आवास की समस्या मनुष्य की सबसे पहली समस्या है और इसका मुख्य कारण जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि का होते जाना है | रोटी और कपड़े के बाद मनुष्य की तीसरी सबसे बड़ी आवश्यकता मकान (आवास)की है | प्रत्येक मनुष्य की यह मनोकामना होती है की उसकी अपनी हैसियत के मुताबिक उसका अपना मकान हो , जहां पैर फैलाकर , निश्चित होकर वह निद्रा का भोग कर सके,जिसे अपनी इच्छानुसार सजा-संवार सके, देवी-देवताओं को स्थान दे सके, पूजा-स्थल आदि का निर्माण कर सके |
विश्वकर्मा ने भवन के चित्रांकन एवं निर्माण विधि की जो जानकारी दि, उसे ‘वास्तुशास्त्र’ या ‘वास्तु कला’ कहते है | वास्तु भारत का प्राचीन शास्त्रीय ज्ञान है , जिसकी सार्वभैम प्रामाणिकता वेद और पुराणों के सामान है |वास्तु के सिद्धांतो का पालन करने से मनुष्य अपने जीवन में सुख और शांति पाता है |अधिकांश विद्वान वास्तु का तात्पर्य भवन निर्माण की कला से मानते है | वास्तु शब्द ‘वस्तु’ शब्द का आधार है , जिसका अर्थ है ‘जो है’ अथवा ‘जिसकी सत्ता है’ वो ही वास्तु है , इसलिए वस्तु से सम्बन्धित शास्त्र को ही ‘वास्तुशास्त्र’ कहा जाता है |
कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार , वास्तु ‘वस’ शब्द से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘वास करना’ अर्थात् ‘रहना’ है |वास्तु मात्र भवन-निर्माण कला का पर्यायवाची शब्द नहीं है , अपितु वास्तु का क्षेत्र भवन-निर्माण कला से अत्यंत विशाल एवं विस्तृत है | वास्तु का संस्कृत में शाब्दिक अर्थ ‘मनुष्य तथा देवों का निवास स्थान’ है |
वास्तुशास्त्र को विज्ञान भी कहा गया है | इसमें जो नियम निर्धारित हैं ,सारे प्राकृतिक नियमों के अनुसार हैं,सौरमंडल के ग्रह-उपग्रह की चाल,सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों का मनुष्य और भूमंडल तथा वास्तुमंडल पर उसका प्रभाव | ज्योतिषानुसार राशियों और नक्षत्रों पर नवग्रहों का प्रभाव आदि टे सारे सिद्धांत विज्ञान सम्मत है ,और इन्ही सिद्धांतो पर आधारित है, भारतीय वास्तुशास्त्र |
भारतीय वास्तुशास्त्र और पाश्चात्य वास्तुशास्त्र में बहुत अंतर है एवं आजकल का भारतीय भवन निर्माण विज्ञान आधुनिक युग की सुख-सुविधाओं को ध्यान में रखकर कम – से-कम खर्च, कम-से-कम क्षेत्रफल के भूखंड पर अधिकाधिक बहुमंजिले आवास बनाकर जनसमुदाय को उपलब्ध कराना है, पर ऐसे बने आवासस्थल भौतिक सुख तो प्रदान कर सकते हैं, किन्तु ये निर्माण शास्त्रोक्त विधि अनुसार न होने के कारण लोगों को रोग ,शोक, निर्धनता, आदि-व्याधि से घेरे रहते हैं,धन-लक्ष्मी का प्रवेश भी वहां न के बराबर होता है | यह ध्यान देने वाली बात है की जहां भौतिक सुख-सम्पदा होंगे, वह फिर अन्य सुविधाएं कहां मिल सकेंगी | आधुनिक भारतीय भवन-निर्माण कला एवं पाश्चात्य भवन-निर्माण कला केवल निर्माण-कला के बारे में ही अपना सिद्धांत रखते है ,वास्तु के जो दुसरे व प्रधान सूत्र हैं, उनका इन निर्माण विधियों से पालन नहीं किया जाता है | फलतः भवनों के कक्षों में सूर्य का प्रकाश , शुद्ध व ताजी वायु का आवागमन, शयन कक्षों की स्थिति , देव-स्थानों की उचित स्थिति एवं दिशा , अध्ययन-अध्यापन तथा अतिथि आदि के लिए उचित स्थान का आभाव रहता है और इसी कारण इस प्रकार के निर्माणों में मनुष्य वास करता है ,दुःख भोगता है ,और आर्थिक संकटों में जीता है |
