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ज्योतिषशास्त्र का परिचय

An Introduction to astrology

समग्र संसारके अविरल प्रवाहको प्रवाहित करनेवाले निःशेष ज्ञानके आदि स्तोत्ररुपी वेदपुरुषके विशालकाय शरीरमें  ‘वेदचक्षुः किलेदं  स्मृतं ज्यौतिषम्’ (सिद्धान्तशिरोमणि, काल० ११) इत्यादि वाक्योंके द्वारा नेत्ररुपमें ज्योतिषशास्त्र परिलक्षित है | सामान्य परिभाषाके अनुसार ज्योतिषशास्त्रको ग्रह – नक्षत्रोंकी गति ,स्थिति एवं फलसे सम्बन्धित शास्त्र कहा जाता है ,जैसा कि नरिशिंगदैवज्ञने भी कहा है |



 ‘ज्योतींषि ग्रहनक्षत्राण्यधिकृत्य कृतो ग्रन्थो ज्योतिषम् |’


ग्रह-नक्षत्रोंके द्वारा हमें कालका ज्ञान होता है एवं इस चराचर जगत् में सबसे अधिक साश्वत एवं गतिशील वास्तु काल ही है | इसीके अंतर्गत संसारके सभी क्रियाकलाप कार्यान्वित होते है | कालके अनुसार ही प्राणिमात्रका जन्म एवं कालानुरोधेन ही अन्त होता है ,जैसा कि वर्णन भी प्राप्त है – ‘कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः |’ हमारी भारतीय संस्कृतिमें  वेदविहित यज्ञादि शुभ कर्योंकी समग्र व्यवस्था वेदांग शास्त्रोंके माध्यमसे सम्पादित होती है, जिसमें यज्ञादि कर्योंकी सफलता शुभ कालाधीन तथा शुभ कालज्ञानकी व्यवस्था ज्योतिषशास्त्राधीन होनेसे ही इसे वेदपुरुषके नेत्ररुपमें प्रतिष्ठित किया गया है 


वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः |

तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् ||


अतः ज्योतिषशास्त्र की  सार्वभौम उपयोगिता तथा महत्ता स्वयं ही सिद्ध होती है | वर्तमान विज्ञानके गणित आदि प्रायः सभी विषय बिजस्वरूप ज्योतिषशास्त्रमें अन्तर्निहित हैं | भारतीय परम्पराके अनुसार इस प्राचीन विज्ञानिकशास्त्रकी उत्पत्ति ब्रह्माजीके द्वारा हुई है | ऐसा माना जाता है कि ब्रह्माजीने सर्वप्रथम नारदजी को ज्योतिषशास्त्रका ज्ञान प्रदान किया तथा नारदजी ने इस लोकमें ज्योतिषशास्त्र का प्रचार-प्रसार किया | मतान्तरसे ऐसा भी स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है कि इस शास्त्र का ज्ञान भगवान् सुर्यने मयासुरको प्रदान किया | आचार्य कश्यप अष्टादस आचार्योंको ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तक मानते हैं –


     सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः

कश्यपो नारदो गर्गो मरिचिर्मनुरंगिराः |

  रोमशः पौलिशाश्चैव च्यवानो यवनो भृगुः

        शौनेको ऽअष्टदशाश्चैते ज्योतिः शास्त्रप्रवर्तकाः ||


ज्योतिषशास्त्रके  भेद – ज्योतिषशास्त्रके  सिद्धांत – संहिता –होरारुपी तीन विभाग प्राचीनकालसे आचार्योंने उपस्थापित किये है | वराहमिहिरने  ‘ज्योतिषशास्त्रमनेकभेदविषयं स्कन्धत्रयाधिष्ठितम् ’ कहते हुए स्कन्दत्रयात्मक ज्योतिषशास्त्रको अनेक भेदों से युक्त माना है | कुछ आचार्योंने केरलि एवं शकुनका पृथक ग्रहन करते हुए इस शास्त्रको पंचस्कंधात्मक माना है |


पञ्चस्कंधमिदं  शास्त्रं होरागणित संहिताः |

  केरलिः शकुनश्चैव ज्योतिः शास्त्रमुदीरितम् ||


परन्तु केरलि एवं शकुंका भी होरा एवं संहिता स्कन्ध के अंतर्गत ही सन्निवेश होनेके कारण मुख्यतया उसके तीन ही विभाग परंपरा में प्राप्त होते है | इसके अतिरिक्त  विषय-विभाजन की दृष्टि से कुछ आचार्यों ने इसके छः अंगो की भी चर्चा की है ,परन्तु वस्तुतः सिद्धांत,संहिता, होरा स्कन्द के अंतर्गत ही ज्योतिष के सभी विषय समाहित होता है अतः प्राचीन काल से लेकर अवर्चिन काल आचार्योंने ज्योतिष के तीन स्कन्धों को ही परिगणित किया    है |


१)सिद्धांत स्कन्द


त्रुट्यादिप्रलयांतकालगणना मानप्रभेदः क्रमाच्चा रश्च द्युषदां द्विधा च गणितं प्रशनास्तथा सोत्तराः |


   भूधिष्ण्यग्रहसंस्थितैश्च कथनं यन्त्रादि यत्रोच्यते सिद्धान्तः स उदाह्रितोऽत्र गणितस्कन्दप्रबन्धे बुधैः ||


अर्थात् ज्योतिषशास्त्रके जिस स्कन्ध के अंतर्गत सुक्ष्मतमसे महत्तमकालकी गणना तथा मानोंके भेद, ग्रहों के चार द्विबिध गणित (व्यक्त एवं अव्यक्त),ग्राहर्क्षोसे सम्बन्धित सभी प्रश्नों के उत्तर ,ग्रह-नक्षत्रों की गति –स्थिति एवं यन्त्र परिचय आदि वर्णित हो ,उसे सिद्धांत स्कन्द कहते है | इसके  अतरिक्त सिद्धांत स्कंधोमे प्रमेय-विवरण,सृष्टिविचार , खगोल एवं भूगोल –विषयक चिंतन ,ग्रह –नक्षत्रों के वेध-यंत्रो के विज्ञान का विचार , ग्रहण-विचार दिग्देश कालगणना इत्यादि विषयो का सैद्धांतिक एवं गणितीय विचार किया जाता है | सिद्धांत स्कन्द को गणित स्कन्दो के नामसे भी जाना जाता है | सूक्ष्म विभाजनिक दृष्टि से गणित स्कन्धो के भी पुनः तीन विभाग मने जाते है ,जो सिद्धांत, तंत्र एवं करानरूपमे प्रतिशित है |सिद्धांतभागमे ग्रह गणित गणना कल्पारम्भ काल से ,तंत्र भाग में युग आरम्भ काल से एवं कारण विभाग में अभिष्ट शकसे  की जाती है |


