – पैसा हजारों लाखों के पास हो सकता है , लेकिन जरुरी नहीं कि रूप, यौवन, प्रभुता, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य मिले ? माँ लक्ष्मी की कृपा से धन, यौवन, रूप, पद, प्रतिष्ठा,  यश, कीर्ति सभी उपलब्ध हो जाता है , इसीलिये कि माँ लक्ष्मी सभी कुछ देने में समर्थ है | विश्व में सबसे अधिक लक्ष्मी साधना से संबंधित हजारों विधियां | सामान्य गृहस्थ या साधक अपनी स्थिति परिस्थिति के  अनुसार साधनाएं कर सफलता प्राप्त करते रहते है | दीपावली की परम्परा कब से प्रारम्भ हुई , यह बताना व जानना  प्रायः कष्ट साध्य है | परन्तु आज से २१ लाख वर्ष पूर्व से इस  परंपरा का इतिहास अलग – अलग ढंग से इतिहासों से ग्रंथित मिलता है | कन्या संक्रांति में ( कन्या के सूर्य में ) पितृ श्राद्ध पक्ष बनता है | तुला संक्रांति में पितृगण स्वस्थान को प्रस्थान करते है | उनके मार्ग दर्शन के लिये दीप दान का विधान अमावस्या ( पितृ तिथि ) को किया जाता है | यही दीपावली है |


पितरों को प्रसन्न होने  से ही देवगण प्रसन्न होते है और देवगण कि प्रसन्नता से ही धन का आगमन होता है और धन की देवी लक्ष्मी हैं| यह सिद्धांत है | इस सिद्धांत के मद्देनजर कार्तिक कृष्ण अमावस्या को ही दीपावली का दिन पड़ता है | अन्य दिनों में नहीं | कालरात्रि एक ओर जहाँ शत्रु विनाशिनी होती है  वहीं उसे शुभत्व कि प्रतिक, सुख – सौभाग्य प्रदायिनी होने का गौरव भी प्राप्त है | मंत्र में कालरात्रि को गणेश्वरी कि संज्ञा प्राप्त है जो रिद्धि – सिद्धि प्रदायिनी  है |दीपावली कि रात्रि को लक्ष्मी , कुबेर व गणपति कि पूजा –साधना का विशेष महत्व है | इस रात्रि को मंत्र –तंत्र और यन्त्र कि सिद्धि कि जाती  है |दीपावली कि रात्रि के चार प्रहर अपना अलग –अलग महत्व रखते है |प्रथम –निशा ,द्वितीय –दारुण ,तृतीय –काल ,चतुर्थ –महा |

सामान्यतः दीपावली कि रात्रि में आधी रात के बाद डेढ़ से दो बजे के समय को महानिशा का समय निरूपित किया जाता है| मान्यता यह भी है कि इस कालाविधि में लक्ष्मी जी कि साधना करने से अक्षय धन –धान्य कि प्राप्ति होती है |पौराणिक ग्रन्थों में इसे स्पष्ट भी किया गया है |


अर्धरात्रात् परंयच्च मुहूर्तज्ञयमेव च |

समारात्रि रुटीटष्टा ताउतं चक्षयम भवेत् |


तात्पर्य यह कि दीपावली कि रात्रि को आधी रात के बाद जो दो मुहूर्त का समय है , उसको महानिशा कहते है | इस कालाविधि में आराधना करने से अक्षय लक्ष्मी कि प्राप्ति हिती है | ज्योतिषीय गणना यह है कि दीपावली के दिन सुर्य एवं चन्द्रमा दोनों ही ग्रह तुला राशी में होतें है | तुला राशी का स्वामी शुक्र ग्रह है जो सुख – सौभाग्य का कारक ग्रह है|  रुद्रयामाल तंत्र में इस  तथ्य का उल्लेख भी हुआ है |


तदाधनार्थ प्रछाती शुक्रः |


अर्थात् जब सूर्य एवं चन्द्रमा तुला राशि के होते है , जब लक्ष्मी पूजन से धन – धान्य की  प्राप्ति होती  है  | इसी तरह तंत्र साधकों का विश्वास है कि दीपावली कि अर्धरात्रि को किया गया  अनुष्ठान शीघ्र सफलतादायक एव्बम सिद्धिदायक होता है | वास्तव में दीपावली कि रात को महानिशा के नाम से जाना जाता है | आदिकाल से पुराणों में शक्ति पूजा के  लिये बर्ष के विभिन्न दिनों को महत्ता प्रदान कि गयी है | हमारे प्राचीन शास्त्र और पूराण कार्तिक मॉस कि अमावस्या को ही महानिशा निरुपित करते है | अमावस्या के  दो दिन पूर्व और दो दिन बाद का समय भारतीय मनीषियों के अनुसार पुण्य का समय होता है | इसीलिये कार्तिक मॉस के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को धन्वन्तरी त्रयोदशी , ( धनतेरस ) चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी , अमावस्या को दीपावली अर्थात् लक्ष्मी पूजन का पर्व और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अन्नकूट पर्व तथा द्वितीया को यम द्वितीया के रूप में मान्यता है |   शरद ऋतु के इसकाल में उपसना  - साधना अत्यंत उपयोगी मानी जाती है |

महानिशा एक  ऐसी  रात्रि है जो साल भर में केवल एक बार आती है इसी लिए तंत्र  साधक इसका उपयोग करते है और अपनी मनोकामना कि पूर्ति के लिये तंत्र साधना करते है | सामान्यतः मंत्र – तंत्र और यन्त्र  तीनों कि सिद्धि महानिशाकि कालाविधि में कि जाती है | तंत्र साधना के लिये यह कालाविधि अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है  



सा विध पंचोपचार पूजन

दीपावली को सुख रात्रि भी कहते है |सुख की कामना से माता लक्ष्मी की पूजा गणेश पूजन पूर्वक किया जाता है | कार्य सिद्धि हेतु संकल्प आवश्यक है पूर्व में शुभ लग्न की चर्चा कर ली गई है | अब संकल्प हाथ में जला,अक्षत ,पुष्प और द्रव्य लेकर संकल्प करे |


ॐ अद्यः अमुक गोत्रीय अमुक शर्मा अवलिक वर्मानोऽहम्  मम कायिक वाचिक मानसिक सानसर्गिक चतुर्विध दुरितोपक्षयार्थम् तथा च धनमैश्वर्य  मारोग्यतां च प्राप्त्यर्थम् विशेषतः श्री महालक्ष्मी देवता सुप्रीति द्वारा सुख शांति प्राप्त्यर्थं गणेश पूजन पूर्वक लक्ष्मी पूजन महम् करिष्ये |


संकल्पित जलाक्षत किसी पात्र में छोड़ दे, अमुक के स्थान पर अपना गोत्र और नाम का उच्चारण करें |


अक्षत लेकर :- ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिके आवाहयामि,स्थापयामि पूजयामि च |


अर्घा में जल लेकर :- एतानि पाद्याघ्र्याचमनीयस्नानीयपुनराचमनीयानि समर्पयामि श्री गणेशाम्बिकेभ्यां नमः |


चन्दन लेकर :-इदमनुलेपनं भगवन श्री गणेशाम्बिकेभ्यां नमः


धुप-दीप-नैवेद्य देखाते हुए जल से उत्सर्ग करे :- एतानि गंध-पुष्प-धुप-दीप-ताम्बुल यथाभाग नाना विध नैवेद्यानी भगवन श्री गणेशाम्बिकेभ्यां नमः |


आरती को जल से उत्सर्ग कर ले :- ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकेभ्याम् नमः आरार्तिक्यं समर्पयामि |


जल से शीतल करके पुष्प चढ़ाकर प्रणाम कर लें |

दीपदान की महिमा एवं देव - पितरों की तृप्ति

शुभंकरोतु कल्याण मारोग्यम धनसंपदा |

शत्रुबुद्धिविनाशय दिपोज्योतिर्नमोऽ स्तुते ||

दिपोज्योतिः परमब्रम्ह दिपोज्योतिर्जनार्दन  |

दीपो हरतु में पापं दिपोज्योतिर्नमोऽ स्तुते ||


हे दीपज्योति  ! तू हमारा शुभ करने वाली , कल्याण करने वाली , हमें आरोग्य और धनसंपदा देने वाली , शत्रु बुद्धि का विनाश , करने वाली है | दीपज्योती ! तुझे नमस्कार ! हे दीपज्योति ! तू परमब्रम्ह है , तू जनार्दन है , तू हमारे पापों का नाश करती है , तुझे नमस्कार !पाषाण युग में आदमी ने पत्थर के दीपक जलना सीख लिया था | इन दीपकों में तेल के स्थान पर पशुओ की चर्बी पिघलाकर डाली जाती थी | और वृक्षों की पतली छाल को ऐंठकर बत्ती बनाई जाती थी | दीपक की इस प्रारंभिक अवस्था के प्रमाण कई पुरातत्वीय खोंजों में खुदाई के दौरान प्राप्त हुए |


