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Tantra mantra & Yantra science

दीपावली की रात्रि में तंत्र साधना क्यों


दीपावली की रात्रि को कालरात्रि माना गया है | पौराणिक सन्दर्भ में कालरात्रि को अत्यंत अशुभ माना गया है | अत्यंत अशुभ रात्रि में अत्यंत शुभलक्ष्मी क्यों होता है ? इस शंका का समाधान तांत्रिक साहित्य करता है | शक्तिसंगम तंत्र के कालीखण्ड में अनेक विशिष्ठ रात्रियों का विवरण दिया गया है | श्रीविद्यार्णव तंत्र में कालरात्रि को एक शक्ति माना गया है | इसी ग्रन्थ में कालरात्रि – मृतकाओं का भी  उल्लेख है | कालरात्रि शक्ति की उपासना से सुख सौभाग्य धन – धान्य आदि की प्राप्ति होती है | 

मन्त्रमहोदधि में दिए गये इनके ध्यान का भावार्थ है – उदीयमान सूर्य – जैसी आभावाली, विखरे हुए बालोंवाली , काले वस्त्र धारण किये हुए , चरों हाथों में क्रमशः दण्ड , लिंग , वर एवं भुवन को धारण करनेवाली , तीन नेत्रवाली , विविध आभूषणों से सुशोभित , प्रसन्नवदना , देवगणों से सेवित एवं कामबाण से विकलित शरीरवाली मायाराज्ञी कालरात्रि का ध्यान करता हूँ | 


कालरात्रि को जहां शत्रु विनाशिनी माना गया है , वहां सुख सौभाग्य देनेवाली भी माना गया है | मन्त्र में इनको गणेश्वरी कहा गया है , जो ॠध्दि – सिद्धि की देनेवाली है | 

दीपावली की रात्रि में आधी रात के बाद डेढ़ से दो बजे तक के समय को महानिशा कहा गया है , जिससे तंत्र की साधना का विशेष महत्त्व है | इसी समय लक्ष्मीजी की अराधना करने से अक्षय धन – धान्य की प्राप्ति होती है | यह समय लक्ष्मी प्राप्ति की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है | कहा गया है | 


अर्धरात्रात् परंयच्च मुहूर्तज्ञयमेव च | 

सामहारात्रि रूटिटष्टा तऊतं चाक्षयं भवेत् || 


अर्थात् दीपावली की रात्रि को आधी रात के पश्चात् जो दो मुहूर्त का समय है , उसको महानिशा कहते है , उसमे आराधना करने से अक्षय लक्ष्मी की प्राप्ति होती है | दीपावली के दिन सूर्य और चन्द्रमा दोनों तुला राशि में होते है | तुला का स्वामी शुक्र है | शुक्र धन – धान्य प्रदान करनेवाला ग्रह है , जैसा की रुद्रयामल तंत्र में कहा गया है  

‘तदाधनार्थ प्रद्दाती शुक्रः’  अर्थात् जब सूर्य और चन्द्रमा तुला राशि के होते है , तब लक्ष्मीपूजन करने से धन – धान्य की प्राप्ति होती है |