  सिद्धान्त स्कंध के प्रसिद्ध ग्रन्थ –      सूर्यसिद्धांत , सिद्धांतशिरोमणि , सिद्धांततत्त्वविवेक , पंचसिद्धान्तिका, सिद्धांतशेखर एवं आर्यभटियम् इत्यादि है |


(२) संहिता स्कंध 


 संहिता स्कंधमें ग्रह-नक्षत्रों के द्वारा भूपृष्ठपर पड़नेवाले सामूहिक प्रभाव का विवेचन किया जाता है |इस स्कंधको भौतिक एवं वैश्विक ज्योतिष भी कहा जाता है |संहिता स्कंधके विषयमें वराहमिहिरने लिखा है –


ज्योतिषशास्त्रमनेकभेदविषयं  स्कन्धत्रयाधिष्ठितम्  |

           तत्कात्स्न्योपनयनस्य नाम मुनिभिः संकिर्त्यते संहिता ||         


वस्तुतः सिध्दान्त और होरा स्कन्धोंका संक्षेपमें समवेत विवेचन ही संहीता है | संहीता स्कन्धमें ग्रहोंकी गति ,ग्रहयुती ,मेघलक्षण ,वृष्टि –विचार, उल्का –विचार , भूकम्प –विचार , जलशोधन , विभिन्न शकुनोंका विचार , वास्तुविद्या तथा ग्रहणादिका समस्त चराचर जगत्पर पड़नेवाला सामूहिक प्रभाव इत्यादिका विचार किया जाता है | संहिताके विषयोंको भी तीन प्रकारसे विभाजित किया जा सकता है , यथा –[१ ] पंचांगविषयक , [२]  राष्ट्रविषयक ,  [३ ] व्यक्तिविषयक |


[क]  पंचांगविषयक – तिथी – वार – नक्षत्र – करण – योगके द्वारा समष्टिगत चिन्तन पंचांगविषयक संहिताके विषय होते हैं  | इसके अंन्तर्गत मुहूर्त आदिका विधाक होते है |


[ख ]   राष्ट्रविषयक –प्राकृतिक उत्पात –  भूकम्प वर्षा इत्यादि विषयोंका चीन्तन राष्ट्रविषयक संहिता विभागमें होता है |


व्यक्तिविषयक   -  यात्रा –शकुन ,स्त्री –पुरुष लक्षणका चीन्तन आदिके विषय इस विभाग में होते है |


संहिता स्कन्धके प्रमुख ग्रन्थ –गर्गसंहिता,  वसिष्ठसंहिता , नारदसंहिता आदि आर्षग्रन्थ तथा बृहत्संहिता, अद्भुत्सागर इत्यादि पौरुष ग्रन्थ हैं | आचार्य वराहमिहिरके बृहत्संहिता को संहिता स्कन्धका सबसे प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है |


३ होरा स्कंध: 


सिद्धांत एवं संहिता स्कंध की अपेक्षा सरल होने एवं साक्षात् समाजसे सम्बन्ध होने के कारण ज्योतिषशास्त्र के तीनों स्कंधोंमेंसर्वाधिक लोकप्रियता होरा स्कंध है | मानव जीवन के जन्म से ल्रकर मृत्यु पर्यंत सभी प्रश्नों का समाधान जन्म कालिक एवं प्रश्नकालिक ग्रह स्थिति के आधार पर होरा स्कंध द्वारा किया जाता है | यह स्कंध मानव-जीवन के सम्भाव्य अशुभो को ग्रह-नक्षत्रके द्वारा जान कर उनके निवारण हेतु वेद विहित समाधान प्रस्तुत करता है | होरा शब्द की उत्पत्ति अहोरात्रि से होती है ,जो की दिनसूचक शब्द है |अहोरात्र के पूर्व और पर वर्ण के लोप करने से ‘होरा’ शब्द बनता है |


‘होरेत्यहोरात्र विकल्पमेके वांछन्ति पूर्वापरवर्णलोपात्  ||’


होरा स्कन्धमें मेषादि द्वादश राशियों ,सत्ताईश नक्षत्रों एवं सुर्यादी ग्रहों की परस्पर स्थिति –गति – दृष्टि –योगसम्बंधवशात् मानव मात्र पर पड़नेवाले शुभाशुभ फल का पूर्ण विवरण समाहित है | अतः इसमें जातक शास्त्र भी कहा जाता है |


ज्योतिषशास्त्र के षडंग :-   ज्योतिषशास्त्रके भेदों को यदि विस्तारित किया जाय तो इसके मुख्यतया छः अंग दृष्टिगत होते है          


 


जातकगोलनिमित्तप्रश्नमुहुर्त्ताख्यगणितनामानि |

  अभीदधतीह षडंगान्याचार्या ज्योतिषे महाशास्त्रे ||


अर्थात् जातक,गोल,शकुन,प्रश्न मुहूर्त और गणित –ये मुख्यतः छः अंग मने गये है | वस्तुतः ये छः अंग स्कंधत्रयके अंतर्गत ही आते है ,परन्तु विस्तृत व्यख्याहेतु इनका विभाजन पृथक्-पृथक् किया गे है | इनका संक्षेप में विवरण इस प्रकार है –   


१) जातक शास्त्र – जातक के जन्म कालिक ग्रह स्थिति के अनुसार उसके वर्तमान- भूत-भविष्यके शुभाशुभ फल का ज्ञान हमें जातकशास्त्र के मध्यम से होता है |


२) गोल:-


दृष्टान्त एवावनिभ ग्रहाणां संस्थानमानप्रतिपादनार्थम्  |

       गोलः स्मृतः क्षेत्रविशेष एव प्राज्ञैरतः स्याद्  गणितेन गम्यः ||


अर्थात्गोल एक प्रकार का क्षेत्र –विशेष है ,जिसमें आकाशीय ग्रहस्थिति का प्रत्याभास करके ग्रहगणितको समझ जाता है |


३) शकुनशास्त्र :-   शकुशास्त्रकको निमित शास्त्र भी कहा जाता है |मानवद्वारा आचरित पूर्वजन्म एवं वर्तमान जीवन के शुभाशुभ कार्योकी सूचना तत्काल में व्यक्ती के आसपास हो रहे क्रीयाकलापों के द्वारा शकुनशास्त्र के माध्यमसे दी जाती है ,यथा


