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श्राद्ध का महत्व

मृत्युतिथि तथा पितृपक्ष में श्राद्ध करना आवश्यक

 

पितृ कर्मों में निष्ठा रखने वालो का वंश कभी क्षय नहीं होता | श्राद्ध का दूसरा नाम आभ्युदई कर्म भी कहा जाता है | जैसे दीप को जलते रहने के लिए घी देते रहना चाहिए उसी तरह वंश उद्दीपन हेतु पितरो की तृप्ति आवश्यक है|ते है | वस्तुतः श्रध्दा- भक्तिद्वारा शास्त्रोक्तविधिसे किया हुआ श्राद्ध ही सर्वविध कल्याण प्रदान करता है | अतः प्रत्येक व्यक्तिको श्रध्दापूर्वक शास्त्रोक्त समस्त श्राध्दोको यथासमय करते रहना चाहिए | जो लोग शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धोंको न कर सके , उन्हें कम – से कम क्षयाह – वार्षिक तिथिपर तथा आश्विनमासके पितृपक्ष  में तो अवश्य ही अपने मृत पितृगणके मरणतिथिके दिन श्राद्ध करना चाहिए | पितृपक्ष के साथ पितरो का विशेष सम्बन्ध रहता है |  भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमासे पितारोका दिन प्रारम्भ हो जाता है ,जो अमावस्यातक रहता है | शुक्लपक्ष पितरोकी रात्रि कही गयी है | इसलिये मनुस्मृतिमें कहा गया है – मनुष्योके एक मास बराबर पितारोका एक अहोरात्र ( दिन – रात ) होता है | मासमें दो पक्ष होते है | मनुष्योंका कृष्णपक्ष पितरोके कर्मका दिन और शुक्लपक्ष पितरोके सोनेके लिए रात होती है | यही कारण है की आश्विनमासके कृष्णपक्ष – पितृपक्षमें पितृश्राद्ध करनेका विधान है | ऐसा करनेसे पितरोको प्रतिदन भोजन मिल जाता है | इसीलिए श्राद्धोमें पितृपक्षमें श्राद्ध करनेकी विशेष महिमा लिखी गई है | महर्षि जाबालि कहते है –

         पुत्रानायुस्तथाऽऽरोग्यमैश्वर्यमतुलं तथा |

    प्राप्नोति पञ्चेमान् कृत्वा श्राध्दं कामांश्च पुष्कलान् | 

तात्पर्य यह है की पितृपक्षमें श्राद्ध करनेसे पुत्र ,आयु , आरोग्यता ,अतुल एश्वर्य और अभिलषित वस्तुओ की प्राप्ति होती है |

 पितृ कर्मों में निष्ठा रखने वालो का वंश कभी क्षय नहीं होता | श्राद्ध का दूसरा नाम आभ्युदई कर्म भी कहा जाता है | जैसे दीप को जलते रहने के लिए घी देते रहना चाहिए उसी तरह वंश उद्दीपन हेतु पितरो की तृप्ति आवश्यक है |


पितरों को श्राद्ध की प्राप्ति कैसे होती है ?

 यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि  श्राद्ध में दी गयी अन्न आदि सामग्रियाँ पितरोंको कैसे मिलती है; क्योंकि विभिन्न कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद जीव को भिन्न - भिन्न गति प्राप्त होती है | कोई देवता बन जाता है, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चिंटी, कोई चिनार का वृक्ष और कोई तृण | श्राद्ध में दिये गए छोटे-से पिण्ड से हाथी का पेट भर सकता है ? इसी प्रकार चींटी  इतने बड़े पिण्ड को कैसे खा सकती है ? देवता अमृत से तृप्त होते है , पिण्ड से उन्हें कैसे तृप्ति मिलेगी ? इन प्रश्नों का शास्त्र ने सुस्पष्ट उत्तर दिया है कि नाम- गोत्र के सहारे विश्वदेव एवं अग्निष्वात्त आदि दिव्य पितर हव्य-कव्य को पितरों को प्राप्त करा देते है | यदि पिता देव योनी को प्राप्त हो गया हो तो दिया गया अन्न उसे वहां अमृत होकर प्राप्त हो जाता है | मनुष्ययोनि में अन्न रूप में तथा पशुयोनिमें तृण के रुपमे उसे उसकी प्राप्ति होती है | नागादी योनियोंमें वायुरूपसे , यक्षयोनियोंमें पानरूपसे तथा अन्य योनियोंमें भी  उसे श्राद्धीय वस्तु भोग जनक तृप्ति कर पदार्थों के रूप में प्राप्त होकर अवश्य तृप्त करती है | जिस प्रकार गोशाला में भूली माता को बछड़ा किसी- न -किसी प्रकार ढूंढ ही लेता है, उसी प्रकार मंत्र तत्तद् वास्तुजातको प्राणी के पास किसी- न- किसी प्रकार पहुंचा ही देता है | नाम, गोत्र, हृदय की श्रद्धा एवं उचित संकल्प पूर्वक दिये हुए पदार्थों को भक्ति पूर्वक उच्चारित मंत्र उनके पास पहुंच ही जाता है | जीव चाहे सैकड़ो योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो तृप्ति तो उसके पास पहुँच ही जाती है |


श्राद्ध के भेद

नित्य, नैमित्तिक और काम्य-भेद से श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं |

यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धो का उल्लेख मिलता है – नित्य, नैमित्तिक , काम्य, वृद्धि और पार्वण - प्रतिदिन किए जाने वाले श्राद्धो को नित्य श्राद्ध कहते है | इसमें विश्वदेव नहीं होते तथा अशक्तावस्था में केवल जल प्रदान से भी इस श्राद्ध की पूर्ति  हो जाती है तथा एकोद्दिष्ट श्राद्ध कहते है, इसमें भी विश्वदेव नही होते | किसी कामना की पूर्ति  के निमित्त किए जानेवाले श्राद्ध को काम्य श्राद्ध कहते है | वृद्धि काल में पुत्र जन्म तथा विवाहादि मांगलिक कार्य में जो श्राद्ध किआ जाता है, उसे वृद्धिश्राद्ध (नान्दी श्राद्ध) कहते है | पितृपक्ष, अमावस्या अथवा पर्व की तिथि आदि पर जो सदैव (विश्वेदेवसहित) श्राद्ध किया  जाता है, उसे पार्वण श्राद्ध कहते है  

 विश्वामित्र स्मृति तथा भविष्य पुराण में नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि, पार्वण, सपिण्डन, गोष्ठी, शुद्ध्यर्थ, कर्मांग, दैविक, यात्रार्थ तथा पुष्टयर्थ- ये बारह प्रकार के श्राद्ध बताये गए है | प्रायः सभी श्रद्धो का अंतर्भाव उपर्युक्त पांच श्राद्धो में किया जाता है | जिस श्राद्ध में प्रेतपिण्डका पितृपिण्डो में सम्मेलन किया जाय ,उसे सपिण्डन श्राद्ध कहते है |समूह में जो श्राद्ध किया जाता है , उसे गोष्ठी  श्राद्ध कहते है | शुद्धि के निमित्त जिस श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है, उसे शुद्ध्यर्थ श्राद्ध कहते है | गर्भाधान, सीमन्तोन्नयन तथा पुंसवन आदि संस्कारों में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे कर्मांगश्राद्ध कहते है | सप्तमी आदि तिथियों में विशिष्ट हविष्य के द्वारा देवताओं निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है, उसे दैविक श्राद्ध कहते है | तीर्थ के उद्देश्य से देशांतर जाने के समय घृत द्वारा जो श्राद्ध किआ जाता है, उसे यात्रार्थश्राद्ध कहते है | शारीरिक अथवा आर्थिक उन्नति के लिए जो श्राद्ध किया जाता है , वह पुष्ट्यर्थ श्राद्ध कहलाता है |

