धन की परिस्थति सबकी एक सी नहीं होती | कभी-कभी धन का अभाव हो जाता है, ऐसी परिस्थितियों में जबकि श्राद्ध का अनुष्ठान अनिवार्य है, इस दृष्टि में शास्त्र ने धन के अनुपात से कुछ व्यवस्थाएं की है:-
१) यदि अन्न-वस्त्र के खरीदने में पैसों का अभाव हो तो उस परिस्थिति में शाक से श्राद्ध करना चाहिए-
तस्माच्छ्रद्धं नरो भक्त्या शाकैरपि यथा विधि |
२) यदि शाक खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हो तो तृण-काष्ठ आदि को बेचकर पैसा इकठ्ठा करे और उन पैसों से शाक खरीदकर श्राद्ध करे |
अधिक श्रम से यह श्राद्ध किया गया है, अतः फल लाख गुणा होता है |
३) देशविशेष और काल विशेष के कारण लकड़ियाँ भी नहीं मिलती | ऐसी परिस्थिति में शास्त्र ने बताया है की घाससे श्राद्ध हो सकता है | घास काटकर गाय को खिला दे | यह व्यवस्था पद्मपुराण ने दी है | इसके साथ ही इसने इस सम्बन्ध की छोटी-सी घटना प्रस्तुत की है-
एक व्यक्ति धन के अभाव से अत्यन्त ग्रस्त था | उस के पास इतना पैसा न था की शाक खरीदा जा सके |इस तरह शाक से भी श्राद्ध करने की स्थिति में वह न था | आज ही श्राद्ध की तिथि थी | ‘कुतप काल ‘ भी आ पहुँचा था | इस काल के बीतने पर श्राद्ध नहीं हो सकता था | बेचारा घबरा गया - रो पड़ा – श्राद्ध करे तो कैसे करे ? एक विद्वान् ने उसे सुझाया- अभी कुतप काल है, शीघ्र ही घास काटकर पितरों के नाम पर गाय को खिला दो | वह दौड़ गया और घास काटकर गायों को खिला दी | इस श्राद्ध के फलस्वरूप उसे देव लोक की प्राप्ति हुई_
एतत् पुण्यप्रसादेन गतोऽसौ सुरमन्दरिम् |
४) ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है की घास का भी मिलना संभव नहीं होता | तब श्राद्ध कैसे करे ? न हो, तब श्राद्ध का अनुकल्प यह है कि श्राद्धकर्ता एकांत स्थान में चला जाय | दोनों भुजाओ को उठाकर निम्नलिखत श्लोक से पितरों की प्रार्थना करे-
न मेऽस्ति वित्तं न धनं च नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नोतोऽस्मि |
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य ||
अर्थात् मेरे पितृगण ! मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य आदि | हाँ, मेरे पास आपके लिए श्रद्धा और भक्ति है | मे इन्ही के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ | आप तृप्त हो जाए | मैंने (शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप ) दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है |
श्राद्धकार्य में साधनसंपन्न व्यक्ति को वित्तशाठ्य ( कंजूसी) नहीं करनी चाहिए - "वित्तशाठ्यं न समाचरेत्" अपने उपलब्ध साधनों से विशेष श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध आवश्य करना चाहिए |
उपर्युक्त अनुकल्पों से स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि किसी - न - किसी तरह श्राद्ध को आवश्य करे | शास्त्र ने तो स्पष्ट शब्दोमें श्राद्ध का विधान दिया है और न करने का निषेध भी किया है |
श्राद्ध करे हीं -
अतो मूलैः फलैर्वापि तथाप्युद्कतर्पणैः | पितृतृप्तिम प्रकुर्वीत ...................
श्राद्ध छोडे नहीं - नैव श्राद्धं विवर्जयेत् | ( धर्मसिन्धु )