अन्यजन्मान्तरकृतं कर्म पुंसां शुभाशुभम् |

  यत्तस्य शकुनः प्रोक्तं निवेदयेत् पृच्छताम् ||


शकुनके दो भेद माने जाते है :– (१)शुभ शकुन,(२) अशुभ शकुन |


(४)प्रश्न शास्त्र :– प्रश्नशास्त्र ज्योतिष शास्त्र का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है | प्रश्नशास्त्रके माध्यमसे प्रश्नकर्ताके प्रश्नोंका उत्तर तात्कालिक ग्रहस्थिति के द्वारा दिया जाता है | प्रश्नशास्त्रके द्वारा प्रश्नकुण्डली बनाकर शंकाओंका समाधान किया जा सकता है | इसके अंतर्गत आयु –निर्णय, रोग-निर्णय, आजीविका से सम्बन्धी निर्णय ,विवाह , संतान , सुख , जय-पराजय ,विचार –वृष्टि, विचार, यात्रा – विचार नष्ट वास्तु का ज्ञान –सम्बन्धी निर्णय इत्यादि समस्त जनसामान्योपयोगी प्रश्न समाहित होते है |


(५) मुहूर्त :- ज्योतिष के छः अंगोंमें अत्यंत प्रमुख अंग है  मुहूर्त | तिथि –वार-नक्षत्र-योग और करण- ये पञ्चांग के पांच अंग मने जाते है , इन्हीं के आधार पर शुभ अशुभ मुहूर्त का निर्णय किया जाता है | वर्तमान काल में चाहे कोई भी कार्य हो ,उसके लिए मुहूर्त की अत्यंत आवस्यकता पड़ती है ;क्योंकी शुभ मुहूर्त में किया गया कार्य शुभ फलदायक होता है एवं अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है |        


(6) गणित :– गणित ज्योतिषशास्त्रका सर्वाधिक वैज्ञानिक अंग माना जाता है | वर्तमानकालमें जो गणितकी विधा फल-फूल रही है ,उसके मूलमें ज्योतिषशास्त्रका गणित अंग है | चाहे अंकगणित हो,बीजगणित हो ,रेखागणित हो,इन सबका विस्तृत विवेचन यहाँ उपलब्ध है | सामान्यतः गणित विभागके ज्योतिषशास्त्रके सिद्धांत स्कंधके अंतर्गत माना जाता है | इस भागके प्रत्येक पहलूका सोपपत्तिक वर्णन उपलब्ध होता है | आजके विज्ञानका मूल आधार भी ज्योतिषशास्त्रका सिद्धांत भाग ही है |

ज्योतिष जीवन का दर्पण है

Astrology - A mirror to life

जीवन काल से प्रभित होता है | औरकाल की विवेचना एक मात्र ज्योतिष शास्त्र में किया गया है अर्थात इसे हम काल शास्त्र से भी जानते है |  कर्मप्रधान विश्व के आर्य जनोंके कर्मफलकी कामानासे हमारे पूर्वज महर्षियोंद्वारा दिग् – देश –काल ज्ञापक शास्त्र के अनेकों ग्रन्थ रचे गए है | क्योंकि दिग् – देश – कालनुकूल कर्म ही यथार्थ फल फलते हैं , अन्यथा उद्योगों और उपकरणों के रहते हुए भी बहुत से कर्म विफल होते है , आधुनिक वैज्ञानिकोंने भी सिद्ध किया है | वस्तुतः विश्वके वस्तुमात्र आकाशस्थ ग्रह – नक्षत्रों की किरण से ही अच्छे या बुरे होते है | किस समय किस वस्तु के ऊपर किस ग्रह और नक्षत्र की कैसी किरणें पड़ेगी और उसका परिणाम क्या होगा ? इस विषय का ज्ञान महर्षियों के किये जातक और मुहूर्त के  आख्यान से ही होता है | प्रायः सभी लोगों को विदित है कि भारतीय ज्यौतिषशास्त्र आज विश्वजनमानस का अभिन्न अंग-सा हो गया है | उस ज्योतिषशास्त्र के प्रमुख तिन अंग है – सिद्धांत , संहिता एवं होरा | इन स्कंधों में होरा स्कन्द के अंतर्गत जातक,ताजिक ,मुहूर्त एवं प्रश्नज्योतिष का भी समन्वय हैं | इनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है |


१) सिद्धान्त स्कन्द –जिस स्कन्द में त्रुटी से लेकर प्रलय पर्यंत की कालगणना ,सौर , सावन, चान्द्र नाक्षत्रादि कालमानों का भेद, ग्रहों की गति एवं स्थिति का परिचय, पृथ्वी एवं नक्षत्रों की स्थिति का वर्णन, वेधादि कार्यों की सिद्धि हेतु यंत्रादी वर्णन ,गणित प्रक्रिया का उपपत्ति सहित विवेचनादि होता है ,उसे ‘सिद्धांत स्कन्द’ कहते हैं|


२) संहिता स्कन्द –संहिता स्कन्द में ग्रहादिचारफल ,वायसविरुत ,शिवारुत मृगचेष्टित, श्वचेष्टित, अश्वचेष्टित ,हस्तिचेष्टित, शकुन ,वायु,वृष्टि वर्णन एवं इन सबके संसार पर होने वाले समष्टिगत फल का वर्णन दिया रहता है |


३) होरा स्कंध – होरा स्कंध मुख्य रूप से व्यष्टिपरक फलादेश से सम्बन्धित है |इसमे जातक विशेष के जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का और उनके शुभाशुभात्व का विचार किया जाता  है |