कनकलक्ष्मी साधना

सदियों से कहावत चली आ रही है की समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता | यह कहावत कहने का एक ही उद्देश्य होगा की मनुष्य के भीतर इश्वर के प्रति आस्था बनी रहे और जितना भी मिल रहा है उसी में संतोष करने का प्रयास करें | क्योंकि जो कुछ मिलता है वह इश्वर की कृपा से ही मिलता है ,परन्तु आज की अवस्था और व्यवस्था में काफी बदलाव आ गया है | साथ ही व्यक्ति के रहन-सहन और सोच-विचार में भी काफी परिवर्तन हो गया है |जिस कारण व्यक्ति के भीतर जो संतोष और संतुष्टि थी,उसका अभाव आता  जा रहा है | क्योंकि पहले व्यक्ति की आवश्यकताएं कम थी |इसलिए जितने मेहनत व परिश्रम से उसे जो भी मिल जाता था वह उसके लिए पर्याप्त होता था परन्तु आज प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताएं व् कामनाएं काफी बढ़ गई है | इसलिए उसे जो भी मिलता है उसमें वह असंतुष्ठि का ही अनुभव होता है और बस हर व्यक्ति को अधिक-अधिक और अधिक ही चाहिए | तो ऐसे समय में समय से पहले और भाग्य से अधिक इस आस्था पर बने रहना मुश्किल हो गया है |जीवन में धन की उपयोगिता सर्वोपरि हो गयी  है और धन के अभाव आज ठीक प्रकार से जीवन व्यतीत कर पाना असम्भव हो गया है | चाहे पुत्र अथवा पुत्री की शादी हो ,व्यवसाय अथवा नौकरी से सम्बंधित कार्य हो या फिर किसी भी तरह का सामाजिक कार्य हो धन के विना सब कुछ असम्भव है | आज मनुष्य सभी तरह की परेशानियों से झुंज कर ही अपना व्यवसाय शुरु करता है और उस व्यवसाय को शिखर पर पहुंचाने के लाये दिन-रात मेहनत करता है परन्तु फिर भी कई तरह की हानिया और परेशानिया उसके कार्य में बाधा कारक सिद्ध हो जाती है | जिस वजह से व्यक्ति आर्थिक रूप के साथ-साथ मानसिक व शारीरिक कष्टों से परेशान हो जाता है | व्यावसायिक हानि का प्रभाव न सिर्फ उसके व्यापार में बल्कि निजी जिंदगी में भी परेशानीदायक हो जाता है |क्योंकि जब व्यक्ति तन-मन-धन से किसी चीज के साथ जुड़ता है और बदले में आशानुरूप परिमाण नहीं मिल पाते तो निराश व परेशान होना वाजिब है | व्यावसायिक हानी के कई कारण हो सकते है जैसे-तांत्रिक बाधा या टोटके द्वारा व्यापार को बांधना ,किसी की बुरी नजर लगना  या फिर ग्रहों की प्रतिकूल दशा आदि |इन सबके चलते हमें उचित मेहनत उपरांत भी यथेष्ठ फल की प्राप्ति नहीं हो पाती और हम यह सोच बैठते है की शायद यही हमारा भाग्य  है ,परन्तु ऐसा नहीं है |क्योंकि आज व्यक्ति किसी दुसरे व्यक्ति कि उन्नति और तरक्की नहीं देख पाता और कुछ ऐसे गलत कर्म कर बैठता है जिसका परिणाम दुसरे व्यक्ति को भुगतना पड़ता है | आपकी इन सब समस्याओं के निराकरण के लिए आप सबको “कनकलक्ष्मी साधना” जिसको संपन्न करके आप भी अपने व्यापार में आ रही परेशानियों का शमन करके अपने जीवन में सुख-समृद्धि व शांति स्थापित  कर सकते है |


साधना विधान: आप शुक्रवार के दिन प्रातः काल स्नानादि से निवृत होकर शुद्ध पीले वस्त्र धारण करके अपने घर के मंदिर में पूर्व दिशा की ओर मुख करके स्थान ग्रहण करे |फिर एक शुद्ध चाँदी अथवा स्टील की थाली लेकर उसमे अष्टगंध द्वारा ‘श्री’ का चिन्ह अंकित करे |फिर थाली पर लाल गुलाब की पंखुड़िया फैला दे तथा उस पर लाल रंग का कपड़ा रख दे |तत्पश्चात उस कपड़े के अन्दर तांत्रोक्त सरसों डाल दे |उसी के साथ श्री कनकधारा लक्ष्मी यंत्र और गुटिका रख दे |फिर उन पर लक्ष्मी प्रिय चरण पादुका को विराजमान करे तथा उन सभी पर अष्टगंध से तिलक करे ,पुष्प चढ़ाए ,घी का दीपक जलाए व खीर का नैवेद्य (प्रसाद )भोग लगाए | तत्पश्चात सवा पाव अक्षत (चावल)चढाते – चढाते निम्न मंत्र ५ माला कनकलक्ष्मी माला से जाप करें :

मन्त्र :- “ॐ भगवती माँ लक्ष्मी मम सर्वकार्य सिद्धि देही मे कुरु कुरु स्वाहा| ”