भवन आदि पर पड़ने वाली सूर्य की किरणें और पृथ्वी पर उपलब्ध जल –ये दोनों तत्व अत्यंत पवित्र करने वाले हैं, ये ही मनुष्य के यज्ञ को आगे बढ़ाकर उसको उन्नत कर उसे धन-धान्य से पवित्र कर सुख-सौभाग्य के द्वार खोलते हैं , सुख और शांति प्रदान करते हैं | इसका स्पष्ट अर्थ है , यदि भवन में , आवास या दुकान में वायु, जल और प्रकाश की व्यवस्था है , तभी वहां धनागम, आर्थिक उन्नति , आरोग्यता तथा सुख –शांति व्याप्त होगी | सूर्य अपनी किरणें निरंतर भूतल पर छोड़ता है , ये किरणे हमारे आवास में प्रवेश कर आवासको पवित्र करती है तथा सूर्य किरणें ही पृथ्वी पर जल वर्षा कर धरा को धन-धान्य से परिपूर्ण करती है | यह सम्पदा हमें इश्वर ने दि है और इस प्रदत्त सूर्य किरणों और जल के द्वारा ही हम अपने समस्त कार्यों को पवित्र कर सकते है | धन-धान्य सम्पन्नता ,सुख-सुविधाओं को प्राप्त करने का सुगम साधन सूर्य और जल ही है | बहुत सारे अणुओं के पिंड में जो शक्ति होती है , वो ही शक्ति अन्य अणुओं में भी होती है , किन्तु उससे अधिक शक्ति परमाणुओं में होती है ,जो अणुओं के एक अंश मात्र है | आवास का अस्तित्व अणुओं के संयोग से होता है | निर्माण-कार्य बिना अणुओं के संयोग के संभव नहीं | अणु से रेत है , अणु से ही ईट है और उसी से सीमेंट बनता है , इन सबके मिलन से ही आवास निर्मित होता है , जो प्रकृति का ही अंश है |
संसार की अचर एवं चर सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ जिव मनुष्य है | परिणामस्वरूप इसके पास ज्ञान नाम की अतीव दुर्लभ सम्पदा है ,जिसका उपयोग वह अपने अहंकार के कारण नहीं करता और वह इश्वर द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक उर्जा का सम्पूर्ण प्रयोग नहीं कर पता , इसी कारण आज धरती पर वह दुखी और संतप्त है | प्रकृति के विरुद्ध आचरण करने की वजह से सुख-विलास के साधनों का उपभोग करता हुआ भी वह अत्यंत कष्ट भोग रहा है |
जहां भूतल पर व्याप्त गर्मी ,सर्दी,जल और वर्षा का आनंद मनुष्य को आरोग्यता का सुख प्रदान करता है | वहां अन्न ,फल एवं वनस्पतियों को पैदा होने में सूर्य-चन्द्रमा, वायु और वर्षा का ही महत्त्व है और उसी से जीवन है | मनुष्य उसके विपरीत सूर्य किरणों से,उसकी उर्जा से दूर हटकर वैज्ञानिक साधनों के द्वारा सूर्य किरणों की उर्जा-शक्ति को संगृहित कर उसके द्वारा अपने लिए कृत्रिम साधन उपलब्ध करता है और अल्पकालीन दैहिक सुख का अनुभव करता हुआ प्रकृति से दूर चला जा रहा है , साथ-साथ हमारे प्राचीन मनीषियों द्वारा प्रतिपादित वास्तु-सूत्रों को भी काल्पनिक कहकर नकारता हुआ दुःख भोग करता है |प्रकृति अपनी नियमबद्धता एवं एकरूपता में रहती है –अपने गुण, धर्म या नियमों का परित्याग नहीं करती | वायु, जल, अग्नि, सूर्य , चन्द्रमा , ग्रह और तारे आदि अपनी मर्यादा के अनुसार आचरण करते है | एवं अपनी एकरूपता को कभी नहीं छोड़ते | इसके विपरीत मनुष्य उसकी इस नियमबद्धता के विरुद्ध आचरण करता है | सूर्य,वायु और प्रकाश आदि की गति और नियम के विरुद्ध आचरण करने से यदि कष्ट का उपभोग करता है,तो उसमें दोष किसका है ? मनुष्य का यानी हमारा अपना है | हम बहुमंजिले भवन बनाते है, जिसमें न वायु प्रवेश करती है, न सूर्य की किरणें, न ही हम चन्द्रमा की रश्मियों का आभास पाते है ,न ही कभी खुले आकाश को निहार पाते है ,इस कारण रोग-व्याधियां तो होनी ही हैं | गर्मी में वातानुकूलित कक्षों में रहते है ,सर्दी में हीटर से गर्मी प्राप्त करते हैं | प्रकृति के संतुलित उर्जा स्रोतों से दूर जाकर सुख और सौभाग्य की कल्पना करते हैं | जो क्षणिक सुख तो देगी, पर कालांतर में इसका कुप्रभाव भी हमे भोगना पड़ेगा | तनिक सोचिए, जिस मकान में , फ्लैट या कक्ष में सूर्य की एक किरण भी प्रवेश नहीं करती, वहां लक्ष्मी का प्रवेश किस प्रकार संभव है ?