ज्योतिषशास्त्र के होरा शास्त्र स्कंध का महत्त्व – ज्योतिषशास्त्र के तीनों स्कंध परस्पर पूरक का कार्य करते है |  संहिता एवं होरा स्कंध , सिद्धान्तस्कंध  पर आधारित है | संहिता एवं होरास्कंध के बिना सिद्धांतस्कंध  भी अपूर्ण है | इसी प्रकार संहिता एवं होरा भी परस्पर आश्रित है , परन्तु जब व्यष्टिपरक फल अर्थात् जातक विशेष के बारे में विचार किया जाता है तब अन्य दोनों स्कंधों की अपेक्षा होरास्कंध महत्वपूर्ण हो जाता है | इस स्कंध में जन्मकालीन ग्रहस्थिति से व्यक्ति विशेष के सन्दर्भ में जीवन संबंधी शुभाशुभ फल का विचार किया जता है | वस्तुतः किस समय में उत्पन्न प्राणियों को शरीर , रूप , शील , धन , पुत्र ,व्यवसाय , विद्या , भाग्य आदि से सुख या दुः ख प्राप्त होगा ? किसके लिये कौन सा समय उपयुक्त या अनुपयुक्त रहेगा ? कौन व्यक्ति अपने जीवन में कितना सफल होगा ? इन सभी विषयों का ज्ञान होरास्कंध से ही संभव है | विद्वानों का मत है कि यदि मनुष्य को पूर्व में ही ज्ञात हो जाए कि कौन – सा समय उसके लिये अनुकूल या प्रतिकूल है तो वह उस अनुकूल समय में अपने आवश्यक कर्म को पूरा कर लेता है तथा प्रतिकूल समय में अशुभ फल से बचने के लिये सतर्क रहकर उपाय भी कर सकता है | शास्त्रों के अनुसार यह समस्त संसार ग्रहों की स्थिति से ही प्रेरित होते है | सृष्टि रक्षण एवं संहार इन तीनों के ज्योतिषशास्त्रोक्त ग्रहों द्वारा प्रभावित होने के कारण यह स्पष्ट  हो जाता है कि यह शास्त्र जीवन में हमारी सर्वाधिक सहायता करता  है |    


उन सूर्य ,चन्द्र ,ग्रह ,राशि –नक्षत्र आदि को ज्योतिः पिण्ड कहा जाता है ,  जिनके स्वरूप , गुण , शुभाशुभ प्रभाव आदि को जैसा मुनि ,महर्षि ,आचार्य आदि द्वारा कहा गया है , उन्हें ज्योतिषशास्त्र के अन्तर्गत ग्रहण का विस्तार करते हैं ||१||


अनेक भेदों से युत ज्यौतिषशास्त्र के तीन स्कन्ध (संहिता, तन्त्र होरा ) हैं|जिसमें सम्पूर्ण ज्योतिषशास्त्र  के विषयों का वर्णन हो , उसको संहिता कहते हैं|जिसमें गणित द्वारा ग्रहगति ,स्थिति का निर्णय किया गया हो ,उसको तन्त्र कहते हैं|इनके अतिरिक्त जातक फल , मुहूर्त आदि का निर्णय जिसमें हो , उसको होरा स्कन्ध कहते हैं ||२ ||


वेद के षड् अङ्ग व्याकरण , ज्योतिष , निरुत्त , कल्प ,शिक्षा , छन्द आदि शास्त्रों में एकमात्र ज्योतिषशास्त्र ही काल ज्ञान प्रदान करने वाला शास्त्र है | इसिलए ही वह अपने दूसरे कालशास्त्र नाम से भी प्रतिष्ठित है |


यहाँ काल के दो प्रकार का उल्लेख हुआ है | एक वह , जो इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के चराचर का सृष्टि , पालन और संहार करने वाला काल या महाकाल है | दूसरा वह जो गणना करने योग्य है | उस गणना योग्य काल के भी दो भाग हैं | एक स्थूल काल, जिसमें  प्राण से प्रलायांत तक के कालखण्ड आते है , जिन्हें मूर्त काल कहा जाता है | दूसरा सुक्ष्म्काल,जिसमें त्रुटि से प्राण तक व्यवहार अयोग्य काल आता है , जिसे अमूर्त काल कहा जाता है | इसा प्रकार काल प्रमुख तीन स्वरूपों में हमारे समक्ष आता है | - १. महाकाल, २.व्यावहारिक गणना योग्य स्थूल ( मुर्तकाल ) और ३. व्यवहार अयोग्य सुक्ष्मकाल ( अमूर्त्तकाल )   |


छः प्राण से विनाडि (पल )६०विनाडि एक नाडी एक नाक्षत्र अहोरात्र , ३० नाक्षत्र अहोरात्र से एक मास होते है और दो अन्यतम सूर्योदय के अंतर्गत के काल को एक सावन दिन कहा जाता है | इस प्रकार ३० सावन दिन से एक सावन मास भी होता है   


पूर्वोक्तनाक्षत्र मास और सावन मास की तरह ही ३० तिथि से एक चान्द्रमास अर्थात शुक्लपक्षीय प्रतिपदा से कृष्णपक्षीय अमावस्या तिथि पर्यन्त ३० तिथियों का एक चान्द्रमास होता है | जहाँ एक तिथि एक चान्द्रदिन होता है |वहाँ यह भी जान लेना चाहिए की एक तिथि ,सूर्य और चन्द्र के प्रत्येक १२ अंश के अंतर के तुल्य होता है | जहाँ से सूर्यचंद्र के एक युतिकाल (अमावस्या ) से दुसरे युति काल (अमावस्या ) पर्यंत दोनों का अंतरांश ३६० अंश अर्थात ३०तिथि भुक्त होता है |एक युति काल (अमावस्या ) से सुर्यचंद्रान्तरांश, जब १८० अंश होता है , तब पूर्णिमा होती है |


सूर्य की एक संक्रांति के अंत से अन्यतम दूसरी संक्रांति तक का काल सौर मास होता है और उसका तीसवाँ भाग ( सूर्य द्वारा एक अंश भोग करने में लगा काल ) सौर दिन होता है | जहाँ एक राशि में ३०अन्श होता है |


सौरमास अर्थात एक सौर वर्ष से देवताओं का एक अहोरात्र होता है |


नोट :-  एक सौर वर्ष में ३६५ दिन, २२ पल ,५७ विपल आदि सावन मध्यम मान से होते हैं |


सूर्य के द्वारा एक अंश भोग करने में जितना समय लगे ,उसे सौर दिन कहा जाता है| तिथि को चान्द्रदिन कहा जाता है | नक्षत्र के दो उदयान्तरवर्ति काल नाक्षत्र दिन   और सूर्य के दो उदयान्तरवर्तिकाल सावन दिन कहे जाते है |


गुरु की मध्यमा गति से प्रत्येक राशि के भोग द्वारा गौरव वर्ष होता है | मेष,वृष आदि राशियों के क्रम में आश्विन ,कार्तिक आदि गौरव वर्ष की संज्ञायें होती हैं | मध्यमान से ३६१ दिन ,२ दंड ,५पल आदि का बार्हस्पत्य वर्ष होता है |