दीपक की यह विकाश यात्रा क्रमशः आगे बढ़ी और सीप से बने दिए अस्तित्व में में आए | इनमे प्रयुक्त होने वाली सामग्री पशुओ की  चर्बी और पेड़ की छाल वही थी , केवल दीपक का आकार  बदल गया था | फिर धीरे – धीरे आदमी ने मिट्टी के दीपक बनाना सिखा | इनमे सरसों , जैतून और शीशम का तेल प्रयोग में लिया जाने लगा |


नन्हा सा दीपक अग्नि , विद्युत् और सूर्य का अंश ही तो है , जो उर्जा , ऊष्मा और उजाले के स्त्रोत है | हमारे दैनिक जीवन में दीपक की अक्षुण्ण उपयोगिता है | सायंकाल दीपक जलाकर जहाँ अधिकांश ग्रामीण जनता अपने घरों में उजाला करती है वहीं अपने आराध्य देव की उपासना में श्रद्धालुजन प्रातः – सायं घी का दीपक अवश्य जलाते हैं | ग्रामीण महिलाएं तुलसी मैया के चौरा पर भी प्रतिदिन दीपक जलाकर पूजा – अर्चना करती है , जिससे भारतीय संस्कृति की श्रद्धा , शालीनता , सौम्यता , सरलता , सद्भावना आदि का असीम भाव उफनता है | ‘दीपक’  की उत्पत्ति कब कैसे और किसके द्वारा हुई , इस संबंध में कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है , किन्तु यह तो तयशुदा है की दीपक का सफ़र हजारों साल पुराना है ,| अनुमान  किया जाता है की आदि काल में  आदमी ने सबसे पहले आगे की खोज  की थी , उसी के बाद ‘दीपक’ की परिकल्पना उत्पन्न हुई होगी |


बिना दीपकों के तो हम दीपावली की कल्पना भी नहीं कर सकते | दीपकों की रोशनी  के बिना तो दीपावली का पर्व ही अधुरा है | भारतीय संस्कृति की शाश्वता के प्रतिक माने जाने वाले दीपक का महत्त्व दीपोत्सव पर ठीक उतना ही है , जितना लक्ष्मी पूजन का | यह अलग बात है की आधुनिक की दौड़ में आज मिट्टी के बने दीपकों की जगह अति सुन्दर कलात्मक दीपक , मोम के विभिन्न रंग – रूपों के दीपक तथा तरह – तरह के  आकर्षक डिजाइनों की रंग- बिरंगी मोमबत्तियों ने तो ली हसी लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में आज भी मिट्टी के दीपकों का ही सर्वाधिक  चलन है  | दीपावली के दिन प्रत्यूष समय में पितरों को दीपदान देने के महत्त्व के बारे में ‘निर्णय सिन्धु ’और ‘धर्म सिन्धु दोनों ग्रंथों में इसका स्पष्टतः विवेचन है  | 


तुला संस्थे सहस्त्रंशौ प्रदोषे भुतदर्शयोः |

उल्काहस्ता नराः कुर्युः पितृणाम् मार्गदर्शनम् ||


तुला राशी में सूर्य के आगमन पर चतुर्दशी और अमावस्या के प्रदोष में दीप लेकर मनुष्य , पितरों का  मार्ग दर्शन करें | कार्तिक  मास की अमावस्या को प्रातः  काल सूर्योदय से पूर्व निशीथ समय में जब आकाश में तारकावली हो अर्थात लगभग ४ से ५ बजे के बीच दीपक श्राद्ध विहित है , क्योंकि इससे चतुर्दशी का अंत ओर अमावस्या का प्रारम्भ होने से भुत और दर्श दोनों ही संयुक्त हो जाते है  | अतः मृतक प्राणी के निमित्त दीपदान और यमतर्पण दोनों ही एक  साथ अनुष्ठित हो जाते है |  वर्णत्रयी के लिये भी यह अनुष्ठेय है |

 

दीपदान मंत्र

अग्निदग्धाश्च ये जीव येप्यदग्धा कुले मम |

उज्जवल ज्योतिष दग्धास्ते  यन्तु परमामगातिम   ||                                 

यमलोकं परित्यज्य ,  आगता ये महलये |

उज्जवल ज्योतिष वर्त्म प्रपश्यन्तु व्रजन्तु ते ||


जो मेरे कुल में अग्नि से दग्ध या जो अदग्ध है , उज्जवल ज्योति से दग्ध हुए वे  जीव परमगति को जाते  है और यमलोक को छोड़कर जी महालय श्राद्ध मर पृथ्वी पर आये है , वे इस उज्जवल ज्योति के दर्शन से अपने मार्ग को देंखे और ज्योतिर्पथ से जाएं |


अभ्यंग स्नान


कार्तिक अमावस्या को प्रातः काल अभ्यंग स्नान करके भक्ति पूर्वक लक्ष्मी का पूजन करते , जो व्यक्ति अलक्ष्मी को दूर करना चाहते हैं | ऐसा कलादर्श में लिखा है | निर्णय सिन्धु कहता है , “अश्वयुग्दर्ष इति दर्श शब्दः प्रत्युष स्वतियुक्त” तिथि पर अमावस्या यहाँ दर्श शब्द प्रातः काल  में स्वाती नक्षत्र युक्त तिथि का बोधक है |  इस अमावस्या में स्वाती  नक्षत्र का होना आवश्यक है |  त्रयोदशी , चतुर्दशी अमावस्या को और कार्तिक के प्रथम दिन अगर स्वाति नक्षत्र हो तो  अभ्यंग स्नान दिनोदय के समय तक करना चाहिए दीपावली की अमावस्या को प्रातः  काल अभ्यंग  स्नान दोष युक्त ण होकर पाप की निवृत्ति कारक है | अतः इन्दुक्षय , संक्रांति , रविपात , दिनक्षय हो तो भी अभ्यंग स्नान करना चाहिए | अभ्यंग स्नान का अर्थ अपामार्ग ( कंटक सहित ) तुम्बी , चक्रमई ( कमरख ) इन वृक्षों की शाखाओं को जल में सिक्त करके उससे किया हुआ औषधि स्नान ही अभ्यंग स्नान है | इसके लिये धर्मसिंधु ने विशेष बताया की चतुर्दशी और अमावस्या का मिश्रण लेकर प्रातः काल में अभ्यंग स्नान करना सर्वश्रेष्ठ है तथा लक्ष्मीप्रद है | कुछ मत से  औषधि स्नान में सुगंध तेल हरिद्रा , तेल , आंवला , आदि भी लेते है | पृथ्वी चंद्रोदय में लिखा है , “ तील तैले न कर्तव्यं स्नानं नरक भुरुना”

आईये संवारे अपने बच्चों का भविष्य

वर्तमान वैज्ञानिक युग में | आज की युवा पीढ़ी बहुत तीव्र गति से आगे बढ़ रही है | किसी ज़माने में कोई पांचवी क्लास पढ़ लेता था तो उसे भी बहुत बड़ी बात समझते थे लेकिन आज के समय में स्नातकोत्तर को तो सामान्य स्तर की शिक्षा माना जाता है |इसमें भी सभी को एक –दुसरे से आगे बढ़ने की होड़ है | जिसका बच्चा होशियार , पढ़ाई में तेज है ,जिसकी स्मरण शक्ति तेज है उस बच्चे को सभी प्यार करते है ,उसके माता -पिता को भी समाज में लोग सम्मान की दृष्टि से देखते है | लेकिन जो पढ़ाई में कमजोर है ,जिनका स्मरण शक्ति कमजोर है ,जो बुद्धिहीन है ऐसे बच्चों का क्या किया जाय | ऐसे बच्चो के माता – पिता भी बहुत परेशान रहते है और स्वयं बच्चे भी | बच्चो की ऐसी ही कुछ समस्याओं को ध्यान में रखते हुए दीपावली के पावन पर्व पर निचे कुछ विशिष्ट बच्चो की साधनाएं एवं प्रयोग दिए जा रहे है | इन्हें सम्पम्न्न कर आप अपने बच्चों को भी अन्य बच्चों से आगे बढ़ते हुए देख पाएंगे | तो आईए फिर हम भी अपने बच्चों का जीवन सवारें इस दीपावली के पावन पर्व पर l

