समग्र संसारके अविरल प्रवाहको प्रवाहित करनेवाले निःशेष ज्ञानके आदि स्तोत्ररुपी वेदपुरुषके विशालकाय शरीरमें ‘वेदचक्षुः किलेदं स्मृतं ज्यौतिषम्’ (सिद्धान्तशिरोमणि, काल० ११) इत्यादि वाक्योंके द्वारा नेत्ररुपमें ज्योतिषशास्त्र परिलक्षित है | सामान्य परिभाषाके अनुसार ज्योतिषशास्त्रको ग्रह – नक्षत्रोंकी गति ,स्थिति एवं फलसे सम्बन्धित शास्त्र कहा जाता है ,जैसा कि नरिशिंगदैवज्ञने भी कहा है |
‘ज्योतींषि ग्रहनक्षत्राण्यधिकृत्य कृतो ग्रन्थो ज्योतिषम् |’
ग्रह-नक्षत्रोंके द्वारा हमें कालका ज्ञान होता है एवं इस चराचर जगत् में सबसे अधिक साश्वत एवं गतिशील वास्तु काल ही है | इसीके अंतर्गत संसारके सभी क्रियाकलाप कार्यान्वित होते है | कालके अनुसार ही प्राणिमात्रका जन्म एवं कालानुरोधेन ही अन्त होता है ,जैसा कि वर्णन भी प्राप्त है – ‘कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः |’ हमारी भारतीय संस्कृतिमें वेदविहित यज्ञादि शुभ कर्योंकी समग्र व्यवस्था वेदांग शास्त्रोंके माध्यमसे सम्पादित होती है, जिसमें यज्ञादि कर्योंकी सफलता शुभ कालाधीन तथा शुभ कालज्ञानकी व्यवस्था ज्योतिषशास्त्राधीन होनेसे ही इसे वेदपुरुषके नेत्ररुपमें प्रतिष्ठित किया गया है
वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः |
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् ||
अतः ज्योतिषशास्त्र की सार्वभौम उपयोगिता तथा महत्ता स्वयं ही सिद्ध होती है | वर्तमान विज्ञानके गणित आदि प्रायः सभी विषय बिजस्वरूप ज्योतिषशास्त्रमें अन्तर्निहित हैं | भारतीय परम्पराके अनुसार इस प्राचीन विज्ञानिकशास्त्रकी उत्पत्ति ब्रह्माजीके द्वारा हुई है | ऐसा माना जाता है कि ब्रह्माजीने सर्वप्रथम नारदजी को ज्योतिषशास्त्रका ज्ञान प्रदान किया तथा नारदजी ने इस लोकमें ज्योतिषशास्त्र का प्रचार-प्रसार किया | मतान्तरसे ऐसा भी स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है कि इस शास्त्र का ज्ञान भगवान् सुर्यने मयासुरको प्रदान किया | आचार्य कश्यप अष्टादस आचार्योंको ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तक मानते हैं –
सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः
कश्यपो नारदो गर्गो मरिचिर्मनुरंगिराः |
रोमशः पौलिशाश्चैव च्यवानो यवनो भृगुः
शौनेको ऽअष्टदशाश्चैते ज्योतिः शास्त्रप्रवर्तकाः ||
ज्योतिषशास्त्रके भेद – ज्योतिषशास्त्रके सिद्धांत – संहिता –होरारुपी तीन विभाग प्राचीनकालसे आचार्योंने उपस्थापित किये है | वराहमिहिरने ‘ज्योतिषशास्त्रमनेकभेदविषयं स्कन्धत्रयाधिष्ठितम् ’ कहते हुए स्कन्दत्रयात्मक ज्योतिषशास्त्रको अनेक भेदों से युक्त माना है | कुछ आचार्योंने केरलि एवं शकुनका पृथक ग्रहन करते हुए इस शास्त्रको पंचस्कंधात्मक माना है |