मेषादि द्वादश राशियों में गुरु रहने पर जो-जो वर्ष पूर्ण होते है ,वह शुद्ध सम्वत्सर कहा जाता है और उनका आश्विन आदि नाम होते है |


गुरु के मध्यम राशि भोग से गौरव संवत्सर होता है , संहिता को जानने वाले कहते हैं | वे प्रभवादी नाम के ६० संवत्सर हैं और शकादि से उसकी प्रभवादी की प्रवृत्ति सिद्ध होती है | इन्हीं ६० संवत्सरों के नामानुसार फल पंचांगों में लिखे जाते हैं , उनके नाम आगे बताया गया है | इन संवत्सरों की गणना सूर्य सिद्धांतादि ग्रन्थों में विजयादि के नाम से किया गे है ; क्योंकि सृष्टि काल से विजयादी क्रम से ही संवत्सरों की प्रवृति सिद्ध होती है | गुरु के द्वादश मेषादि राशियों के भोग से उपरोक्तानुसार इन्हीं संवत्सरों को आश्विन,कार्तिक , मार्गशीर्ष आदि नाम से भी जाना जाता है|



 ६० सम्वत्सर है जिनके नाम निम्नलिखित कहे गए है |

१.                प्रभव


२.                विभव


३.                शुक्ल


४.                प्रमोद


५.                प्रजापति


६.                अंगिरा


७.                श्रीमुख


८.                भाव


९.                युवा


१०.          धाता


११.          ईश्वर


१२.          बहुधान्य


१३.          प्रमाथी


१४.          विक्रम


१५.          विषु


१६.          चित्रभानु


१७.          स्वभानु


१८.          तारण


१९.          पार्थिव


२०.          व्यय


२१.          सर्वजित


२२.          सवधारी


२३.          विरोधी


२४.          विकृति


२५.          खर


२६.          नन्दन


२७.          विजय


२८.          जय


२९.          मन्मथ


३०.          दुर्मुख

३१.          हेमलंब


३२.          विलम्ब


३३.          विकारी


३४.          शर्वरी


३५.          प्लव


३६.          शुभकृत


३७.          शोभन


३८.          क्रोधी


३९.          विश्वावसु


४०.          पराभव


४१.          प्लवंग


४२.          किलक


४३.          सौम्य


४४.          साधारण


४५.          विरोधकृत्


४६.          परिधावी


४७.          प्रमादी


४८.          आनन्द 


४९.          राक्षस


५०.          नल


५१.          पिंगल


५२.          काल


५३.          सिद्धार्थ


५४.          रौद्री


५५.          दुर्मति


५६.          दुन्दुभि


५७.          रूधिरोद्गारी


५८.          रक्ताक्ष


५९.          क्रोधन तथा


६०.          अक्षय

 प्रभावादि सम्बन्धि वर्तमान सम्वत्सर संख्या को २ से गुण कर, गुणनफल में से ३ को घटाकर ७ से भाग देना चाहिए | यदि शेष १या ४ बचे, तो उस वर्ष दुर्भिक्ष, २ या ५ शेष बचे , तो उस वर्ष सुभिक्ष ,३ या ६ शेष बचे, तो सम अर्थात मध्यम तथा शुन्य शेष से लोक संसार में क्लेश समझना चाहिए | जैसे विक्रम सम्वत् २०७४ में साधारण नामक सम्वत्सर का फल जानने के लिए २०७४ *२ = ४१४८ – ३ = ४१४५ / ७ =५९२ लब्धि और शेष १ होने से इस वर्ष दुर्भिक्ष स्थिति रहेगी, कहना चाहिए अब आगे संवत्सरों के फल , जैसा संहितादि ग्रन्थों में है , वैसा ही यहाँ दिया जा रहा है | स्पष्ट गुरु एक सम्वत्सर में एक राशि में संचार करे ,तो वह शुद्ध सम्वत्सर होता है | उस समय सभी प्रकार के शुभकर्म करना चाहिए | जब समय गुरु एक सम्वत्सर में दो राशियों में संचार करते हुए , पुनः वक्री होकर पूर्व राशि में वापस नहीं जाय , तब वह लुप्त सम्वत्सर (महातिचार)  कहा जाता है | लेकिन वर्ष के मध्य में दो राशियों में संचार कर वक्री होकर पुनः पूर्व राशि में संचार करे तब अतिचार होता हैं | दो राशियों में गुरु के एक सम्वत्सर में संचार को लुप्तवर्ष या सम्वत्सर कहा जाता है, वहीं एक सम्वत्सर में स्पष्ट गुरु के संचार नहीं करने पर वह अधिक सम्वत्सर कहा जाता है |


वर्तमान शाक वर्ष संख्या को २२ से गुणा कर ४२९१ जोड़ने से जितना हो,उसमें १८७५ से भाग देने पर जितनी लब्धि प्राप्त हो , उसको वर्तमान शाक में जोड़कर ६०से भाग देना चाहिए , उससे जितना शेष मिले , उस शेष तुल्य प्रभव,विभव आदि क्रम में गत सम्वत्सर जानना चाहिए, उससे आगे की वर्तमान सम्वत्सर होता है | 


पञ्च संवत्सरों का एक युग होता है | इस प्रकार ६० संवत्सरों में १२ युग होता है | उन १२ युगों के स्वामी हैं –विष्णु , बृहस्पति, इन्द्र , अग्नि , ब्रह्मा , शिव , पितर , विश्वेदेव , चन्द्र , अग्नि , अश्विनी कुमार  और सूर्य |


आनंदादि २० संवत्सरों के स्वामी ब्रह्मा, जो सृजन करते है | भावादि २० सम्वत्सरों के स्वामी विष्णु है , जो सृष्टि का पालन करते हैं तथा जयादिक २० संवत्सरों के स्वामी शिव है , जो सृष्टि का संहार करते है |  


वर्तमान विक्रम सम्वत् की संख्या में ९ जोड़कर ६० से भाग देना चाहिए | शेष तुल्य प्रभवादि क्रम में गत सम्वत्सर के नाम का परिज्ञान होता है | उसके आगे वर्तमान सम्वत्सर होता है | 

यथा :-२०७४+९= २०८३ /६०= लब्धि ३४ और शेष ४३ |


अतः शेष ४३ तुल्य गत सौम्य नामक सम्वत्सर होने से वर्तमान ४४वाँ साधारण नामक सम्वत्सर हुआ |

नवग्रहपीडाहारस्तोत्र

ग्राहणामादिरादित्यो  लोकरक्षणकारकाः   |   विशमस्थान सम्भुतां पीडां हरतु में रविः || १ ||