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः |
अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमति मन्यते ||
अर्थात् संपूर्ण कार्य प्रकृति के अनुसार ही होतो हैं , किन्तु मनुष्य अहंकारवश अपने आपको ही सब कुछ (महान ) मान लेता है तथा प्रकृति के विरुद्ध आचरण करता है |अब यदि उसे कष्ट भोगना पड़ता है तो कोई क्या कर सकता है |
वास्तुशास्त्र का मूल सिध्दांत है ,प्रकृति के अनुकूल प्रकृति के तत्वों के अनुसार भवन की रचना करना,जिससे भवन – स्वामी पूरा –पूरा लाभ उठा सके | किन्तु जो मनुष्य केवल अपनी पसंद का खयाल रखते हुए गलत निर्माण करता है , लक्ष्मी को प्रवेश का मार्ग नहीं देता , वह आर्थिक रूप से सदा परेशान रहता है | ब्रम्हांड में शक्ति तीन रूप में विद्यमान है –स्थूल रूप में ब्रह्माण्ड में दृष्टिगोचर है एवं सूक्ष्म रूप में वर्णमय रूप में विद्यमान तथा पररूप में शरीररूपी पिंड में क्रियाशील है | बाह्य जगत में ग्रह, उपग्रह, अग्नि, वायु और जलादी जो चैतन्य स्वरुप दृष्टिगोचर होता है , वही तो गति है , वही तो क्रियाशील होता है ,उसी के प्रभाव से हम अपना जीवन जीते है ,उसके सिद्धांतो के अनुरूप यदि हमारा आवास है तो फिर ब्रह्माण्ड में व्याप्त शक्तियों का हम पूरा-पूरा उपभोग कर सकते हैं |धन-धान्य व शरीर से सुखी रह सकते हैं | यदि उक्त शक्तियों के विपरीत यानि प्रकृति के नियमों के विपरीत हमारा आचार-व्यवहार अथवा आवास-प्रवास है, तो फिर निश्चित ही हमें उसके विपरीत फलों को भोगना पड़ेगा | गरुण पुराण में स्पष्ट लिखा है-
सुखस्य दुखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा |
स्वयं कृतं स्वेन फलेन युज्यते शरीर हे निस्तर यच्वया कृतम् ||
सुख और दुःख कोई देनेवाला नहीं है ,हम अपनी कुबुद्धि के अनुसार आचरण करने ,प्रकृति के विरुद्ध व्यवहार ,आहार-विहार, वास-प्रवास करने के कारण दुःख भोगते है ,क्योंकि ये दुःख और कष्ट हमारे द्वारा बुलाए जाते है | वस्तुतः हम पृथ्वी पर पंचभूतों के विपरीत अपना जीवन निर्वाह करते है |
कभी-कभी ऐसा होता है कि मकानादी का निर्माण वास्तुपरक किया गया होता है , किन्तु फिर भी धनलक्ष्मी गृहस्वामी से कोसों दूर रहती है | अनेक प्रकार की विपत्तियां और व्याधियां उसे घेरे रहती है |इसका कारण यह है कि मकान में लगाया गया एक वृक्ष भी शुभता या अशुभता का सूचक हो जाता है | अतः निर्माण के साथ-साथ इन बातों का ध्यान रखना भी आवश्यकता है | वास्तुशास्त्र के महान ज्ञाता वाराहमिहिर के अनुसार , आवास गृह के समीप पलाश, वट, उदुम्बरा, पीपल यदि पश्चिम, उत्तर या पूर्व में हो तो गृहस्वामी को आपदाओं में डालने वाले होते है | किन्तु यदि यही वृक्ष अर्थात् उत्तर में पलाश, पूर्व में वाट वृक्ष, दक्षिण में उदुम्बरा (गुलर) एवं पश्चिम में पीपल हो तो धन से गृहस्वामी को सुखी बनाते हैं | आवास गृह के पास कौन से वृक्ष अथवा पौधे लगाने अथवा नहीं लगाने चाहिए, इसका विस्तार निम्नलिखित है-