पञ्चस्कंधमिदं शास्त्रं होरागणित संहिताः |
केरलिः शकुनश्चैव ज्योतिः शास्त्रमुदीरितम् ||
परन्तु केरलि एवं शकुंका भी होरा एवं संहिता स्कन्ध के अंतर्गत ही सन्निवेश होनेके कारण मुख्यतया उसके तीन ही विभाग परंपरा में प्राप्त होते है | इसके अतिरिक्त विषय-विभाजन की दृष्टि से कुछ आचार्यों ने इसके छः अंगो की भी चर्चा की है ,परन्तु वस्तुतः सिद्धांत,संहिता, होरा स्कन्द के अंतर्गत ही ज्योतिष के सभी विषय समाहित होता है अतः प्राचीन काल से लेकर अवर्चिन काल आचार्योंने ज्योतिष के तीन स्कन्धों को ही परिगणित किया है |
१)सिद्धांत स्कन्द
त्रुट्यादिप्रलयांतकालगणना मानप्रभेदः क्रमाच्चा रश्च द्युषदां द्विधा च गणितं प्रशनास्तथा सोत्तराः |
भूधिष्ण्यग्रहसंस्थितैश्च कथनं यन्त्रादि यत्रोच्यते सिद्धान्तः स उदाह्रितोऽत्र गणितस्कन्दप्रबन्धे बुधैः ||
अर्थात् ज्योतिषशास्त्रके जिस स्कन्ध के अंतर्गत सुक्ष्मतमसे महत्तमकालकी गणना तथा मानोंके भेद, ग्रहों के चार द्विबिध गणित (व्यक्त एवं अव्यक्त),ग्राहर्क्षोसे सम्बन्धित सभी प्रश्नों के उत्तर ,ग्रह-नक्षत्रों की गति –स्थिति एवं यन्त्र परिचय आदि वर्णित हो ,उसे सिद्धांत स्कन्द कहते है | इसके अतरिक्त सिद्धांत स्कंधोमे प्रमेय-विवरण,सृष्टिविचार , खगोल एवं भूगोल –विषयक चिंतन ,ग्रह –नक्षत्रों के वेध-यंत्रो के विज्ञान का विचार , ग्रहण-विचार दिग्देश कालगणना इत्यादि विषयो का सैद्धांतिक एवं गणितीय विचार किया जाता है | सिद्धांत स्कन्द को गणित स्कन्दो के नामसे भी जाना जाता है | सूक्ष्म विभाजनिक दृष्टि से गणित स्कन्धो के भी पुनः तीन विभाग मने जाते है ,जो सिद्धांत, तंत्र एवं करानरूपमे प्रतिशित है |सिद्धांतभागमे ग्रह गणित गणना कल्पारम्भ काल से ,तंत्र भाग में युग आरम्भ काल से एवं कारण विभाग में अभिष्ट शकसे की जाती है |
सिद्धान्त स्कंध के प्रसिद्ध ग्रन्थ – सूर्यसिद्धांत , सिद्धांतशिरोमणि , सिद्धांततत्त्वविवेक , पंचसिद्धान्तिका, सिद्धांतशेखर एवं आर्यभटियम् इत्यादि है |
(२) संहिता स्कंध
संहिता स्कंधमें ग्रह-नक्षत्रों के द्वारा भूपृष्ठपर पड़नेवाले सामूहिक प्रभाव का विवेचन किया जाता है |इस स्कंधको भौतिक एवं वैश्विक ज्योतिष भी कहा जाता है |संहिता स्कंधके विषयमें वराहमिहिरने लिखा है –
ज्योतिषशास्त्रमनेकभेदविषयं स्कन्धत्रयाधिष्ठितम् |
तत्कात्स्न्योपनयनस्य नाम मुनिभिः संकिर्त्यते संहिता ||