रोहिणीशः सुधामुर्तिः सुधागात्रः सुधाशनः  |    विषमस्थानसम्भूतां पीडां हरतु में   विधुः || २ ||


भुमिपुत्रो महातेजा जगतां भयकृत् सदा      |    वृष्टिकृद् वृष्टिहर्ता च   पीडां हरतु में  कुजः || ३ ||


उत्पातरुपो  जगतां चंद्रपुत्रो महाद्युतिः        |    सुर्यप्रियकरो विद्वान् पीडां हरतु में   बुधः  || ४ ||


देवमंत्री विशालाक्षः सदा लोकहिते रतः      |   अनेकशिष्यसंपूर्णः पीडां हरतु में    गुरुः   || ५ ||


दैत्यमन्त्री गुरुस्तेषां प्राणदश्च महामतिः      |   प्रभुः ताराग्रहाणां  च पीडां हरतु में भृगुः || ६ ||


सुर्यपुत्रो दीर्घदेहा विशालाक्षः शिवप्रियः      |    मंदाचारः प्रसन्नात्मा पीडां हरतु में शनिः ||  ७ ||


अनेकरूपवर्णैश्च शतशोऽथ सह्स्त्रद्रिक्      |    उत्पातरुपो जागतां पीडां हरतु में  तमः ||  ८ ||


महाशिरा महावक्त्रो दीर्घदंष्ट्रो  मनाबलः      |     अतनुश्चोर्ध्वकेशश्च पीडां हरतु में   शिखी || ९ ||




अर्थात : -    ग्राहोंमे प्रथम परिगणित , अदिति के पुत्र तथा विश्व रक्षा करने वाले  भगवान सूर्य विशमास्थनजनित मेरी पीड़ा का हरण करें ||१|| दक्षकन्या नक्षत्ररुपा देवी रोहिणी के स्वामी , अमृतमय स्वरूपवाले , अमृतरूपी शरीर वाले तथा अमृतका पान कराने वाले चन्द्रदेव विषमस्थानजनित मेरी पीड़ा को दूर करें  ||२|| भूमिके पुत्र, महान तेजस्वी , जगतको भय प्रदान करनेवाले , वृष्टि करनेवाले तथा वृष्टि का हरण करनेवाले मंगल [ ग्रहजन्य ] मेरी पीड़ा का हरण करें ||३|| जगत में उत्पात करनेवाले , महान द्युतिसे संपन्न , सूर्य का प्रिय करनेवाले , विद्वान तथा चन्द्रमा के पुत्र बुध मेरी पीड़ा का निवारण करें ||४|| सर्वदा लोककल्याण में निरत रहने वाले , देवताओंके मन्त्री , विशाल नेत्रोवाले तथा अनेक शिष्यों से युक्त बृहस्पति मेरी पीड़ा को दूर करें  ||५|| दैत्योंके मन्त्री और गुरु तथा उन्हें जीवनदान देनेवाले , तारग्रहों के स्वामी , महान बुद्धिसंपन्न शुक्र मेरी पीड़ा को  दूर करें ||६|| सूर्यके पुत्र , दीर्घ देहवाले , विशाल नेत्रों वाले , मन्दगतिसे चलनेवाले , भगवान् शिवके प्रिय तथा प्रसन्नात्मा शनि मेरी पीड़ा को दूर करें ||७|| विविध रूप तथा वर्णवाले , सैकड़ों तथा हजारों आँखों वाले , जगत के लिये उत्पात स्वरूप , तेजोमय राहु मेरी पीड़ा का हरण करें ||८|| महान शिरा ( नाड़ी ) – से संपन्न , विशाल मुखवाले , बड़े दांतों वाले , महान बली , बिना शरीरवाले तथा ऊपर की ओर केशवाले शिखास्वरूप केतू मेरी पीड़ा का हरण करें ||९||

हमारे हाथो में है धन, विद्या और निर्माण शक्ती

अर्थात् हाथों में ही ब्रह्मा ,लक्ष्मी और सरस्वती है

 नाखूनों को सुन्दर और सजा – संवार कर रखने की बात यूँ ही नहीं की जाती है | नाख़ून का आकार और इसका रूप रंग आपकी आर्थिक स्थिति और स्वभाव को भी दर्शाता है | गरुड़ पुराण में बताया गया है की नाख़ून पीले होतें है वह नपुंसक होता है |


 


नाखूनों पर धब्बे हों और नाख़ून  दिखने में अच्छे नहीं हों तो ऐसा व्यक्ति जीवन में बहुत उन्नति नहीं कर पाता है इनकी आर्थिक स्थिति सामान्य होती है | नाख़ून टेढ़े – मेढ़ा और रेखा युक्त होना आर्थिक दृष्टी से प्रतिकूल स्थिति को दर्शाता है |


उत्तम नाख़ून जो आर्थिक समृद्धि को दर्शाते  है उनके विषय में कहा गया है कि , जिनके नाख़ून रेखा और धब्बा रहित चिकने और ललिमा युक्त होते है वह धनवान होता है नाख़ून का आकार उंगली के पहले पोर का आधा  होना उत्तम माना गया है |


सभी उँगलियों में नाख़ून कछुए की पीठ की तरह उठे हुए होना श्रेष्ठ माना जाता है लेकिन अगर अंगूठे  का नाख़ून बीच में उठा हुआ है तो यह जीवन भर आर्थिक उन्नति के लिए संघर्ष करने का संकेत माना जाता है |      


पुरुषों के नाख़ून मांस में  अधिक धंसे नहीं हो और गोल हो तो यह आर्थिक समृधि का सूचक हैहोता है |ऐसे व्यक्ति दिनों-दिन उन्नति की ओर बढ़ता हैरहेता है |गर्ग संहिता के अनुसार जिस स्त्री के नाख़ून लाल ,चमकीले ,चिकने और उठे हुए होते है वह भाग्यशाली होती है |



ऐसी स्त्री निष्ठावान होती है और जीवन में सुखसविधाओं का उपभोग करती है | नाख़ून ऊँगली से कुछ बाहर निकले हों और गुलाबी हों तो यह भी सौभाग्य का प्रतिक माना  जाता है|