मन्त्र जाप पूर्ण होने के पश्चात दोनों हाथों से अंजली बनाकर प्राथना करे हे माँ लक्ष्मी ! मैंने आपकी तन-मन और धन से आपकी साधना संपन्न की है |इसमें किसी भी प्रकार की त्रुटि हो गयी हो तो मुझे छमा करे तथा मुझे आशीर्वाद प्रदान करे की मेरा व्यवसाय उतरोत्तर उन्नति व प्रगति करे |साथ ही साथ मेरे व्यावसायिक स्थल पर की गयी सारी तांत्रिक क्रियाएं समाप्त होकर मेरे व्यवसाय की कार्योंन्नती ,आय वृद्धि के साथ मुझे स्थाई लक्ष्मी प्राप्त होती रहे | ऐसी प्रार्थना करने के पश्चात सारी सामग्री को यथास्थान रहने दे और खीर का प्रसाद परिवार के सभी सदस्य ग्रहण कर ले फिर सायंकाल के समय आप उस लाल कपडे में से सरसों व चावल को अलग निकाल दे व यंत्र ,गुटिका व चरण पादुका की उसी लाल वस्त्र में बांधकर तीन गांठ लगा दे व अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठान के मंदिर या केश बॉक्स में रख दे व सरसों व चावल को व्यावसायिक प्रतिष्ठान में फैला दे व घर आ जाए | फिर दुसरे दिन प्रतिष्ठान में आकर कचरा निकाले व मन ही मन ऐसा सोचे की मेरे व्यावसायिक प्रतिष्ठान पर की गए सभी तांत्रिक बाधाए या रुकावट दूर हो रही है व कचरे को किसी दूर स्थान पर फेंककर आ जाएं |कनकलक्ष्मी माला को अपने पूजन स्थान में रख दें व शुक्रवार के दिन यथा शक्ति मंत्र जाप करें | साथ ही यह उपाय भी करें ,जिससे आपके व्यावसायिक प्रतिष्ठान की उन्नति में पूर्ण सहायक व लाभदायी रहेंगे – शुक्रवार के दिन श्रद्धानुसार चावल दान करे ,तो व्यापारिक बाधा धीरे-धीरे कम होगी |पूर्णिमा के दिन पूर्ण विधिनुसार विद्वान ब्राह्मण को भोजन करवाएं तथा श्रद्धानुसार दान-दक्षिणा करे,तो व्यापारिक बंधन दूर होकर महालक्ष्मी का आगमन शीघ्र ही होगा |


साधना सामग्री: प्राणप्रतिष्ठायुक्त अभिमंत्रित श्री कनकधारा लक्ष्मी यंत्र ,  प्राणप्रतिष्ठायुक्त अभिमंत्रित लक्ष्मी प्रिय चरण पादुका , प्राणप्रतिष्ठायुक्त अभिमंत्रित कनकलक्ष्मी माला , अभिमंत्रित तंत्र बाधा निवारक गुटिका ,अभिमंत्रित तंत्रोक्त सरसों एवं अष्टगंध |



श्री कनकधारास्तोत्रम्


अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं  तमालम् |

अंङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गलदेवतायाः || १ ||

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि |

माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा  मे श्रियं दिशतु सागरसंभवायाः || २||

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्दहेतुरधिकं  मुरविद्विषोऽपि  |

ईषन्निषीदतु मयि  क्षणमीक्षणार्धमिन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ||३ ||

आमीलिताक्षमाधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम् |

आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः || ४ ||

 बाह्वन्तरे  मधुजितः श्रितकौस्तुभे या हारावलीव  हरिनीलमयी विभाति |

कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु  मे कमलालयायाः || ५ ||

कालाम्बुदालिललितोरसि  कैटभारेर्धाराधरे   स्फुरति या तडिदङ्गनेव |

मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्तिर्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः || ६ ||

प्राप्तं पदम् प्रथमतः किल यात्प्रभावान्माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनी  मन्मथेन |

मय्यापतेत्तदिह  मन्थरमीक्षणार्धं मंदालसं च मकरालयकन्यकायाः || ७ ||

दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारामस्मिन्नकिंचनविहङ्गशिशौ विषण्णे |

दुष्कर्मघर्ममपनीय  चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः   || ८ || 

इष्टा  विशिष्टमतयोऽपि  यया दयार्द्रदृष्टया  त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते |

दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदिप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः  || ९ ||

गीर्देवतेति  गरुडध्वजसुन्दरीति  शाकम्भरीति    शशिशेखरवल्लभेति  |

सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरूण्यै ||१०||

श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै |

शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ||११ ||

नमोऽस्तु नालीकनिभाननयै नमोऽस्तु दूग्धोदधिजन्मभूत्यै |

नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै  ||१२ ||

सम्पत्कराणि  सकलेन्द्रियनन्दनानि  साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि |

त्वद्वदनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ||१३||                  

यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः  सेवकस्य सक्लार्थसमपदः       |

संतनोती       वचनाङ्गमानसैस्त्वां मुरारिहृदयेश्वरिं भजे ||१४||

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतमाम्शुकगंधमाल्याशोभे |

भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवंभूतिकरी प्रसीद मह्यम् ||१५||

दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्टस्वर्वाहिनीविमलचारूजलप्लुताङ्गीम|

प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेषलोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ||१६||