 

१)  जीवन में उच्चता तथा सौभाग्य – आप देख ही रहे है ,आज दुनिया में सबसे तेज दौड़ने की,सबसे आगे निकलनी की हौड मची है |ऐसे में सभी यूवाओं का सपना होता है कि उनका जीवन भी उच्च स्तर का हो ,उनको भी सौभाग्य की प्राप्ति हो |वे भी अपना परिचय किसी धनवान और सफल व्यक्ति के रूप में दें |यदि आप भी ऐसे ही सपने सजाएँ बैठे है तो निश्चित रूप से आपको यह साधना संपन्न करनी चाहिए और अपने सपनो को पूरा करना चाहिये | यह साधना,दीपावली के दिन अथवा किसी भी सोमवार को प्रारम्भ की जा सकती है |दीपावली के दिन प्रातः काल जल्दी उठकर नित्य कर्म से निवृत हो ले |अब स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करे और पीताम्बर धारण करें |घर के किसी शान्त कमरे में उत्तर दिशा की ओर मुख करके ऊन के आसन पर बैठे |अपने सामने बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाकर कुमकुम व केसर से रंगे हुए चावल बिखेरे |अब इन चावलों पर माँ सरस्वती ,माँ लक्ष्मी और रिद्धि – सिद्धि दाता  गणेश का सम्मिलित चित्र स्थापित करें |पंचामृत से तिलक करे और आरती उतारें |तीन  हकीक और सात गोमती चक्र अर्पित करें |पुष्प अर्पित करें और मेवे का प्रसाद चढायें |धुप - दीप और अगरबत्ती करें | अब निम्न मंत्र का ११८८ बार उच्चारण करें अर्थात २१ माला १०८ दाने की हकिक माला से जपें |

|| ॐ श्रीं क्रिं क्षौं सिद्धये ॐ ||


मंत्र जपते समय बीच में किसी से कोई बात न करें |अब माँ लक्ष्मी ,माँ सरस्वती और गणपति देव का स्मरण करें और प्राथना करें की आपका भविष्य उज्जवल हो , आपको सफलता और सौभाग्य की प्राप्ति हो |साधना समाप्ति पर समस्त पूजन सामग्री किसी लक्ष्मी मंदिर में चढ़ा दें |चित्र पूजाघर में स्थापित कर दें और प्रसाद बांट दे |

२ )   संकल्प शक्ति में वृद्धि के लिए –  दीपावली के दिन प्रातः काल जल्दी उठकर नित्यकर्म   से निवृत्त होने के पश्चात् स्नान कर शुद्ध सफ़ेद वस्त्र धारण करें  अथवा सफ़ेद धोती धारण करें | इसके पश्चात् उत्तर दिशा के ओर मुख करके , कुश अथवा ऊन के आसन पर बैठ जाएँ | सुगन्धित  धूप अथवा अगरबत्ती भी जला लें | अपने सामने बाजोट ( चौकी ) पर सफ़ेद वस्त्र विछाकर उस पर कुमकुम से स्वस्तिक का चिन्ह बनाएं और उस पर शुद्ध घी का एक दीपक जलाएं | अब इस दीपक की ओर देखते रहें और निम्नलिखित मंत्र का जप करते रहें | इस मंत्र की २१ माला आपको स्फटिक माला से जपनी है | जप समाप्त होने पर माँ  दुर्गा से शक्ति की प्रार्थना करें , माँ लक्ष्मी से धन – प्राप्ति हेतु प्रार्थना करें और माँ सरस्वती से मेधा बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना करें इस प्रकार आप प्रार्थना कर कोई संकल्प लेंगें तो निसंदेह आप उस संकल्प को पूर्ण कर पायेंगे


|| ॐ क्लीं ह्रीं सर्व संकल्प सिद्धये फट्   ||


संकल्प लेने के पश्चात् प्रसाद वितरित करें और दीपक पूजा घर में स्थापित करें|       


३ )  यश , वैभव ,पद तथा  प्रतिष्ठा - दीपावली के दिन रात्रि में लक्ष्मी पूजा करने के पश्चात् मध्य रात्रि में कभी भी इस  प्रयोग को संपन्न किया जा सकता है  | यह साधना बच्चों के पिता कर सकते है |  स्नान कर शुद्ध  पीले वस्त्र पहने अथवा पीली धोती धारण  करें | इसके पश्चात् उत्तर दिशा  की ओर मुख करके  , कुश अथवा ऊन के आसन पर बैठ जाएँ | कोई भी सुगन्धित धूप अथवा अगरबत्ती जला लें | अपने सामने बाजोट पर पीला  वस्त्र बिछाकर उस पर अक्षत की  ढेरी लगायें | इसपर कुमकुम और केसर छिड़के | अब इस ढेरी पर माँ सरस्वती की पारदेश्वरी प्रतिमा स्थापित करें और शुद्ध घी का एक दीपक जलाएं | प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करायें और पुष्प अर्पित करें | अब निम्नलिखित मंत्र की २१ माला कमलगट्टे की माला से जपें |


||ॐ श्रीं ह्रीं वैभवं  विद्यां सिद्धये फट्   ||


जप समाप्त होने पर अपने बच्चों के लिये माँ से वैभव , पद  एवं प्रतिष्ठा प्राप्ति हेतु प्रार्थना करें | माँ अपने बच्चों पर कृपा करने वाली है , वह अवश्य ही आपकी साधना से प्रसन्न होकर आपको वरदान देगी | इस प्रकार विधिपूर्वक  मंत्र का जाप आपको नियमित रूप से तीन दिन तक करना है | तीसरे दिन फिर प्रार्थना करें और बच्चों में दूध का  प्रसाद बांटे  | पूजन सामग्री को जल में विसर्जित कर दें और पारद सरस्वती प्रतिमा को पूजाघर में स्थापित कर दें | 


४) पूर्णायु तथा यौवन प्राप्ति _ ऐसे युवा एवं  युवतीयां जो  किशोरावस्था  मे  है लेकिन प्रायः रुग्न रहतें है , दुवले – पतले और निस्तेज है | जो जवान तो है लेकिन उनके शरीर में यौवन की झलक नजर नहीं आती | ऐसे युवाओं को निसंकोच इस साधना को संपन्न करना चाहिए | यह तीन दिन की साधना है और इसे  धनतेरस के दिन से प्रारम्भ किया जाना चाहिए | रात्रि में १० बजे के बाद कभी भी स्नान कर शुद्ध स्वच्छ वस्त्र पहने अथवा सफ़ेद धोती धारण करें | इसके पश्चात् उत्तर दिशा की और मुख करके , कुश अथवा ऊन के आसन पर बैठ जाएँ | कोई भी सुगन्धित धूप अथवा अगरबत्ती जला लें | अपने सामने बाजोट पर लाल वस्त्र विछाकर उस पर ११ लक्ष्मी  कारक  कौड़िया , ३ हकिक पत्थर और अष्ट लक्ष्मी यंत्र स्थापित करें | इस पर कुमकुम , चन्दन और केसर से तिलक करें | शुद्ध घी का  एक  दिपक जलाए | यन्त्र  को पंचामृत से स्नान करायें और पुष्प अर्पित करें | अब आरती कर  निम्न मंत्र की शंख माला से २१ माला जपें |


|| ॐ श्रीं ह्री दीर्घायुष्यं देहि ह्रीं श्रीं ॐ नमः ||


तीन दिन तक नित्य इसी समय  इस मंत्र की २१ माला जपें | जप समाप्ति पर माँ लक्ष्मी से दीर्घ आयु , उत्तम स्वास्थ्य एवं यौवन प्राप्ति हेतु प्रार्थना करें | बच्चों को मेवे का प्रसाद बांटे | अब  यंत्र एवं  अन्य पूजन   सामग्री लाल वस्त्र में बांधकर पोटली बना लें | इस पोटली को किसी भी नदी,  तालाब , बावड़ी आदि में विसर्जित कर दें |