भाग्य से नहीं ,मेहनत से कामयाब होते हैं ऐसे अंगूठे वाले

हस्तरेखा विज्ञानं के अनुसार जिस व्यक्ति का अंगूठा पीछे कलाई की ओर मुड़ता है और दिखने में सुन्दर ,लम्बा और पतला होता है वह भावुक ,उदार और कोमल हृदय वाले होते है |  अगर अंगूठा आधिक नहीं मुड़ता है तो यह दर्शाता है की व्यक्ति उदार है लेकिन अपने हितो को  प्राथमिकता देता है  | अंगूठे का अधिक झुकाव बताता है की व्यक्ति बहुत अधिक उदार है और इनकी उन्नति के मार्ग में बहुत से बाधाएं आएंगी | लेकिन बाधाओं को पर करके यह अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सफल होगा |


जिस व्यक्ति का अंगूठा खम्भे के तरह सीधा होता है उन्हें भाग्य से नहीं बल्कि कर्म से कामयाबी  मिलता है |ऐसे व्यक्ति किसी की सहायता करने का वचन देते है तो हर हाल में अपने वचन को निभाने की कोसिस करते है |लकिन यश फिर भी नहीं मिलता है ऐसे लोग में अपने भावनाओं मेको नियंत्रित करने की क्षमता कम होती है| अपने विरुद्ध बात होने पर यह तुरंत नाराज हो जाते हैं और जरा सी अच्छी बात होने पर खुश भी हो जाते हैं |ऐसे लोग अपने उपर किये गये उपकार को  कभी नहीं भुलते तो  नुकसान पहुंचाने वाले से बदला  लेने में हिचकते भी नहीं है | हस्तरेखा विज्ञानं के अनुसार इस तरह के अन्गुठे वाले व्यक्ति सच्चे देश भक्त और धर्म के प्रति गहरी आस्था रखने वाले होते है |समझौते का सिद्धांत इन्हें पसंद नहीं आता है |


 अंगूठे का हथेली अथवा तर्जनी उंगली की ओर झुकाव  हस्तरेखाविज्ञान में अच्छा नहीं मन जाता है |जिनका अंगूठा इस प्रकार का होता है |तंत्र –मंत्र,जादू –टोने में इनका आधिक विश्वास होता है अंगूठे का आकार बेडौल हो तब व्यक्ति उग्र स्वभाव का होता है | बात-बात पर किसी उलझ जाता है |इन्हें जीवन में काफी संघर्ष करना पड़ता है |


अंगूठे की लम्बाई तीसरे पोर के मध्य तक होना उत्तम माना जाता है |बहुत कम लोगों के अंगूठे की लम्बाई इतनी होती है |अंगूठा अगर तर्जनी उंगली के तीसरे पोर को छु रहा है तो व्यक्ति बहुत ही बुद्धिमान होता है |ऐसे लोगो की जान पहचान का दायरा बड़ा होता है | इनमे सहनशक्ति खूब होती है लेकिन स्वभाव  से शंकालु होने की वजह से कई बार अपमानित भी होना पड़ता है |

ऐसी होती है भाग्यशाली लोगों की तर्जनी उंगली

अंगूठे और मध्यमा उंगली के बीच जो उंगली होती है उसे तर्जनी कहते है |इस उंगली के निचे गुरु पर्वत यानि गुरु का स्थान होता है | इसलिए इस उंगली को धर्म और धन का स्थान भी कहा जाता है |अपनी इस उंगली को गौर से देखिए |उंगली की लम्बाई कितनी है और इसका झुकाव किस और है | हस्तरेखाविज्ञान कहता है की तर्जनी उंगली की लम्बाई अगर मध्यमा से अधिक है तो व्व्यक्ति भाग्यशाली होता है |


ऐसा व्यक्ति स्वभाव से गंभीर होता है और उच्च पद को प्राप्त करता है | लकिन इन्हें अपनी योग्यता और पद का अभिमान भी रहता है |इनमे दुसरो पर प्रभाव जताने की प्रवृति होतीहै |ऐसे लोगो में बदले की भावना तीव्र होती है |जिस व्यक्ति की तर्जनी उंगली अनामिका उंगली के बराबर होती  है वह निष्ठावान होते है |इनमे दूसरों की मदद करने की स्वभाविक प्रवृति होती है |यह जिन कार्यो से जुड़े होते है उसमे कार्य  कुशलता  हासिल करते है |


अपनी इस प्रवृति के कारण जीवन में सफल होते है |लेकिन इनमे असत्य बोलने की प्रवृति हो सकती है |तर्जनी उंगली का अनामिका से छोटी होना अच्छा नहीं मन जाता है |ऐसे लोग जल्दी निराश हो जाते है |इनके अन्दर ईष्या की भावना रहती है और यह किसी भी प्रकार से अपने लक्ष्य को पाने की कोशिश करते है |मध्यमा उंगली से यह उंगली दूर होने पर व्यक्ति बहुत अधिक झूठ बोलने वाला होता है | हस्तरेखाविज्ञानके अनुसार तर्जनी की लम्बाई मध्यमा के बराबर होने पर व्यक्ति असामान्य मानसिकता वाला होता है |


तर्जनी उंगली का झुकाव अंगूठे की ओर होना दर्शाता है की व्यक्ति बहुत अधिक महत्वकांक्षी और दृढ इच्छा वाला है  |इसके विपरीत यह उंगली मध्यमा की ओर मुड़ी हुई हो तो यह दर्शाता है की व्यक्ति निराशावादी होगा |इनमे निर्णय क्षमता की कमी हो सकती है | छोटी से असफलता से यह घबरा जाता है   |

बडेकष्ट उठाने पड़ते है अगर मध्यमा उंगली हो चपटी

बडेकष्ट उठाने पड़ते है अगर मध्यमा उंगली हो चपटी

अनामिका और तर्जनी उंगली के मध्य में जो उंगली होती है उसे मध्यमा उंगली कहते है |इस उंगली के निचे शनि पर्वत होता है |शानि पर्वत ही वह स्थान है जिसे हस्तरेखाविज्ञान में भाग्य स्थान कहा गया है | हस्त रेखा विज्ञान के अनुसार जिनकी हथेली में मध्यमा उंगली के निचे का भाग अधिक उठा हुआ होता है उनका जीवन असाधारण होता है |


तर्जनी उंगली से मध्यमा उंगली की लम्बाई एक चौथाई से अधिक होना शुभ माना जाता है | जिनकी मध्यमा उंगली ऐसी होती है वह विवेकशील और दूरदर्शी होते है| ऐसे लोग सोच-समझकर धन खर्च करते है |धर्म-कर्म में इनकी रूचि होती है |लेकिन मध्यमा का तर्जनी से अधिक बड़ा होना अच्छा नहीं होता है |ऐसे व्यक्ति  को जीवन में कई बार असफलताओं का सामना करना पड़ता है |कई बार निराशावादी विचारो के कारण दुःख प्राप्त करते है |