वस्तुतः सिध्दान्त और होरा स्कन्धोंका संक्षेपमें समवेत विवेचन ही संहीता है | संहीता स्कन्धमें ग्रहोंकी गति ,ग्रहयुती ,मेघलक्षण ,वृष्टि –विचार, उल्का –विचार , भूकम्प –विचार , जलशोधन , विभिन्न शकुनोंका विचार , वास्तुविद्या तथा ग्रहणादिका समस्त चराचर जगत्पर पड़नेवाला सामूहिक प्रभाव इत्यादिका विचार किया जाता है | संहिताके विषयोंको भी तीन प्रकारसे विभाजित किया जा सकता है , यथा –[१ ] पंचांगविषयक , [२] राष्ट्रविषयक , [३ ] व्यक्तिविषयक |
[क] पंचांगविषयक – तिथी – वार – नक्षत्र – करण – योगके द्वारा समष्टिगत चिन्तन पंचांगविषयक संहिताके विषय होते हैं | इसके अंन्तर्गत मुहूर्त आदिका विधाक होते है |
[ख ] राष्ट्रविषयक –प्राकृतिक उत्पात – भूकम्प वर्षा इत्यादि विषयोंका चीन्तन राष्ट्रविषयक संहिता विभागमें होता है |
व्यक्तिविषयक - यात्रा –शकुन ,स्त्री –पुरुष लक्षणका चीन्तन आदिके विषय इस विभाग में होते है |
संहिता स्कन्धके प्रमुख ग्रन्थ –गर्गसंहिता, वसिष्ठसंहिता , नारदसंहिता आदि आर्षग्रन्थ तथा बृहत्संहिता, अद्भुत्सागर इत्यादि पौरुष ग्रन्थ हैं | आचार्य वराहमिहिरके बृहत्संहिता को संहिता स्कन्धका सबसे प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है |
३ होरा स्कंध:
सिद्धांत एवं संहिता स्कंध की अपेक्षा सरल होने एवं साक्षात् समाजसे सम्बन्ध होने के कारण ज्योतिषशास्त्र के तीनों स्कंधोंमेंसर्वाधिक लोकप्रियता होरा स्कंध है | मानव जीवन के जन्म से ल्रकर मृत्यु पर्यंत सभी प्रश्नों का समाधान जन्म कालिक एवं प्रश्नकालिक ग्रह स्थिति के आधार पर होरा स्कंध द्वारा किया जाता है | यह स्कंध मानव-जीवन के सम्भाव्य अशुभो को ग्रह-नक्षत्रके द्वारा जान कर उनके निवारण हेतु वेद विहित समाधान प्रस्तुत करता है | होरा शब्द की उत्पत्ति अहोरात्रि से होती है ,जो की दिनसूचक शब्द है |अहोरात्र के पूर्व और पर वर्ण के लोप करने से ‘होरा’ शब्द बनता है |
‘होरेत्यहोरात्र विकल्पमेके वांछन्ति पूर्वापरवर्णलोपात् ||’
होरा स्कन्धमें मेषादि द्वादश राशियों ,सत्ताईश नक्षत्रों एवं सुर्यादी ग्रहों की परस्पर स्थिति –गति – दृष्टि –योगसम्बंधवशात् मानव मात्र पर पड़नेवाले शुभाशुभ फल का पूर्ण विवरण समाहित है | अतः इसमें जातक शास्त्र भी कहा जाता है |
ज्योतिषशास्त्र के षडंग :- ज्योतिषशास्त्रके भेदों को यदि विस्तारित किया जाय तो इसके मुख्यतया छः अंग दृष्टिगत होते है
जातकगोलनिमित्तप्रश्नमुहुर्त्ताख्यगणितनामानि |
अभीदधतीह षडंगान्याचार्या ज्योतिषे महाशास्त्रे ||
अर्थात् जातक,गोल,शकुन,प्रश्न मुहूर्त और गणित –ये मुख्यतः छः अंग मने गये है | वस्तुतः ये छः अंग स्कंधत्रयके अंतर्गत ही आते है ,परन्तु विस्तृत व्यख्याहेतु इनका विभाजन पृथक्-पृथक् किया गे है | इनका संक्षेप में विवरण इस प्रकार है –