जीवन में रंग लाती है रंगोली

प्रायः उत्सवों , त्यौहारों के समय किसी के घर के बाहर विभिन्न रंगों से बनी डिजाईन देखकर आप विचार में पड़ गए होंगे की यह क्यों बनाई गई है ? त्यौहारों के समय में और विशेष कर दीपावली के समय में घर को लीपने – पोतने का, सजाने – संवारने का कार्य किया जाता है | आधुनिक समय में दीवारो को सजाने का कार्य पेंटिंग्स, पोर्टेट ने ले लिया है, वहीं घर के बाहर बनी – बनाई रंगोली के स्टीकर भी मिलने लगे है | कई स्थानों पर तो रंगोली बनाने के लिये विभिन्न डिजाईन के साधन भी मिलने लगे जससे चावल का आटा भर कर जमीन पर चलना मात्र होता है  और सुन्दर आकृतियाँ उभर आती है | यह एक प्रकार से स्त्रियों द्वारा अपनी रचनात्मकता  दिखाने का अवसर भी होता है | ग्रामीण परिवेश अभी भी आधुनिकता से अछूता है | वहाँ घर के बाहर की दीवारों पर, आँगन में , मुख्य द्वार के बाहर विभिन्न रंगों की अद्भुत रंगोली देखने को मिल जायेगी |


प्रतीकोपासना हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है | यही कारण है  कि प्राचीन काल से अब तक इष्ट – प्राप्ति और अनिष्ट – परिहार के लिये विविध प्रतीकों के पूजने की प्रथा प्रचलित है | आज के पाश्चात्य प्रभाव की पर्याप्त पैठ शहरों में होने के कारण हमारे लोक संस्कृति के प्रतीक शहरी क्षेत्र की अपेक्षा गाँवों में अधिक लोकप्रिय है | जिन्हें हम अल्पना , चौक पूरना, रंगोली , मांडणे , कोलम , सथिया आदि नामों से पुकारते है | इन प्रतीकों में असीम आस्था , श्रद्धा  तथा कल्याण की कामना समाई हुई है | तभी तो पर्व – त्यौहारों , सांस्कृतिक समारोहो , मांगलिक कार्यो इत्यादि पर उक्त प्रतीक बनाए जाने की लोक – परम्परा और प्रचलन है |


अल्पना – अलंकरण अत्यधिक पुराना प्रतीत होता है,  क्योंकि पुरातत्वीय खोजो से जो सामग्री प्राप्त  हुई है , उस्दामे अद्भुत रेखांगन देखने को मिले है | विशेषज्ञों का इस बिषय में मत है कि ये रेखांकन , जो प्राय ; अल्पना में पाए जाते है, वे शिव के प्रतीक है तथा अर्धवृत का प्रयोग आदि  शक्ति के प्रतीक आदि  शक्ति प्रतीक है | इस प्रकार शिव शक्ति के प्रतीक रूप में अल्पना का अंकन हमारे देश के एक छोर से दुसरे छोर तक मांगलिक अवसरों पर अवश्य किया जाता है;जिसे विविध क्षत्रो में अल्पना,रंगोली,चौक पूरना, मांडना ,कोलम,कोडरा ,कुंडल आदि नामों से पुकारा जाता है |


विशेष अवसरो पर उकेरे जानेवाले ये मांगलिक प्रतीक कल्याण की कामना के द्योतक हैं | प्रत्येक घर में इनके बनाने,उकेरने का दायित्व प्रायः महिलाओं पर रहता है |इसकी महत्ता के मान में मान्यता है कि बिना इन अलंकरणो के घर कल्याणकारी, मंगलकारी नहीं प्रतीत होता | मांगलिक अवसरों पर घर में बनाएं जानेवाले चित्रांकन प्रायः कुँवारी कन्यायों अथवा स्त्रियों द्वारा किए जाते है ;जिसमें अल्पना,रंगोली,मांडने अपने-अपने क्षेत्रों के अनुसार उकेरे जाते है |प्रारम्भ में गाय के गोबर से उस स्थान को लिपा जाता है फिर सींक ,सलाई ,रुई ,ब्रश अथवा उंगली से सहारे अल्पना ,रंगोली ,लोक चित्रकारी अदि बनाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है तथा अवसर के अनुरूप लक्ष्मी,कमल का फुल,स्वस्तिक,चिड़ियाँ ,हाथी ,शेर ,मोर फूल आदि बड़ी श्रद्धा – भक्ति के साथ बनाए जाते है |यही नहीं वरन् गाँवों में तो जो लोकगीत इस अवसर पर गाए जाते है,उन्हें सुनकर श्रोता मुग्ध हो जाते है |चित्रांकनों एवं गीतों में लोकमंगल के इतने भाव भर दिए जाते है कि भारतीय संस्कृति मानो स्तोत्रवाहिनी के रूप मर प्रवाहित होने लगती है |


इनमें जो विविध आकृतियाँ उकेरी जाती है उनके प्रति असीम भक्ति –भावना का भाव उड़ेला जाता है , जिसे विशेष नजरो से ही परखा जा सकता है अल्पना आलेखन में नारी-ह्रदय की कोमल भावनाओं का जो भाव उड़ेला जाता है , उसकी उत्कृष्टता को आकना आसान नहीं है |शिव और शक्ति के समन्वय की कल्पना को में आड़ी – तिरछी रेखाओं और अर्ध्वृतों में साकार करने की परंपरा भी है | उत्तर भारत में ग्रामीण क्षेत्रो में, जहाँ पाश्चात्य प्रभाव नहीं पड़ पाया है ,वहाँ चौक पुरने की प्रथा है ;जो अल्पना ,रंगोली आदि का रूप है |अनुष्ठान किये जानेवाले स्थान को पहले गाय के गोबर से लीपते हैं ,उसके बाद सूप में गेहूँ ,जौ ,चावल (जो सुलभ हो )का आटा लेकर बड़ी आकर्षक आकृति का चौक पूरा जाता है ;जिसमे उंगलियों के सहारे आड़ी – तिरछी रेखाओं से मांगलिक प्रतिक बनाए जाते हैं |

‘रामचरितमानस’ में इसका उल्लेख इस रूप में किया गया हैं


चौकें चारू सुमित्राँ पूरी |

मनिमय बिबिध भाँति अति रूरी ||


तथा लोकगीत में भी कहा गया हैं-

घर बीच चउक पूराइला ,देव बइठाइला हो |     


तात्पर्य यह कि घर में चौक पूर कर मांगलिक कार्य के शुभारंभ में देव-स्थापना करके सर्वांगीण कल्याण की कामना की जाती है |वास्तव में ग्रामीण-जीवन का भोलाभाला,सरल-सीधा निष्कलुस स्वरुप इन सबसे झलकता है कि कितनी निश्छल, निर्मल भावनाएँ इन विविध उपास्य प्रतीकों में उभारी जाती है ,उकेरी जाती हैं, उड़ेली जाती हैं; जिनका गुणगान करते-करते मन नहीं अघाता और देखते – देखते जी नहीं भरता |

शुभ लाभ का अर्थ क्या है

शुभ – लाभ का शाब्दिक अर्थ वही है जो आप सझते है | किन्तु दो बाते आपको सोचनी होगी | पहली यह कि सभी देवताओं से हम अपने शुभ – लाभ की प्रार्थना करते हाँ , परन्तु उनके साथ या उनके नाम के आगे – पीछे शुभ – लाभ क्यों नहीं लिखते | ब्रह्मा  जी हो या श्रीहरी , विष्णु हो या महादेव शंकर हो किसी के नाम या मन्त्र में हम शुभ – लाभ नहीं जोड़ते | यहां तक की लक्ष्मी जी जो ऐश्वर्य की देवी ही मानी जाती हैं | उनके नाम के साथ शुभ – लाभ नहीं जोड़ते | अतः गणेश जी के साथ शुभ – लाभ जोड़ने का विशेष कारण अवश्य होहोता है |


दूसरी बात यह कि प्रत्येक देवाधिदेव के साथ हम उनकी शक्ति , प्रिया अथवा भार्या यानी पत्नी का नाम उनके पूर्व या बाद में जोड़ते अवश्य हैं | परन्तु गणेश जी के नाम के साथ उनकी पत्नी का कही जुड़ा नहीं देखते | संभवतः आप में से अधिकांश लोग यह भी न जानते हो की पारवती नंदन श्रीगणेश की एक नहीं दो पत्नियां है | ब्राह्मण या पुरोहित गणपति कराते  समय प्रायः उच्चारण करते है , ‘ॐ सिद्धि बुद्धि सहिताय महागणाधिपतये नमः |’किन्तु उनमे से शायद ही कोई जानता हो की उक्त कथन का वास्तविक अर्थ क्या है | आप पूछेंगे तो बता देंगे की सिद्धि तथा बुद्धि को प्रदान करने वाले महागणेश को नमस्कार करता हूँ | यह पूर्ण अर्थ नहीं है और न हो सकता है |