गृहपार्श्वे च फलिनो दुग्धाः कष्टकिनोऽशुभः | शस्ता च कदली जतिश्चंपकाः पटला द्रुमा ||
छाया वृक्षस्य न शुभा यामादूर्ध्व कदाचन | न प्रभा दुष्फलदा याममात्राय शेषके ||
गृह के निकट फल वाले तथा क्षीर (दुग्ध)वाले एवं रोवें , कांटों वाले वृक्ष अशुभ होते हैं | केला,चंपा,चमेली और पटल वृक्ष शुभ है | एक प्रहर से अधिक की छाया गृह पर पड़ना शुभ नहीं है तथा एक प्रहर की छाया का शेष रहना भी अशुभ माना गया है |
निलीं हरिद्रां च नरः सदप्खा, पुत्रौर्धनैश्च क्षयम्युपेयात् |
एतास्तु सर्वा स्वमेव जाता , श्छिन्द्यादुषीणां वचनाद्विधिज्ञः ||
अपने गृह के उपवन में नीली एवं हरिद्रा के गाछ को लगानेवाला व्यक्ति अपने विनाश को स्वयं ही आमंत्रित करता है एवं स्वयं तो वो नष्ट होता ही है ,साथ – साथ धन सम्पति एवं पुत्र – पुत्रों के अनिष्ट का कारण भी बन जाता है | इन पौधों को लगाना तो दूर की बात है , यदि अपने आप ही ये पौधे उद्यानादि में उग आएं, तो उन्हें तुरंत नष्ट कर देना चाहिए , ऐसा विद्वानों का कथन है |
नकुयुर्याम्य नैरुर्त्यत्यागनेप्वपिहि वाटिकाम् |
अन्यथा कल्होद्वेगौ कष्टं वा लभतेमृशम ||
गृहस्वामी को गृह निर्माण के बाद के नैऋत्य कोण एवं अग्नि कोण (आग्नेय) में बगीचा या उद्यान नहीं लगाना चाहिए | यदि ऐसा किया जाता है तो उसका फल दुखदायी और विनाशकारक होता है |
बर्ज्येत्यूत तोश्व्त्थं प्लक्षंदक्षिणतो गृहात् |
पश्चिमे चैव न्यग्रोथं तथोदुम्बर मुत्तरे ||
गृहस्वामी को पूर्व दिशा में पीपल का वृक्ष , दक्षिण दिशा में पलाश का वृक्ष , पश्चिम दिशा में वट वृक्ष एवं उत्तर दिशा में उदुम्बर वृक्ष कभी नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि की गृहस्वामी को कष्ट प्रदान करता है |
सर्वेषाः वृक्ष जातीनां छाया वज्यां गृहे सदा |
अपि सौवर्णिक वृक्ष गृहद्वारे न रोपयेत् ||
गृहस्वामी को अपने मकान के ऊपर किसी भी वृक्ष की छाया नहीं पड़ने देना चाहिए | अर्थात मकान के ऊपरकिसी भी वृक्ष की छाया नहीं पड़नी चाहिए , वृक्ष चाहे सोने का फल देनेवाला ही क्यों न हो ,अनिष्टकारी होता है |
आसन्न कंटकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोर्थ नाशाय |
फलनिं प्रजाक्षयकरा दारुणयपी वर्जयेतेषाम् ||
घर के पास कांटेदार वृक्ष हो तो गृहस्वामी को हर समय शत्रु की ओर से भय बना रहता है | क्षीर-वृक्ष वास्तु गृह के निकट होना धन हानिकारक है (अर्थात् उस घर से लक्ष्मी चली जाती है) | फलवाला तथा काँटों से परिपूर्ण वृक्ष, जिसमे दुध जैसे रस निकलता हो , घर के निकट होने से जन हानि होती है | अतः गृह-निर्माण के समय इस प्रकार के वृक्षों को हटा देना चाहिए , वे चाहे कितने ही श्रेष्ठ क्यों न हों |
बदरी कदली चैव दाड़िमी विजपूरकम् |
प्ररोहंती गृहे यस्य तद्गृह न प्ररोहंती ||
जिसके घर में बदरी , कदली , दाड़िम और अरंड आदि वृक्ष फलते-फूलते हैं ,उस गृह में गृहस्वामी के पुत्र-पौत्रों की वृद्धि प्रायः असंभव है |
पलाशाः काच्व नाराश्च तथा श्लेष्मातका अर्जुनाः |