उक्त सभी प्रकार के श्राद्ध श्रौत और स्मार्त के भेद से दो प्रकार के होते है | पिण्ड पितृयाग को श्रौतश्राद्ध कहते है और एकोद्दिष्ट, पार्वण तथा तीर्थश्राद्ध से लेकर मरण तक के श्राद्ध को स्मार्त श्राद्ध कहते है |

  श्राद्ध के ९६ अवसर है | बारह महीनो के बारह अमावास्याएं, सतयुग, त्रेतादी युगों के प्रारंभ की चार युगादी तिथियाँ, मनुओं के आरंभ की चौदह मन्वादी तिथिया, बारह संक्रान्तियाँ, बारह वैधृति योग, बारह व्यतिपात योग, पंद्रह महालय श्राद्ध (पितृपक्ष) , पांच अष्टका ,पांच अन्वष्ट तथा पांच पुर्वेद्दुः- ये ९६ श्राद्ध के अवसर है |

धनाभाव में भी श्राद्ध संभव

धन की परिस्थति सबकी एक सी नहीं होती | कभी-कभी धन का अभाव हो जाता है, ऐसी परिस्थितियों में जबकि श्राद्ध का अनुष्ठान अनिवार्य है, इस दृष्टि में शास्त्र ने धन के अनुपात से कुछ व्यवस्थाएं की है:-

१) यदि अन्न-वस्त्र के खरीदने में पैसों का अभाव हो तो उस परिस्थिति में शाक से श्राद्ध करना चाहिए-

                                                       तस्माच्छ्रद्धं नरो भक्त्या शाकैरपि यथा विधि |

२) यदि शाक खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हो तो तृण-काष्ठ आदि को बेचकर पैसा इकठ्ठा करे और उन पैसों से शाक खरीदकर श्राद्ध करे |

अधिक श्रम से यह श्राद्ध किया गया है, अतः फल लाख गुणा होता है |

३) देशविशेष और काल विशेष के कारण लकड़ियाँ भी नहीं मिलती | ऐसी परिस्थिति में शास्त्र  ने बताया है की घाससे श्राद्ध हो सकता है | घास काटकर गाय को खिला दे | यह व्यवस्था पद्मपुराण ने दी है | इसके साथ ही इसने इस सम्बन्ध की छोटी-सी घटना प्रस्तुत की है-

एक व्यक्ति  धन के अभाव से अत्यन्त  ग्रस्त था | उस के पास इतना पैसा न था की शाक खरीदा जा सके |इस तरह शाक से भी श्राद्ध करने की स्थिति में वह न था | आज ही श्राद्ध की तिथि थी | ‘कुतप काल ‘ भी आ पहुँचा था | इस काल के बीतने पर श्राद्ध नहीं हो सकता था | बेचारा घबरा गया - रो पड़ा – श्राद्ध करे तो कैसे करे ? एक विद्वान् ने उसे सुझाया- अभी कुतप काल है, शीघ्र ही घास काटकर पितरों के नाम पर गाय को खिला दो | वह दौड़ गया और घास काटकर गायों को खिला दी | इस श्राद्ध के फलस्वरूप उसे देव लोक की प्राप्ति हुई_

                                                 एतत् पुण्यप्रसादेन गतोऽसौ सुरमन्दरिम् |

४) ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है की घास का भी मिलना संभव नहीं होता | तब श्राद्ध कैसे करे ? न हो, तब श्राद्ध का अनुकल्प यह है कि श्राद्धकर्ता एकांत स्थान में चला जाय | दोनों भुजाओ को उठाकर निम्नलिखत श्लोक से पितरों की प्रार्थना करे-

                                      न मेऽस्ति वित्तं न धनं च नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नोतोऽस्मि | 

                                         तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य ||

अर्थात्  मेरे पितृगण ! मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य आदि | हाँ, मेरे पास आपके लिए श्रद्धा और भक्ति है | मे इन्ही के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ | आप तृप्त हो जाए | मैंने (शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप ) दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है |