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गैः |

अवलोकय मामकिन्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ||१७||

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् |

गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ||१८||

          ||श्रीभगवत्पादशंकरविरचितं कनकधारास्तोत्रं सम्पूर्णम् || 


सर्व प्रथम भगवान आदि गुरु शंकराचार्य ने कनक लक्ष्मी साधना प्रसंग में कनकधारा स्तोत्र की रचना की यह सच मुच धन की वर्षा करनेवाला वरदान है | हम सभी के लिए यह वरदान है |

|| कनकधारा अप्नियम ||


नव निधि प्रदाता कुबेर कवच

प्रायः साधक ,जातक ,समस्याग्रस्त व्यक्ति अपनी अपनी समस्यओं का समाधान प्राप्त करने के लिये नित्य प्रतिदिन आते ही रहते है |लेकिन एक समस्या का हल कुछ वर्ष पूर्व मिला जिसको पूर्णत परिस्कृत करने के पश्चात और अनुभव के पश्चात आपको सौप रहे है नव निधि प्रदाता कुबेर कवच के रूप में |


जो आज धनवान है वह सदैव धनवान बने रहना चाहता है |जिसके पास आज जो वैभव है उससे भी ज्यादा उसके बेटो ,पोतों ,प्रोपोतो के पास हो ऐसा इच्छाधनकुबेरों की रहती आई है और जब तक यह चराचर जगत है रहेगी | इच्छा कभी कम नहीं होती ,बढ़ती ही रहती है | हम पिछले १२-१३ वर्षो से निरंतर कवच बनाकर आपको सौंप रहे है और हमें बहुत प्रसन्नता होती है जब आपको उनका सुखद प्रतिफल मिलता है |आज के युग में समय बहुत कम है सबके पास| पूजा –उपासना में समय देना बस की बात नहीं | महिलाएँ भी अपनी घर –गृहस्थी में बेहद व्यस्त है बच्चे उनसे भी अधिक व्यस्त है |और इसी भागा –दौड़ में कई संस्कार पीछे छूट रहे है | तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी समस्याओं के निवारण के लिये कवच का सहारा पा रहा है| ज्यों –ज्यों समस्याओं  का ,इच्छाओं का भान  होता गया हम उनके समाधान के लिये ,पूर्ति के कवच का निर्माण करते चले गये |


शास्त्रों में लक्ष्मी साधना के साथ –साथ कुबेर के ध्यान का भी उल्लेख है |कुबेर ,लक्ष्मी द्वारा प्रदत्त धन-वैभव को अनंतकाल तक संरक्षित रखते है |ऐसा इसलिए है क्योंकि जिस प्रकार जल ,वायु एवं अग्नि आदि देवता होते है ,उसी प्रकार धन-धान्य ,वैभव ,यश के अधिष्ठाता कुबेर है |


जैसा कि हम सब जानते हैं कि देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर है और यह देवता न होकर यक्ष है इसलिए इसकी साधना सुकर है ,दूसरी बात यह भी है कि शिव का कृपापात्र होने के कारण साधना से प्रसन्न होने वाले भी हैं | अनुभव में आया है कि लक्ष्मी मंत्र की उपासना में धन प्राप्ति होती है पर वह जाब चाहे सकती है इसलिए लक्ष्मी की किसी देवता के साथ साधना करनी चाहिए |जैसे लक्ष्मी नारायण,लक्ष्मी – नृसिंह ,स्वर्णाकर्षण भैरव आदि |लक्ष्मी का वैभव ,सम्पन्नता और प्रचुरता का गुण गणपति इस युग के लिए सर्वाधिक अनुकूल एवं सुगम देवता है |


भगवान शंकर की  साधना करने के पश्चात रावण को इस कुबेर मंत्र ज्ञान भगवान शंकर ने कराया था | कोई व्यक्ति यदि पीढ़ियों से दरद्रिता तथा अभाव से अक्रांत है तो भी इस कवच के धारण करने से दरिद्रता दूर होती है तथा सम्पन्नता की प्राप्ति होती है | अपार धन,वैभव ,सम्पति , सम्पदा,  प्रतिष्ठा , सुख  ,विलासिता तथा भवन , वाहन , आभूषण , नौकर , रत्न , भूखण्ड आदि प्राप्त होते  है | कौटिल्य ने एक स्थान पर लिखा है  कि कुबेर की मूर्ति खजाने में स्थापित की जानी चाहिए |