वास्तव में श्रीगणेश की दो पत्नियां है और उनमे से एक का नाम सिद्धि और  दूसरी  का नाम बुद्धि है | इसीलिए सिद्धि बुद्धि सहिताय श्रीमन महागणाधिपतये  नमः कहा जाता है | परम पूज्या सिद्धि बुद्धि सहित श्रीमान्य महागणों के स्वामी विनायक या गणेश जी को नमस्कार है | अब तक आपने नहीं जाना तो अब आप जान लें श्रीगणेश जी की दो पत्नियां है और दोनों सगी बहनें है | उनमें से एक का नाम सिद्धि और दूसरी का नाम बुद्धि हैl अब शुभ – लाभ शब्दों को केवल गणेशजी के नाम के साथ ही क्यों प्रयुक्त किया जाता है यह भी समझ लें l श्री गणेशजी की दो पपत्नियां हैं तो उनके दो पुत्र भी है |एक का नाम क्षेम है और दुसरे का नाम लाभ है | क्षेम का ही नाम शुभ हुआ |वैसे भी क्षेम का अर्थ कुशलता ,रक्षा करना ,रक्षा होना ,शुभत्व है | वही गणेशजी के एक पुत्र का नाम क्षेम ही शुभ है और एक पुत्र लाभ है |


सारांश में शिव पुराण में वर्णित कथा के अनुसार जब गणेशजी को विवाह करनी की इच्छा हुई और उनके माता – पिता पार्वती – शंकरजी ने इस विषय पर गंभीरता से विचार किया तो प्रजापति विश्वरूप ने अपनी दिव्य स्वरुपा ,सर्वांग शोभना ,सिद्धि  तथा बुद्धि नामक दोनों कन्याओं से श्री गणेश जी का विवाह कर दिया गणेशजी की उन दोनों पत्नियों से एक – एक दिव्या पुत्र प्राप्त हुए |उनमे से सिद्धि नामक पत्नी से क्षेम पुत्र पैदा हुआ और बुद्धि नामक पत्नी से लाभ नामक पुत्र पैदा हुआ |ये दोनों पुत्र अत्यंत योग्य एवं सर्व सुख प्रदान करने वाले हुए | 


शुभ – लाभ या क्षेम-लाभ नामक इन बालकों को महाशक्ति स्वरूपा पार्वती जी का तथा देवाधिदेव महादेव शंकरजी का प्रेम ,स्नेह एवं आशीर्वाद तो प्राप्त ठ ही साथ की अपनी दोनों माताओं सिद्धि तथा बुद्धि का रूप सौंदर्य तथा गुण प्राप्त हुआ |पिता श्री गणेश रुद्रगणो में गणाध्यक्ष थे  और अत्यंत पराक्रमी ठे अतः उनकी शक्ति पराक्रम एवं वीरत्व भी प्राप्त होना स्वाभाविक  था |अतः ये दोनों क्षेम तथा लाभ नामक गणेश के पुत्र उन्हें परमप्रिय हैं| यही कारण है कि सिद्धि – बुद्धि संहिताय महागणाधिपतये नमः के साथ प्रत्येक शुभ अवसर पर दुकानों ,तिजोरियों ,बही-खातों आदि में शुभ – लाभ लिखा जाता है | इस  प्रकार उपरोक्त विवरण से आप समझ सकते है की शुभ-लाभ का आर्ट क्या होता है और इसका हमारे धर्म में कितना अधिक महत्व है | 

भाईदूज का महत्त्व

कार्तिक महीने की शुक्ल द्वितीया यम-द्वितीया कहलाती है | यही है हमारी भैया दूज|  इस पर्व का प्रमुख लक्ष्य भाई तथा बहन में पावन  सम्बन्ध तथा प्रेम भाव की स्थापना करना है ,इस दिन बहनें बेरी पूजा भी करती है और भाइयों के स्वस्थ तथा दीर्घायु होने की मंगल कामना करके उन्हें तिलक लगाती हैं | इस दिन बहन-भाइयों को तेल लगाकर गंगा-यमुना में स्नान करना चाहिए | यदि गंगा-यमुना में न नहाया जा सके तो भाई को बहन के घर नहाना चाहिए | भाई को भोजन करवा (खिला)कर,तिलक लगाना चाहिए | यदि बहन अपने हाथ से भाई को खाना खिलाएं ,तो भाई की उम्र बढ़ती है और जीवन के कष्ट दूर होते है |इस दिन बहनों को अपने भाइयों  को चावल खिलाना चाहिये | इस दिन बहन के घर भोजन करने का विशेष महत्व है,चचेरी,ममेरी अथवा धर्म की कोई भी बहन हो सकती है | यदि कोई भी बहन न हो तो गाय ,नदी आदि स्त्रीत्व पदार्थ का ध्यान करके अथवा उसके समीप बैठकर भोजन कर लेना भी शुभ माना गया है | इस दिन गोधन कूटने की प्रथा भी है | गोबर का मानव मूर्ति बनाकर छाती पर ईट रखकर स्त्रियां मूसलोंसे तोडती है |दोपहर के बाद बहन-भाई पूजा विधान से इस पर्व को प्रसन्नता से मनाते है | इस दिन यमराज जी के पूजन का विशेष ध्यान है |


कार्तिक मास की शुक्लपक्ष द्वितीया ‘यमद्वितीया’ या भैयादूज कहलाती है | इसे अपरान्ह्व्यापिनी ग्रहण करना चाहिये | इस दिन यमुना-स्नान,यम-पूजन और बहन के घर भाई का भोजन विहित है और शास्त्रीय मत के अनुसार मृत्युदेवता यमराज की पूजा होती है | आज के दिन व्रती बहनों को प्रातः स्नानादि के अनंतर अक्षतादी से निर्मित अष्टदल कमल पर गणेशादि का स्थापना करके यम ,यमुना,चित्रगुप्त तथा यमदूतों के पूजन के अनंतर निम्न मंत्र से यमराज की प्रार्थना करनी चाहिए :-


धर्मराज नमस्तुभ्यं समस्ते यमुनाग्रजे | पाहि मां  किन्करैः सार्धं  सुर्यपुत्र नमोऽस्तु  ते ||

यमस्वसर्नमस्तेऽस्तु यमुने लोकपूजिते | वरदा भव में नित्यं सूर्यपुत्रि नमोऽस्तु ते || 


निम्न मन्त्र से चित्रगुप्त की प्रार्थना करनी चाहिए –


मसिभाजनसंयुक्तं ध्यायेत्तं च महाबलम् |

लेखनीपट्टिकाहस्तं चित्रगुप्तं   नामामयहम् ||


इसके बाद शंख ,ताम्रपात्र या अंजलि में जल ,पुष्प और गंधाक्षत लेकर यमराज के निमित्त निम्न मन्त्र से अर्घ्य दें –

एह्येहि मार्तण्डज पाशहस्त यमान्तकालोकधरामरेश | भ्रात्रिद्वितीयाकृतदेवपूजां  गृहाण चार्घ्यां भगवन्नमस्ते||


तत्पश्चात बहन को चाहिये कि वह भाई को अन्न-वस्त्र-आभूषणादी देकर उसका शुभाशीष प्राप्त करें | इस व्रत से भाई की आयु वृद्धि और बहन को सौभाग्य शुख की प्राप्ति होती है | भारतीय संस्कृति में बहन दाया की मूर्ति मानी  गयी है | अतः शुभार्शिर्वादपूर्वक उसके हाथ से भोजन करना आयुवर्धक तथा आरोग्यकारक है | शुद्ध प्रेम के प्रतीक इस उत्सव को बड़े प्रेम से मनाना चाहिये | पौराणिक आख्यान के अनुसार इस दिन भगवान यम अपनी बहिन यमुना के यहाँ मिलने जाया करते है और उन्हीं के अनुकरण पर इस दिन जो लोग अपनी बहिनों से मिलते ,उनका यथेष्ट सम्मान पूजनादि करके उनसे आशीर्वाद रूप तिलक प्राप्त करते है उन्हें इस दिन मृत्यु भय नहीं रहता | इस कथा के अनेकों भाव में एक भाव यह है कि यद्यपि धर्मशास्त्र विधानानुसार कन्या पितृ-सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी नहीं है तथापि उसे पितृकुल की ओर से अनाधिकृत रूप में देय भगांश अवश्य प्राप्त हो इसके लिये ऐसे अनेक पर्व उत्सवादि का विधान ,शास्त्रों में किया है जिन पर लडकियों को पितृकुल की और से यथेष्ट सम्मान एवं धनदाय मिले| भैयादूज भी एक ऐसा ही पर्व है | इस अवसरपर पर भाई अपनी बहिनों के यहाँ उनकी पारिवारिक स्थिति का परिचय प्राप्त करते है , उनके सुख-दुःख की पूछते और अपनी कहते है | अपनी सामर्थ्यानुसार वे उसे भेंट देकर अपने भ्रात्रि-स्नेह को दृढ करते है | यह दृढ पारिवारिक संगठन ही भारतीय – कुटुम्ब प्रणाली की जान है |