१) जातक शास्त्र – जातक के जन्म कालिक ग्रह स्थिति के अनुसार उसके वर्तमान- भूत-भविष्यके शुभाशुभ फल का ज्ञान हमें जातकशास्त्र के मध्यम से होता है |
२) गोल:-
दृष्टान्त एवावनिभ ग्रहाणां संस्थानमानप्रतिपादनार्थम् |
गोलः स्मृतः क्षेत्रविशेष एव प्राज्ञैरतः स्याद् गणितेन गम्यः ||
अर्थात्गोल एक प्रकार का क्षेत्र –विशेष है ,जिसमें आकाशीय ग्रहस्थिति का प्रत्याभास करके ग्रहगणितको समझ जाता है |
३) शकुनशास्त्र :- शकुशास्त्रकको निमित शास्त्र भी कहा जाता है |मानवद्वारा आचरित पूर्वजन्म एवं वर्तमान जीवन के शुभाशुभ कार्योकी सूचना तत्काल में व्यक्ती के आसपास हो रहे क्रीयाकलापों के द्वारा शकुनशास्त्र के माध्यमसे दी जाती है ,यथा
अन्यजन्मान्तरकृतं कर्म पुंसां शुभाशुभम् |
यत्तस्य शकुनः प्रोक्तं निवेदयेत् पृच्छताम् ||
शकुनके दो भेद माने जाते है :– (१)शुभ शकुन,(२) अशुभ शकुन |
(४)प्रश्न शास्त्र :– प्रश्नशास्त्र ज्योतिष शास्त्र का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है | प्रश्नशास्त्रके माध्यमसे प्रश्नकर्ताके प्रश्नोंका उत्तर तात्कालिक ग्रहस्थिति के द्वारा दिया जाता है | प्रश्नशास्त्रके द्वारा प्रश्नकुण्डली बनाकर शंकाओंका समाधान किया जा सकता है | इसके अंतर्गत आयु –निर्णय, रोग-निर्णय, आजीविका से सम्बन्धी निर्णय ,विवाह , संतान , सुख , जय-पराजय ,विचार –वृष्टि, विचार, यात्रा – विचार नष्ट वास्तु का ज्ञान –सम्बन्धी निर्णय इत्यादि समस्त जनसामान्योपयोगी प्रश्न समाहित होते है |
(५) मुहूर्त :- ज्योतिष के छः अंगोंमें अत्यंत प्रमुख अंग है मुहूर्त | तिथि –वार-नक्षत्र-योग और करण- ये पञ्चांग के पांच अंग मने जाते है , इन्हीं के आधार पर शुभ अशुभ मुहूर्त का निर्णय किया जाता है | वर्तमान काल में चाहे कोई भी कार्य हो ,उसके लिए मुहूर्त की अत्यंत आवस्यकता पड़ती है ;क्योंकी शुभ मुहूर्त में किया गया कार्य शुभ फलदायक होता है एवं अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है |
(6) गणित :– गणित ज्योतिषशास्त्रका सर्वाधिक वैज्ञानिक अंग माना जाता है | वर्तमानकालमें जो गणितकी विधा फल-फूल रही है ,उसके मूलमें ज्योतिषशास्त्रका गणित अंग है | चाहे अंकगणित हो,बीजगणित हो ,रेखागणित हो,इन सबका विस्तृत विवेचन यहाँ उपलब्ध है | सामान्यतः गणित विभागके ज्योतिषशास्त्रके सिद्धांत स्कंधके अंतर्गत माना जाता है | इस भागके प्रत्येक पहलूका सोपपत्तिक वर्णन उपलब्ध होता है | आजके विज्ञानका मूल आधार भी ज्योतिषशास्त्रका सिद्धांत भाग ही है |