इतिहास पुराणों के अनुसार राजाधिराज धनाध्यक्ष कुबेर समस्त यज्ञों , गृहस्थों और किन्नरों  - इन तीन देवयोनियों के अधिपति कहे गए है | ये नवनिधियों – पद्म , महापद्म , शंख , मकर , कच्छप , मुकुंद ,कुंद , नील और वर्चसू के स्वामी है | एक निधि भी अनन्त वैभवों की प्रदाता मानी गयी है और राजाधिराज कुबेर तो गुप्त , प्रकट संसार के समस्त वैभवों के अधिष्ठाता देवता है | जैसे देवताओं के  राजा इंद्र है ,गुरु बृहस्पति है ,उसी प्रकार कुबेर निखिल ब्रह्माण्डों के धनाधिपति  होते हुए भी प्रधान रूप से देवताओं के धनाधय्क्ष के रूप में विशेष प्रसिद्ध हैं |महाराज वैश्रवण कुबेर की उपासना से सम्बंधित मंत्र ,यन्त्र ध्यान एवं उपासना आदि की सारी प्रक्रियाएँ  श्रीविद्यार्णव , मंत्रम्हार्ण, मंत्रम्होदधि श्रीतात्व्निधि तथा  विश्नुधार्मोत्त्रादी पुराणों में निर्दिष्ट हैं|


नव –निधियां – भारतीय संस्कृत धर्म एवं आध्यात्म से जुड़ी हुई है |भारत का बच्चा –बच्चा अध्यात्मिक धरोहर पर गर्व करता है |यह देश साधु-संतो  एवं तपस्वि - यों का देश रहा है |यह का वातावरण ही अध्यात्ममय है ,यही कारण है कि  यहां का वातावरण ही आध्याताम्मय है ,यही कारण है की यहा का बच्चा –बच्चा बाल्यकाल से ही विभिन्न देवी –देवताओं ,विभिन्न ऋधि्दयो ,सिद्धियों आदि की  कथाएँ सुनते हुए बड़ा होता है |अष्ट - सिद्धियों एवं नव –निधियां  बहुत प्रसिद्ध है |कहा  जता है की नव निधियां  कुबेर के खजाने में सर्वदा विराजमान  रहती है |जिसे यह  नवनिधियां  प्राप्त हो जाये उसका तो जीवन मानो बफल हो गया |यह नवनिधियां  कौन – कौन सी होती है और इनके प्राप्त होने से व्यक्ति के जीवन में किस प्रकार के परिवर्तन आते है आईए देखते है |


‘महापद्मश्च पद्मश्च शंखों पर मकर कच्छपै |

मुकुन्द कुंद निलश्च स्वर्वश्च निधियोनव ||’


नव निधियाँ –“पद्म ,महापद्म ,नील, मुकुंद, नन्द ,मकर ,कच्छप,शंख ,खर्व |अब इन नव निधियोंके लक्षण लिखने के पूर्व यह जान लें की निधि का तात्पर्य क्या है ? संस्कृत व्याकरण के अनुसार निधि (नि +धा+कि )शब्द ‘नि’ उपसर्ग ‘धा’ धातु तथा की प्रत्यय के मल से बनता है जिसका अर्थ आश्रय ,आधार ,घर ,भंडार ,आगार ,संचय आदि होता है |


१ )पद्म निधि –खर्व निधि को छोड़कर शेष आठ निधियां पद्मिनी नमक विद्या के सिद्ध होने प्राप्त होती है |पद्मिनी का अर्थ लक्ष्मी होता है उसके कारण निधिया व्यक्ति के धन का आवलोकन करती रहती है ,जिससे समृद्धि निरंतर बढ़ती ही रहती है |पद्मा निधि युक्त मनुष्य जीवन भर संपन्न रहता है फिर उसके पुत्रों ,पौत्रों ,प्रपौत्रों के आधीन भी वह निधि चलती रहती है |उनका कार्य –व्यापार खुब चलता है |वह धार्मिक कार्य यज्ञादि संपन्न करता है |जनहित के कार्यो में संलग्न रहता है तथा विपुल  दक्षिणा देता है |वह बड़े एकाग्रचित से धर्मस्थलों का निर्माण करता है |उसकी क्रमशः सभी अभिलाषाएं पूरी होता है |


२)महापद्म निधि –यह भी सात्त्विक  निधि है |अतः इससे युक्त व्यक्ति सत्वगुण संपन्न होता है | इस निधि से संपन्न स्वयं योगी होता है | कई बार यह निधि बड़े मठाधिपतियों को भी प्राप्त हो जाती है |इस निधि से संपन्न लोगों के पुत्र, पौत्र प्रपौत्रों ,शिष्य ,प्रशिष्य भी निधि संपन्न होता है


३)नील निधि –यह निधि सत्व एवं रजो गुण दोनों से मिश्रित निधि है अतः इससे युक्त व्यक्ति का स्वभाव एवं आचार व्यव्हार भी सात्विक तथा राजस दोनों गुणों से युक्त रहता है |इस निधि की दृष्टी जिस मनुष्य पर पड़ती है वही इस निधि से संपन्न हो जाता है |वह सार्वजनिक हित के कार्य करता है | वृक्षरोपण करता है |सुगंधियो को धारण करता है |