भैया दूज कथा  - सूर्य भगवान की स्त्री का नाम संज्ञादेवी था | इनकी दो संतानें , पुत्र यमराज तथा कन्या यमुना थी | संज्ञादेवी पति सूर्य की उद्दीप्त किरणों को न सह सकने के कारण उत्तरी ध्रुव प्रदेश में छाया बनकर रहने लगी | उसी छाया में ताप्ती नदी तथा शनिश्चर का जन्म हुआ | उसी छाया से अश्वनी कुमारों का भी जन्म बताया जाता है , जो देवतओं के वैद्य (भैषज )माने जाते हैं |


इधर छाया का यम तथा यमुना से विमाता-स व्यवहार होने लगा | इससे खिन्न होकर यम ने अपनी एक नई नगरी यमपुरी बसायी,यमपुरी में पापियों को दण्ड का काम सम्पादित करते भाई को देखकर यमुना जी गौ लोक चली गयी | बहुत समय व्यतीत हो जाने पर एक दिन सहसा यम को अपनी बहन की याद आयी,उन्होंने दूतों को भेजकर यमुना की बहुत खोज करवाई ,मगर वह न मिल सकी ,फिर स्वयं ही गौ लोक गये ,जहां विश्राम घाट पर यमुना जी से भेट हुई- भाई को देखते ही यमुना जी ने हर्षविभोर हो स्वागत सत्कार के साथ भोजन करवाया | इससे प्रसन्न हो यम ने वर मांगने को कहा l यमुना ने कहा –‘हे भैया!मै  आपसे यह वरदान मांगना चाहती हूं कि मेरे जल में स्नान  करने वाले नर-नारी यमपुरी न जाएं’ |


वर  बड़ा कठिन  था , यम  के  ऐसा वर देने  से यमपुरी का अस्तित्व  ही समाप्त हो जाता अतः भाई को असमंजस में देखकर यमुना बोली –‘आप चिन्ता न करें मुझे यह वरदान दे ,जो लोग आज के दिन बहन के यहां भोजन करके इस मथुरा नगर स्थित विश्राम घाट पर स्नान करेंगे ,वह तुम्हारे लोक न जायेंगे | इसे यमराज ने स्वीकार कर लिया | इस तिथि को जो सज्जन बहन के घर भोजन नहीं करेंगे उन्हें मैं बांधकर यमपुरी को ले जाऊंगा और तुम्हारे जल में स्नान करनेवालों को स्वर्ग प्राप्त होगा | तभी से यह त्यौंहार मनाया जाता है |

हिन्दुओं का महान्पर्व डालाछठ

छठ पूजा जिसे डाला छठ व ‘सूर्यषष्ठी’ भी कहते हैं एक भारतीय हिन्दू त्यौहार हैं जो विशेषतः समस्त बिहार, तराई नेपाल,उत्तर-पूर्व भारत में ,मध्य प्रदेश में तथा छतीसगढ़ के कुछ हिस्सों में बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता हैं | इस व्रत का सर्वाधिक प्रचार बिहार राज्य में दिखायी पड़ता है | संभव है,इसका आरम्भ भी यहीं से हुआ हो और अब तो बिहार के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी इसका व्यापक प्रसार हो गया है | इस व्रत को सभी लोग अत्यंत भक्ति-भाव, श्रद्धा एवं उल्लास से मनाते हैं | सूर्याघ्र्य बाद व्रतियों के पैर छूने और उनके गीले वस्त्र धोने वालों में प्रतिस्पर्धा की भावना देखते ही बनती है | इस व्रत का प्रसाद मांगकर खाने का विधान है | सूर्यषष्टि व्रत के प्रसाद में ऋतु-फल जिसमे विशेषकर गन्ना जरूर होना चाहिए के अतिरक्त आटे और गुड़ से शुद्ध घी में बने ‘ठेकुआ’का होना अनिवार्य है, ठेकुआ पर लकड़ी के सांचे से सूर्य भगवान के रथ का चक्र भी अंकित करना आवश्यक मन जाता है | षष्ठी के दिन समीपस्थ किसी पवित्र नदी या जलाशय के तट पर मध्यान्ह से ही भीड़ एकत्र होने लगती है | सभी व्रती महिलाएं नवीन वस्त्र एवं आभूषणादिकों से सुसज्जित होकर फल,मिष्ठान्न और पकवानों से भरे हुए नये बांस से निर्मित सूप और दौरी (डलिया)लेकर षष्टिमाता और भगवान सूर्य के लोकगीत गाती हुई अपने-अपने घरों से निकलती है | भगवान् के अर्घ्य का सूप और डलिया ढोने का भी महत्व है | यह कार्य पति ,पुत्र का घर का कोई पुरुष सदस्य ही करता है | घर से घाट तक लोकगीतों का क्रम चलता ही रहता है और यह क्रम तब तक चलता है जब तक भगवान् भास्कर सायंकालीन अर्घ्य स्वीकार कर अस्ताचल को नचले जायें | सुपों और डलियों पर जगमगाते हुए घी के दीपक गंगा के तट पर बहुत ही आकर्षक लगते हैं | पुनः ब्रह्ममुहूर्त में ही नूतन अर्घ्य सामग्री के साथ सभी व्रती जल में खड़े होकर हाथ जोड़े हुए भगवन भास्कर के उदयाचलारुढ़होने की प्रतीक्षा करते है | जैसे ही क्षितिज पर अरुणिमा दिखायी देती है वैसे ही मन्त्रों के साथ भगवान् सविता को अर्घ्य समर्पित किये जाते हैं | यह व्रत विसर्जन,ब्राह्मण-दक्षिणा एवं पारणा के पश्चात पूर्ण होता है |


सूर्यषष्ठी-व्रत के अवसर पर सायंकालीन प्रथम अर्घ्य से पूर्व मिट्टी की प्रतिमा बनाकर षष्ठीदेवी का आवाहन् एवं पूजन करते हैं | पुनः प्रातः अर्घ्य के पूर्व षष्ठीदेवी का पूजन कर विसर्जन कर देते हैं | मान्यता है कि पंचमी के सायंकाल से ही घर में भगवती षष्ठी का आगमन हो जाता है | इस प्रकार भगवान् सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति और ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक साथ प्राप्त होता है | इसलिये लोक में यह पर्व ‘सूर्यषष्ठी’के नाम से विख्यात है |


छठ पूजा प्रमुख रूप से भगवान् सूर्य का व्रत है | इस व्रत में सर्वतोभावेन भगवान् सूर्य की पूजा की जाती है सूर्य देव प्रत्यक्ष देव है ,प्रकृति के कण-कण में प्राण का वास उनकी किरणों के द्वारा ही होता हैं | ऋग्वेद,सामवेद व अथ्र्ववेद में सूर्य देव की महिमा का विस्तार से वर्णन हैं | पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में विभिन्न रूपों में इश्वर की उपासना के लिये प्रायः पृथक्-पृथक् दिन एवं तिथियों का निर्धारण किया गया है | जैसे गणेश की पूजा के लिए चतुर्थी तिथि प्रसिद्ध है | श्रीविष्णु के लिए एकादशी तिथि प्रसस्त मानी गयी है | इस प्रकार सूर्य के साथ सप्तमी तिथि संगति है | यथा-सूर्यसप्तमी, रथसप्तमी, अच्लासप्त्मी इत्यादि | किन्तु बिहार के इस प्रान्त में सूर्य के साथ षष्ठी तिथि का समन्वय विशेष महत्व का है | हमारी परम्परा की जड़े बहुत गहरी है |अतः जितनी भी भारतीय परम्पराएं प्रचलित है ,प्रायः उन सभी का मूल स्रोत कहीं-न-कहीं पौराणिक कथाओं में अवश्य उपलब्ध होता हैं  श्वेताश्वेतरोपनिषद् में परमात्मा की माया को ‘प्रकृति’और माया के स्वामी को ‘मायी’कहा गया है | यह प्रकृति ब्रह्मस्वरूपा,मायामयी और सनातनी है | ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृति खण्ड के अनुसार परमात्मा ने सृष्टि के लिये योग का अवलंबन लेकर अपने को दो भागों में विभाक्त किया | दक्षिण भाग से पुरुष और वाम भाग से प्रकृति का आविर्भाव हुआ | यहां ‘प्रकृति’ शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की गयी है \ प्रकृति के ‘प्र’का अर्थ है प्रकृष्ट और ‘कृति’ का अर्थ है सृष्टि अर्थात् प्रकृष्ट सृष्टि | दूसरी व्याख्या के अनुसार ‘प्र’का सत्त्वगुण,’कृ’ का रजोगुण और ‘ति’ का तमोगुण अर्थ किया गया है | इन्हीं तीनों गुणों की साम्यावस्था की प्रकृति है |