श्राद्धकार्य में साधनसंपन्न व्यक्ति को वित्तशाठ्य ( कंजूसी) नहीं करनी चाहिए - "वित्तशाठ्यं न समाचरेत्" अपने उपलब्ध साधनों से विशेष श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध आवश्य करना चाहिए |

उपर्युक्त अनुकल्पों से स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि किसी - न - किसी तरह श्राद्ध को आवश्य करे | शास्त्र ने तो स्पष्ट शब्दोमें श्राद्ध का विधान दिया है और न करने का निषेध भी किया है | 

श्राद्ध करे हीं  - 

                                   अतो मूलैः  फलैर्वापि तथाप्युद्कतर्पणैः | पितृतृप्तिम          प्रकुर्वीत ................... 

 श्राद्ध छोडे नहीं -          नैव श्राद्धं विवर्जयेत् | ( धर्मसिन्धु ) 

श्राद्ध कर्ता का भी कल्याण

जो प्राणी विधिपूर्वक शान्तमन होकर श्राद्ध करता है, वह सभी पापों से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त होता है तथा फिर संसार-चक्र में नहीं आता | अतः प्राणी को पितृगण की संतुष्टि तथा अपने कल्याण के लिए भी श्राद्ध करना चाहिए | इस संसार में श्राद्ध करने वाले के लिए श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणकारक उपाय नहीं है | इस तथ्य की पुष्टि महर्षि सुमन्तु द्वारा भी की गयी है-

                                   श्राद्धात् परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम् | तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद्विचक्षणः ||

अर्थात् इस जगत् में श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणप्रद उपाय नहीं है, अतः बुद्धिमान् मनुष्य को यत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिए|

इतना ही नहीं, श्राद्ध अपने अनुष्ठाता की आयु को बढ़ा देता है, पुत्र प्रदान कर कुल - परंपरा को अक्षुण्ण रखता हैं, धन - धान्य का अम्बार लगा देता है | शरीर में बल-पौरुष का संचार करता है, पुष्टि प्रदान करता है और यश का विस्तार करते हुए सभी प्रकार के सुख प्रदान करता है |


 

श्राद्धमे आठ दुर्लभ प्रयोजनीय

श्राद्धमे कुछ बाते अत्यन्त महत्व है , जैसे कुतप वेला – दिनका आठवाँ मुहूर्त ( दिनमे ११ बजकर ३६ मिनटसे १२ बजकर २४ मिनटतक का समय ) श्राध्द के लिये यह काल मुख्य रूप से प्रशस्त है | इसे ही कुतप वेला कहते है | 

कुत्सित अर्थात् पापको संतप्त करनेके कारण इसे कुतप कहा गया है | मध्याह्नकाल , खड़्गपात्र ( गैंड़ेके सिंगसे बना पात्र ) , नेपालकम्बल , चाँदी , कुश ,तिल , गौ और दौहित्र ( कन्या का पुत्र ) – ये आठों भी कुतपके समान ही फल दायी होने के कारण कुतप कहलाते है | श्राद्धके लिये ये बड़े ही दुर्लभ प्रयोजनीय है |

श्राद्धमे निषिध्द अन्न

जिसमे बाल और कीड़े पड़ गया हो , जिसे कुत्तों ने देख लिया हो ,जो बासि एवम् दुर्गन्धित हो – ऐसी वस्तु का श्राध्द मे उपयोग न करे | बैगन और शराब क भी त्याग करे | जिस अन्न पर पहने हुये वस्त्र की हवा लग जाय , वह भी श्राद्ध मे वर्जित है | राजमाष ,मसूर , अरहर ,गाजर , कुम्हरा ,गोल लौकी , बैगन , शलजम ,हींग ,प्याज ,लहसुन ,काला नमक , काला जीरा , सिंघारा , जामुन ,पिप्पली , कुलथी , कैथ , महुआ , अलसी , चना , -ये सब वस्तुएँ श्राध्द मे वर्जित है |

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