४)मुकुंद निधि –यह मुकुंद निधि राजसी स्वभाव वाली होती है |वह मनुष्य रजोगुण से युक्त होता है |उसे संजीत गायन ,वादन का शौक होता है | न्रित्याकारों ,अभिनेताओं तथा गन्धर्वो को यह निधि बहुत फल देती है |


५)नन्द निधि –यह निधि रजोगुण तथा तमोगुण इन दोनों से मिश्रित होने से जिस पर इस निधि की दृष्टी पड़ती है उसका स्वभाव राजस एवं तामस होता है उसे समस्त धातुएं ,रत्न एवं धान्य प्राप्त रहते है |वह मृदु स्वभाव युक्त होता है |तथा उसका दांपत्य जीवन सुखी रहता है |इनका वंश फलता फूलता है | यह निधि आश्रित पुरुष की दीर्घायु करती है | ऐसे मनुष्य की ख्याति बहुत दूर तक होती है |


६)मकर  निधि –यह तामसी निधि है | अतः जिस पुरुष में इसका अधिष्ठान होता है वह तमोगुण प्रधान किन्तु सुशिल होता है |यह अपने साथ सदैव शस्त्र रखता है| भोज्य पदार्थो के स्वाद का सूक्ष्मता से ज्ञान करने की क्षमता से युक्त होता है |वह राजनेताओं एवं शासक वर्ग से मित्रता रखता है |शूरवीरों से भी मित्रता रखता है |उनका संग्रह भी पर्याप्त करता है |


७)कच्छप निधि – जिस मनुष्य में यह तमोगुणी निधि अधिष्ठत रहती है वह किसी का विश्वास नहीं करता है |वह अपनी सम्पति आदि को सबसे छिपाकर रखता है |उसे सदैव अपने धन वैभव की विस्तृत करने की चिंता लगी रहती है |


८)शंख निधि –यह रजोगुण युक्त निधि तमोगुण से भी युक्त होती है | ऐसा व्यक्ति स्वयम् के पराक्रम से उपार्जित धनादि का उपभोग  करता है ,संचय करता है |


९)खर्व निधि –खर्व का अर्थ विकलांग ,अपाहिज आदि होता है अतः इस तामसी निधि से संपन्न व्यक्ति विकलांग ,हिनाग या अधिकांश (छिंगा )या छोटे कद का होता है |वह बहुत घमंडी होता है |यह अपने प्रदर्शन खूब करता है लकिन बहुत वैभवशाली ,संपन होता है |



इस प्रकार ये कुबेर देव की नौ निधियां मनुष्यों की अर्थ देवता कही गयी है |सात्विक निधियां दुर्लभ है |राजसी निधि या कुछ न्यून (दुर्लभ )है |तामसी निधियां ही अधिक पायी जाती है किसी किसी व्यक्ति पर दो या उससे अधिक निधियों की दृष्टी भी हो सकती है | तो फिर आप भी इन्हें प्राप्त करने का प्रयास अवश्य करे|

नरसिंह उपासना से लक्ष्मी की प्राप्ति

ॐ क्षौं नमो भगवते नरसिंहाय प्रदीप्तसूर्य - कोटिसहस्त्रसमतेजसे वज्रनखदंष्ट्रायुधाय स्फुटविकट-विकीर्णकेसररसटाप्रक्षुभितमहार्णवाम्भोदुन्दुभिनिर्घोषाय सर्वमन्त्रोत्तारणाय एह्येहि भगवन्नरसिंह पुरुष परापर ब्रम्ह सत्येन स्फुर स्फुर विजृम्भ विजृम्भ आक्रम आक्रम गर्ज गर्ज मुञ्च मुञ्च सिंहनादं विदारय विदारय विद्रावय विद्रावयाऽऽविशाऽऽविश सर्वमंत्ररूपाणि मंत्रजातींश्च हन हन च्छिन्दच्छिन्द संक्षिप संक्षिप दर दर दारय दारय स्फुट स्फुट स्फोटय स्फोटय ज्वालामालासंघातमय सर्वतोऽनन्तज्वालावज्राशनि चक्रेण सर्वपातालानुत्सादयोत्सादय सर्वतोऽनन्तज्वालावज्रशरपञ्जरेण सर्व पातालान्परिवारय परिवारय सर्वपातालासुरवासिनां हृदयान्याकर्षयाऽऽकर्षय शीघ्रं दह दह पच पच मथ मथ शोषय शोषय निकृन्तय निकृन्तय तावद्यावन्मे वशमागताः पातालेभ्यः ( फट्सुरेभ्यः फण्मंत्ररूपेभ्यः भण्मंत्रजातिभ्यः फट्संशयान्मां भगवन्नरसिंहरूप विष्णो सर्वापद्भ्यः ) सर्वमंत्ररूपेभ्यो रक्ष रक्ष हुं फण्नमो नमस्ते ।