करच्चाश्चे त्यमी वृक्ष न रोप्याः सुखिना गृहे ||
जो व्यक्ति अपने आवास में सुख-शांति और समृद्धि की कामना करता है , उसको अपने गृह उद्यान में पलाश, कचनार, श्लेशमंतक, अर्जुन एवं करंजादी वृक्ष कभी नहीं लगाने चाहिए |
अथ निवासपन्न तरु शुभाशुभ लक्षणानि | गृहस्थ पूर्वदिग्भागे न्यग्रोधः सर्वकामिकः ||
उदुम्बरस्तथा याम्ये वरुणायां पिप्पलः शुभः |प्लक्षश्चत्तरतो धन्यो वितरीतान्स्तु वर्जयेत् ||
गृह के निकट वृक्षों के होने का शुभ लक्षण यह है | गृह के पूर्व दिशा में बरगद का वृक्ष होना गृहस्वामी की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाला होता है | उदुम्बरा का वृक्ष दक्षिण में , पीपल का वृक्ष पश्चिम में एवं पलाश का वृक्ष उत्तर में स्थित हो तो उत्तम फलदायक माना गया है | इनके अतिरिक्त दुसरे कोई भी वृक्ष हों तो उन्हें अशुभ कहा गया है ,अतः गृह के पास ऐसे वृक्षों का होना वर्जित है |
तस्माद्राक्षा हि शुभदं पुत्रन्सनिधिवर्धनम् |
पश्चिमोत्तर पूर्वेषु भवेदुपवनं कृतम् ||
यदि कोई व्यक्ति अपने आवास के उत्तर अथवा पश्चिम दिशा में उद्यान बनवाता है तो उसकी वंश-वृद्धि होती है | अर्थात् पुत्र-पौत्र अधिसंख्यक होते हैं | अतः अपना गृह उद्यान उत्तर एवं पश्चिम दिशा मे बनना चाहिए |
यावाद्दिनांनी तुलसी रोपित यद्गृहे बसेत् |
तावद्वर्ष सहस्त्रानि बैकुंठ स महीयते ||
वह व्यक्ति अवश्य ही हजारों वर्ष तक वैकुण्ठ धाम में रहने का अधिकारी होता है, जिसके घर में तुलसी का पौधा सदा विद्यमान रहता है |
एवमेव हि योश्वत्थम् रोपयेद्विधिना नरः |
यत्र कुत्रापि वा स्थाने गच्छेत्स भवनं हरेः ||
जो व्यक्ति अपने उद्यान में पीपल का वृक्ष विधि-विधान पूर्वक लगता है , वह श्रीविष्णु धाम को प्राप्त होता हैं | अर्थात् उसे बैकुंठ में वास मिलता है |
तेनेष्टा वहवो यज्ञास्तेन दत्ता बसुन्धरा |
स सदा ब्रह्मचारी स्याध्येन धात्रीप्ररोपिताः ||
जो व्यक्ति आंवले के वृक्ष का रोपण अपने गृह उद्यान में करता है , उसको ब्रह्मचारी ब्राह्मणों का सतत आशीर्वाद मिलता है तथा वह अनेकानेक यज्ञों के पुण्य का भागीदार बनता है |
वाट वृक्ष द्वयं भर्त्यो रोपयेधो यथा विधि |
शिवलोके बसेत्सोपि सवितस्वप्रो गणैः ||
दो वाट वृक्षोंका रोपण जो व्यक्ति करता है , वह निश्चय शिवधाम को जाता है | उसका स्वागत गन्धर्व एवं अप्सराओं के द्वारा होता है |
यस्तु संरोप येद्विल्वं शंकर प्रीतिकारकम् |
तत्कुलेपि सदा लक्ष्मीः संतिष्ठेत् पुत्रपौत्रिकी ||
भगवान शंकर का अति प्रिय बिल्व वृक्ष घर के उद्यान में रोपण करने वाले व्यक्ति के घर में लक्ष्मी महारानी पुश्त-दर-पुश्त विराजमान रहती है | उपरोक्त बातों से स्पष्ट होता है कि मकान में लगा या लगाया गया एक वृक्ष भी रोग,भय, निर्धनता और मृत्यु प्रदान कर सकता है तथा श्रेष्ठ, और उचित स्थान का वृक्ष मकान में धनलक्ष्मी के आगमन को प्रशस्त कर मनुष्य को सुख, ऐश्वर्य और धन-धान्य से परिपूर्ण कर देता है |