त्रिगुणात्मस्वरुपा या सर्वक्तसमन्विता |

प्रधानसृष्टिकरणे प्रकृतिस्तेन कथ्यते ||

(ब्रह्मवैवर्तपुराण,प्रकृतिखण्ड १|६)


उपर्युक्त पुराण के अनुसार सृष्टि की अधिष्ठात्री ये ही प्रकृति देवी स्वयं को पांच भागों में विभक्त करती है –दुर्गा ,राधा ,लक्ष्मी,सरस्वती और सावित्री | ये पांच देवियां पूर्णतम प्रकृति कहलाती है | इन्हीं प्रकृति देवी के अंश,कला,कलांश कलाशांश भेद से अनेक रूप हैं ,जो विश्व की समस्त स्त्रियों में दिखायी देते हैं | मार्कण्डेय पूरण का भी यही उद्घोष है –‘स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु |’ प्रकृति देवी के एक प्रधान अंश को ‘देवसेना’ कहते हैं ,जो सबसे श्रेष्ठ मातृका मानी जाती है | ये समस्त लोकों के बालकों की रक्षिका देवी है | प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक नाम ‘षष्ठी’ भी है |


षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्ठी प्रकीर्तिता |

बालकाधिष्ठातृदेवी विष्णुमाया च बालदा ||

आयुःप्रदा च बालानं धात्री रक्षणकारिणी |

सततं शिशुपार्श्वस्थ योगेन सिद्धियोगिनी ||

(ब्रह्मवैवर्तपुराण,प्रकृतिखण्ड ४३|४,६)


ब्रह्मवैवर्तपुराण के इन श्लोकों से ज्ञात होता है कि विष्णुमाया षष्ठी देवी बालकों की रक्षिका एवं आयुप्रदा है | षष्ठी देवी के पूजा का प्रचार पृथ्वी पर कब से हुआ ,इस सन्दर्भ में एक कथा इस पुराण में आयी है –प्रथम मनु स्वायम्भुव के पुत्र प्रियव्रत को कोई संतान न थी | एक बार महाराज ने महर्षि कश्यप से अपना दुःख व्यक्त किया और पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा | महर्षि ने महाराज को पुत्रेष्टियज्ञ करने का परामर्श दिया | यज्ञ के फलस्वरूप महाराज की मालिनी नामक महारानी ने यथावसर एक पुत्र को जन्म दिया ,किन्तु वह शिशु मृत था | महारानी को मृत-प्रसव हुआ है ,इस समचार से हर्ष का स्थान अवसाद ने ले लिया | पुरे नगर में शोक व्याप्त हो गया | महाराज प्रियव्रत के ऊपर तो मानो वज्रपात ही हुआ हो | वे शिशु के मृत शरीर को अपने वक्ष से लगाए उन्मत्तों का भातिं प्रलाप कर रहे थे | परिजन कींकर्तव्यविमूढ़ खड़े ठे |किसी में इतना भी साहस नहीं था कि वह और्ध्वदैहिक क्रिया के लिए बालक के शव को रजा से अलग कर सके |तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी |सभी ने देखा कि आकाश से एक ज्योतिर्मय विमान पृथ्वी की ओर आ रहा है |विमान के समीप आने पर स्थिति और स्पष्ट हुई,उस विमान में एक दिव्यकृति नारी बैठी हुई थी |राजा के द्वारा यथोचित स्तुति करने पर देवी ने कहा –मै ब्रह्मा की मानस पुत्री षष्ठी देवी हूं |मैं विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूं एवं अपुत्रों को पुत्र प्रदान करती हूं –‘पुत्रदाऽहम् अपुत्राय |’ इतना कहकर देवी ने शिशु के मृत शरीर को स्पर्श किया, जिससे वह बालक जीवित हो उठा |महाराज के प्रसन्नता की सीमा न रही |वे अनेक प्रकार से षष्ठीदेवी की स्तुति करने लगे|देवी ने भी प्रसन्न होकर राजा से कहा – तुम मेरी व्यवस्था करो,जिससे पृथ्वी पर सभी हमारी पूजा करें |इतना कहकर देवी अंतर्धान हो गयी | तदन्तर राजा ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक देवी की इस आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने राज्य में ‘प्रतिमास के शुक्ल पक्ष की ‘षष्ठी’ तिथि को षष्ठी-महोत्सव के  रूप में मनाया जाय’-ऐसी राजाज्ञा प्रसारित करायी |तभी से लोक में बालकों के जन्म ,नामकरण ,अन्नप्रासन आदि सभी शुभ अवसरों पर षष्ठी पूजन प्रचलित हुआ | इनके नैवेद्य में मीठे चावल का होना अनिवार्य है | आज भी शिशु के जन्म से छठे दिन षष्ठी – पूजन (छठी)बड़े धूमधाम से लोकगीत (सोहर),वाद्य तथा पकवानों के साथ मानाने का प्रचलन है | प्रसूता को प्रथम स्नान भी इसी दिन कराने की परम्परा है | इस पौराणिक प्रसंग से यह पूर्णतया स्पष्ट होता है की षष्ठी शिशुओं के संरक्षण एवं संवर्धन से सम्बंधित देवी है तथा इनको विशेष पूजा षष्ठी तिथि को होती है ,वह चाहे बच्चों के जन्मोपरांत छठा दिन हो या प्रत्येक चान्द्रमास के शुक्लपक्ष की षष्ठी | पुराणों में इन्हीं देवी का एक नाम ‘कात्यायनीति च |’  


ब्रह्मवैवर्तपुराण में वर्णित इस आख्यान से षष्ठी देवी का महात्म्य, पूजन विधि  एवं  पृथ्वी पर इसकी पूजा का प्रसार आदि विषयों का सम्यक् ज्ञान होता है, किंतु सूर्य के साथ षष्ठी देवी के पूजन का विधान तथा ‘सूर्यषष्ठी’ के नाम से पर्व के रूप में इसकी ख्याति कब से हुई ?यह विचारणीय है विषय है |भविष्यपुराण में प्रतिमास के तिथि – व्रतों के साथ षष्ठीव्रत का भी उल्लेख मिलता है |यहां कार्तिकमास के शुक्लपक्ष की षष्ठी का उल्लेख स्कन्द-षष्ठी के नाम से किया गया है किन्तु इस व्रत के विधान में और लोक में प्रचलित सूर्यषष्ठी व्रत के विधान में पर्याप्त अंतर है |मैथिल ‘वर्षक्रित्याविधि’ में प्रतिहार-षष्ठी के नाम से मिथिला में प्रसिद्ध ‘सूर्यषष्ठी’ व्रत की चर्चा की गए है इस ग्रन्थ में व्रत पूजा की पूरी विधि,कथा तथा फलश्रुति के साथ ही तिथियों के क्षय एवं वृद्धि की दशा में कौनसी षष्ठी तिथि ग्राह्य है इस विषय पर भी धर्म शास्त्रीय दृष्टी से सांगोपांग चर्चा की गयी है और अनेक प्रमाणिक स्मृति ग्रंथो से पुष्कल प्रमाण भी दिए गए है सम्प्रति इसी व्रत के अवसर पर लोक में जिन परंपरागत नियमों का अनुपालन किया जाता है उनमे इसी ग्रन्थ सर्वथा अनुसरण दृष्टिगत हटो है कथा के अंतर में ‘इतिश्रीस्कंदपुराणोक्तप्रतिहारषष्ठीव्रतकथासमाप्ता’ लिखा है | इससे ज्ञात होता है की ‘स्कन्दपुराण’ के किसी संस्करण में इस व्रत का उल्लेख अवश्य प्रतीत होता है | अतः इस व्रत की प्राचीनता एवं प्रमाणिकता भी परिलक्षित होता है |प्रतिहार का अर्थ-जादू या चमत्कार होता है अर्थात चमत्कारिक रूप से अभिष्टों को प्रदान करने वाला व्रत |