श्री सूक्तम्

धनतेरस के दिन से दीपावली पर्यंत श्री  सूक्त का निशा रात्रि में पाठ कर  मंत्र जागृत करले फिर नित्य तीन पाठ करने से उसके कुल में माँ लक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहती है ||   


ॐ  हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्त्रजाम् |

चंद्रां हिरण्मयीं  लक्ष्मीं  जातवेदो म आ वह || १ ||

तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् |

यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् || २ ||

अश्वपुर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम् |

श्रियं देवीमुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् || ३ ||

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् |

पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोप ह्वये श्रियम् || ४ ||

चंद्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् |

तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे || ५ ||

आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव  वृक्षोऽथ बिल्वः |

तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः|| ६||

उपैति मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह | 

प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् किर्तिमृद्धिं ददातु मे ||७||

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् |

अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद में गृहात् ||८||

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् |

इश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप हव्ये श्रियम् ||९||

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि |

पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ||१०||

कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम |

श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ||११||

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे |

नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ||१२||

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम् |

चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ||१३||

आर्द्रां यः कारिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् |

सुर्यां हिरण्मयीं  लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ||१४||

तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् |

यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्||१५||

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् |

सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ||१६||

कुण्डलिनी जागरण के आधार चक्र एवं मंत्र योग


कुंडलिनी के बाह्यभाग में स्वर्णवर्ण के चतुर्दल कमल [ मूलाधार ] का चिंतन करना चाहिए , जिसपर व , श , ष , स – ये चार बीजाक्षर स्थित है | उसके ऊपर छः दलवाला उत्तम स्वाधिष्ठान पद्म स्थित है , जो अग्नि के समान तेजोमय , हिरेकी चमकवाला और ब, भ , म , य , र , ल – इन छः बिजाक्षरोसे युक्त है | आधार षट्कोण पर स्थित होनेके कारण मूलाधार तथा स्व शब्द से परम लिंगको इंगित करनेके कारण स्वाधिष्ठान संज्ञा है | 


इसके ऊपर नाभिदेश में मेघ तथा विद्युत् के सामन कांतिवाला अत्यन्त तेजसंपन्न और महान प्रभा से युक्त मणिपूरक चक्र है | मणिके सदृश प्रभावाला होनेके कारण यह ‘मणिपद्म’ भी कहा जाता है | यह दस दलों से युक्त है और ड, ढ, ण , त , थ , द , ध , न , प , फ - इन अक्षरों से समन्वित है | भगवान् विष्णु के द्वारा अधिष्ठित होने के कारण यह कमल उनके दर्शन का महान साधन है| उसके ऊपर उगते हुए सूर्य के समान प्रभा से संपन्न अनाहत पद्म है | यह कमल क , ख , ग , घ , ङ , च , छ , ज , झ , ञ ,ट , ठ –इन अक्षरों से युक्त बारह पत्रों से प्रतिष्ठित है | उसके मध्य में दस हजार सूर्यों के समान प्रभावाला बाणलिंग स्थित है | बिना किसी आघात के इसमे शब्द होता रहता है | अतः के द्वारा उस शब्दब्रम्हमय पद्म को ‘अनाहत’ कहा गया है | परमपुरुष द्वारा अधिष्ठित वह चक्र आनन्द सदन है | उसके ऊपर सोलह दलों से युक्ता ‘विशुध्द’ नामक कमल है | महती प्रभा से युक्त तथा धुम्रवर्ण वाला यह कमल अ , आ , इ , ई , उ , ऊ ,ऋ ,ॠृ ,लृ , लृ , ए , ऐ ,ओ , औ , अं , अः, - इन सोलह स्वोरों से संपन्न है | इसमें हंसस्वरूप परमात्मा के दर्शन से जीव विशुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त हो जाता है | इसीलिए इसे विशुद्ध पद्म कहा गया है | | इस महान अद्भुत कमलको ‘आकाश’ भी कहा गया है | उसके ऊपर परमात्मा के द्वारा अधिष्ठित श्रेष्ठ ‘आज्ञाचक्र’ है | उसमे परमात्मा की आज्ञा का संक्रमण होता है , इसीसे उसे ‘आज्ञाचक्र’ – ऐसा कहा गया है | वह कमल दो दलोंवाला , ह तथा क्ष – इन दो अक्षरों से युक्त और अत्यंत मनोहर है |