मध्यमा अधिक लम्बी होने के साथ चपटी भी हो तो जीवन में कई बार अपमानित होना पड़ता है | इन्हें जीवन में बड़े कष्ट उठाने पड़ते है |जिनकी मध्यमा और तर्जनी उंगली बराबर होती है उनकीं सोचने – समझने की शक्ति सामान्य से कम |ऐसे लोगो में भोग-विलास की भावना अधिक पायी जाती है |


जिस व्यक्ति की मध्यमा उंगली और तर्जनी उंगली के मध्य दूरी होती है वह स्वतंत्र विचारो वाले  होते  है |लेकिन मध्यमा और अनामिका के बीच दूरी होने पर व्यक्ति लापरवाह होते है |मध्यमा उंगली का झुकाव अगर हथेली की और हो तो व्यक्ति धर्म-कर्म एवं मान्यताओं में विश्वास नहीं करता है |ऐसे लोग भौतिकवादी होते है और कोई भी काम काफी सोच-विचार कर करते है |जबकि मध्यमा ऊपर की और उठी हुई होने पर सिधान्तवादी होता है|

अनामिका उंगली बताती है धन किस तरह कमाए

बडेकष्ट उठाने पड़ते है अगर मध्यमा उंगली हो चपटी

छोटी उंगली से जानिए बिजनेसमैन बनेंगे या अफसर

छोटी उंगली के बाद अनामिका होती है |इस उंगली के नीचे सूर्य  पर्वत होता है इसलिए अनामिका उंगली को हस्त रेखा विज्ञान में काफी महत्व दिया गया है हस्तरेखा विज्ञान के अनुसार अनामिका अगर तर्जनी से बड़ी हो तो व्यक्ति स्वाभिमानी होता है |ऐसे लोग भावुक होते है और जरुरत के समय लोगों की मदद के लिए तैयार रहते है |सगे – संबंधियों विशेष तौर पर जीवनसाथी के प्रति इनमे गहरा लगाव होता है|सामान्य रूप से इनका दांपत्य जीवन सुखद रहता है |


अनामिका और तर्जनी की लम्बाई बराबर होना दर्शाता है की व्यक्ति स्वतंत्रताप्रिय है |ऐसा व्यक्ति अपने काम में किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं करता है और न दुसरो के काम में दखलंदाजी करता है यह अपने व्यक्तिगत जीवन में खुश रहते |जिनकी अनामिका उंगली मध्यमा के बराबर होती है वह स्वार्थी और धूर्त होते है |ऐसे लोग परंपरा और नैतिकता को ताक पर रखकर  कई कार्य कर बैठते है |अनामिका उंगली का छोटा होना हस्त रेखा में अच्छा नहीं माना जाता है |


जिनकी अनामिका उंगली छोटी होती है वह ठगी,चोरी ,एवं कला का गलत इस्तेमाल करके धन कमाने की प्रवृति रखने वाले व्यक्ति व्यवसाय के माध्यम से खूब धन अर्जित कर सकता है |जिनकी अनामिकौन्गली का झुकाव माध्यमा उंगली की ओर होता है वह नौकरी एवं बौद्धिक कार्यो के द्वारा धन कमाते  है |इस तरह के लोग निराशावादी और खिन्न होते है |ज्योतिष ,दर्शन और रहस्यमयी विद्याओ से भी धन अर्जित करने में सफल होते है |

छोटी उंगली से जानिए बिजनेसमैन बनेंगे या अफसर

बडेकष्ट उठाने पड़ते है अगर मध्यमा उंगली हो चपटी

छोटी उंगली से जानिए बिजनेसमैन बनेंगे या अफसर

एक बड़ी ही लोकप्रिय कहावत है की “पांचों उंगली एक जैसी नहीं होती”| बात बिल्कुल सही है लेकिन गौर से देखे तो हर व्यक्ति की पांचो उंगलियों में भी काफी अंतर नजर आ जायेगा | हस्तरेखा विज्ञान इन्ही अन्तरो का अध्ययन करके व्यक्ति के स्वभाव ,गुण एवं आर्थिक तथा सामाजिक स्थितियों का पता लगता है |


हस्तरेखा विज्ञान के अनुसार छोटी उंगली भी अन्य उंगलियों की तरह काफी महत्वपूर्ण  है |इस उंगली के नीचे बुध पर्वत होता है |जिन लोगो की छोटी उंगली सामान्य से अधिक छोटी होती है उनमे धैर्य की कमी होती है |जिनकी छोटी उंगली अत्यधिक लम्बी होती है उनमे दया की भावना कम होती है |कभी - कभी ऐसे लोग उग्र होकर क्रूरतापूर्ण व्यव्हार भी कर बैठते है |


जिन लोगो की छोटी उंगली टेढ़ी होती है उन पर आंख बंदकर करके विश्वास नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसे लोग असत्यवादी होते है |लेकिन व्यक्तिगत और व्यावहारिक जीवन में ऐसे लोग काफी सफल होते है |जिनकी उंगली अधिक टेढ़ी-मेढ़ी हो उनसे तो सावधान ही रहना चाहिये | हस्तरेखा विज्ञान कहता है की ऐसे लोग धूर्त और मौकापरस्त होते है |


जिन लोगो की छोटी उंगली अनामिका उंगली के नाख़ून तक पहुच जाती है ऐसे व्यक्ति लक्ष्य के प्रति समर्पित होते है और अपने लक्ष्य को पाने मे सफल होते है | हस्तरेखा विज्ञान के अनुसार ऐसे व्यक्ति कुशल प्रशासक ,उद्योगपति ,चिकित्सक ,कवि ,पत्रकार अथवा इंजीनियर हो सकते है |छोटी उंगली यदि अनामिका उंगली के सबसे उपरी पोर के आधे हिस्से तक पहुंच रही है तो यह बहुत ही शुभ संकेत है |



ऐसे लोग जिन क्षेत्रों से जुड़े होतो है उसमे उच्च पद तक पहुंचते है|प्रशासनिक अधिकारी अथवा सफल व्यवसायी हो सकते है |ऐसे लोगो को जीवन में कभी भी धन की कमी का सामना नहीं करना पड़ता है  |यह मितभाषी ,नम्र और व्यवहार कुशल होते है |

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