इस ग्रन्थ में षष्ठी व्रत की कथाओंकी तरह ही वर्णित है |यहां भी नैमिशारण्य में शौन्कादी मुनियों के पूछने पर श्री सूत जी लोक कल्याणार्थ सूर्यषष्ठी व्रत का महात्म्य, विधि तथा कथा का उदेश्य करते है |यहाँ उक्त कथा के अनुसार एक राजा है ,जो कुष्ठरोग्ग्रस्त एवं राज्य विहीन है,वे किसी विद्वान् ब्राह्मण के आदेशानुसार इस व्रत को करते है ,जिसके फलस्वरुप वे रोग मुक्त होकर पुनः राज्यारुढ़ एवं समृद्ध हो जाते हैं | पंचमी युक्त षष्ठी का यहां सर्वथा निषेध किया गया है |यथा स्कन्द –‘पुराण में- नागविद्धा कर्तव्या षष्ठी चैव कदाचन’ इसके प्रमाण स्वरुप राजा सगर की कथा का भी उल्लेख किया गया है | सगर ने एक बार पंचमी युक्त सूर्यषष्ठी व्रत को किया था ,जिसके फलस्वरूप कपिलमुनि के शाप से उनके सभी पुत्रों का विनाश हो गया | उक्त दृष्टान्त से इस व्रत की प्राचीनता भी द्योतित होती है |व्रत की विधि में बताया गया है की कार्तिकमास के शुक्ल पक्ष में सात्विक रूप से रहना चाहिए | पंचमी को एक भुत करे |कम बोले षष्ठी को निराहार रहे | तथा फल-पुष्प,घी का पकवान नैवेद्य,धुप,दीप,आदि सामग्री को लेकर नदी तट पर जाए और गीत-वाद्य अदि से हर्षोल्लास पूर्वक महोत्सव मनायें |भगवान् सूर्य का पूजन कर भक्ति पूर्वक उन्हें रक्त चन्दन तथा रक्त पुष्प ,अक्षत युक्त अर्घ्य निवेदित करें :-   


कार्तिके शुक्लपक्षे तु निरामिषपरो भवेत् |

पंचम्यामेकभोजी स्याद् वाक्यं दुष्टं परित्यजेत् ||

षष्ठयां चैव निराहारः फलपुष्पसमन्वितः |

सरित्तटं समासाद्य गंधदिपैर्मनोहरैः ||

धुपैर्नानाविधैर्दिव्यैर्नैवैद्यैर्घृतपाचितेः|

गीतवाद्यादिभिश्चैव महोत्सवसमंवितैः||

समभ्यर्च्य रविं भक्त्या दद्यादर्घ्य विवस्वते |

रक्तचन्दनसम्मिश्रं रक्तपुष्पाक्षतान्वितम् ||


सांसारिक जनों की तीन एषणाएं प्रसिद्ध हैं- पुत्रैषणा,वित्तैषणा तथा लोकैषणा | भगवान् सविता प्रत्यक्ष देवता है,वे समस्त अभिष्टों को प्रदान करने में समर्थ हैं –‘किं किं न सविता सूते|’ समस्त कामनाओं की पूर्ति तो भगवान् सविता से हो जाती है ,किन्तु वात्सल्य का महत्व माता से आधिक और कौन जान सकता है ?परब्रह्मा की शक्तिस्वरूपा प्रकृति और उन्हीं के प्रमुख अंश से आविर्भूता देवी षष्ठी ,संतति प्रदान करने के लिये ही मुख्यता अधिकृत है |अतः पुत्र की कामना भगवती षष्ठी से करना आधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है | सविता और षष्ठी दोनों की एक साथ उपासना से अनेक वांछित फलों को प्रदान करने वाला यह सूर्यषष्ठी व्रत वास्तव में बहुत महत्त्वपूर्ण है |


सूर्य भगवान् की पूजा जीवन के दुखों को दूर करने तथा विशेषः कोढ़ तथा सफ़ेद दाग जैसी बीमारियों से मुक्ति के लिए तथा पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता है | माता कुन्ती ने सूर्य भगवान् के आशीर्वाद से ही कर्ण जैसा दानी – प्रतापी पुत्र प्राप्त किया था | सूर्य भगवान् की पूजा आराधना सृष्टि के आरम्भ से ही की जा रही है इस का प्रमाण हैं हमारे भारत वर्ष में सूर्य भगवन के मंदिर जो मुल्तान, कश्मीर, चितौर, मोधरा, कोणार्क तथा बड़गाव नालंदा में है | प्राचीन काल से लेकर आज भी प्रातः सूर्य नमस्कार का योग में विशेष स्थान हैं |१२ मंत्रों के उच्चारण द्वारा सूर्य नमस्कार किया जाता है जो इस प्रकार है :

  • १) ॐ मित्राय नमः २) ॐ रवये नमः ३) ॐ सूर्याय नमः ४) ॐ भानवे नमः ५) ॐ खगये नमः ६) ॐ पुष्ने नमः  ७) ॐ हिरण्यगर्भाय नमः ८) ॐ मारिचाये नमः ९) ॐ आदित्याय नमः १०) ॐ सवित्रे नमः ११) ॐ आर्काय नमः १२) ॐ भास्कराय नमः

इन सब के अलावा गायत्री मंत्र का संबंध भी सूर्य से हैं | रावण से युद्ध को जाने से पहले अगस्त ऋषि द्वारा राम को आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करवाना सूर्य देव की महत्ता को बताता हैं | 


छठ पूजा साल में दो बार मनाया जाता है | पहला गर्मियों में मार्च-अप्रैल के महीने में जिसे चैती छठ बोलते हैं तथा दूसरा अक्टूबर-नवम्बर में दीपावली के बाद के हफ्ते में जिसे कार्तिक छठ बोलते हैं आम तौर पर यह दुसरे वाला ही ज्यादा प्रसिद्ध हैं | विशेषतः यह एक मैथिलि हिन्दू त्यौहार हैं | यह तीन दिन का त्यौहार त्यौहार है पहले दिन व्रत रखा जाता हैं जिसमें रात्रि में गुड़ की खीर तथा रोटी खायी जाती है | सारे दिन निराहार रहा जाता हैं पानी तक नहीं पी सकते | रात्रि में प्रसाद ग्रहण करने के बाद से लेकर अगला पुरा दिन पुरी रात के बाद सुबह भोर में उगते हुए सूर्य भगवान् को दूसरी बार अर्घ्य देने के बाद प्रसाद ग्रहण किया जाता है |यह बहुत ही कठिन व्रत हैं |


पहला दिन व्रत का, जिसमे शाम को गुड़ की खीर का प्रसाद रोटी के साथ फिर अगले दिन शाम को गंगा जी के घाट पर या जो जहाँ हैं वही नदी ,तलब,झील आदि स्थानों पर परिवार संग इक्कठे हो अस्त होते सूर्य देव जी को पहला अर्घ्य दिया जाता है | अर्घ्य देने के बाद घर आकर विशेष परंपरागत पूजा की जाती है| जिसमे जिसने जैसी मन्नत मांगी हो उस प्रकार से पूजा की जाती है | पूजा में मिट्टी के बड़े ढ़कने में चावल के आटे वह गेहुँ के आटे से बने पकवानों द्वारा वह सिजनल फलों द्वारा भर कर उसके ऊपर दिए जलाये जाते हैं तथा फिर परम्परागत छठ माता के गीत गए जाते हैं ,बहुत से लोग शाम को अर्घ्य देने के बाद से लेकर सुबह निकलने तक उगते सूर्य देव को अर्घ्य देने तक पानी में ही हाथ जोड़े खड़े रहते हैं | सुबह का अर्घ्य देने के बाद तथा छठी माता का प्रसाद ग्रहण करने के बाद व्रत का समापन होता हैं |


सूर्य भगवान का व्रत होने की वजह से इसमें शुद्धता का अति विशेष ध्यान रखा जाता हैं | इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की कार्तिक मास शुरू होते ही इस व्रत को करने वाले तथा उनके परिवार के लोग सात्विकता विशेष ध्यान रखते हैं |

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