उसके ऊपर ‘कैलाश’ नामक चक्र और उसके भी ऊपर ‘रोधिनी’ नामक चक्र स्थित है | इस प्रकार आपको आधार चक्रोंके विषय में बताया गया इस के और भी ऊपर सहस्त्र दलोंसे संपन्न बिन्दुस्थानरूप ‘सहस्त्रारचक्र’ बताया गया है | यह मैंने आपसे संपूर्ण श्रेष्ठ योगमार्ग का वर्णन कर दिया | सर्वप्रथम पूरक प्रणायामाके द्वारा मूलाधार में मन लगाना चाहिए | तत्पश्चात गुदा और मेढ्र के बीच में वायु के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को समेटकर उसे जाग्रत करना चाहिए | पुनः लिंग –भेदन के क्रमसे स्वयम्भू लिंग से आरम्भ करके उस कुण्डलिनी शक्ति को बिन्दुचक्र [ सहस्त्रार ] – तक ले जाना चाहिए | इसके बाद उस परा शक्ति का सहस्त्रार में स्थित परमेश्वर शम्भुके एक्यभावसे ध्यान करना चाहिये | 


वहाँ द्रवीभूत लाक्षारसके समान उत्पन्न अमृतका योगसिद्धि प्रदान करनेवाली माया नामक उस शक्तिको पान कराकर षट्चक्रमें स्थित देवतओंको उस अमृतधारासे संतृप्त करे |इसके बाद बुद्धिमान साधक उसी मार्गसे कुण्डलिनी शक्तिको मुलाधारतक वापस लौटा लाये | इस प्रकार प्रतिदिन अभ्यास करनेपर साधकको पूर्वोक्त सभी दुसित मंत्र भी निश्चितरूपसे सिद्ध हो जाते है ; इसमें सन्देह नहीं है | इसके द्वारा साधक जरा –मरण आदि दुःखों तथा भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है |जो गुण आदिपराशक्ति जगग्जननी भगवतीमें जिस प्रकार विद्यमान हैं ,वे सभी गुण उसी प्रकार उस श्रेष्ठ साधकमें उत्पन्न हो जाते हैं ;इसमें कोई संदेह नहीं है| 


इस प्रकार मैंने आपसे इस श्रेष्ठ प्राणायामका वर्णन किया है |आब आप सावधान होकर धारणा नामक योग का श्रवण कीजिये |दिशा ,काल आदिसे अपरिच्छिन्न भगवती में चित्त स्थिर करके जीव और ब्रह्मका ऐक्य हो जाने से शीघ्र ही साधक तन्मय हो जाता है और यदि चित्त के मलयुक्त रहने के कारण शीघ्रता पूर्वक सिद्धि प्राप्त न हो तो योगी को चाहिए की मेरे विग्रह के अंगो में [अपना मन स्थित कर के] निरंतर योग का अभ्यास करता रहे | साधक को भगवती के करचरणादि मधुर अंगो में चित्त को एक-एक करके केन्द्रित करना चाहिए और इस प्रकार विशुद्ध चित्त होकर उसे देवी के आदिशक्ति के समस्त रूपों को मन में स्थिर करना चाहिए | जबतक ज्ञानरूपिणी भगवती मे मन का लय न हो जाए, तब तक मंत्र जापक को जप-होम के द्वारा अपने इष्ट मंत्र का अभ्यास करते रहना चाहिए |


मंत्राभ्यास- योग के द्वारा ज्ञेय तत्व का ज्ञान प्राप्त हो जाता है | योग के बिना मंत्र सिद्ध नहीं होता और मंत्र बिना योग सिद्ध नहीं होता | अतः योग और मंत्र- इन दोनों का अभ्यास-योग ही ब्रह्म्सिद्ध का साधन है | अन्धकार से आच्छादित घर में स्थित घड़ा दीपक के प्रकाश में दिखाई देने लगता है, इसी प्रकार माया से आवृत आत्मा मंत्र के द्वारा दृष्टि गोचर होने लगता है | इस प्रकार आपको अंगोसहित सम्पूर्ण योग विधि इस समय आपको बतला दी| गुरु के उपदेश से ही यह योग जाना जा सकता है, इसके विपरीत करोडों शास्त्रों के द्वारा भी यह प्राप्त नहीं किया जा सकता है ||

 

|| पठतु संस्कृतम् भवतु संस्कृतम् ||

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