SHIV IS THE ONLY TRUTH

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वास्तु का महत्त्व

Importance of Vastu

भवन – विन्यास का जो स्वरूप वैदिक काल से आज तक एक परंपरा के रूप में भारत में विद्यमान है  , उसमें सादगी और सुरुचि है | चारों दिशाओं में दैनिक सम्बंध है |   जीवन के विभिन्न कर्म – धर्म और सुख – भोग के सुरक्षित तौर – तरीके है | वैदिक साहित्य से ज्ञात  होता है कि प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृती सौम्य  और सुरुचिपूर्ण है |इसी कारण उस काल में भवन – निर्माण में अधिक आडम्बर नहीं था | त्रेतायुग के रामकाल में और द्वापर युग के कृष्णकाल में न जाने कितने भवन – प्रासाद – मंदिर – दुर्ग  – आवास बने , न जाने कितने नगर बसे , न जाने किन – किन पुरियों का निर्माण देव – शिल्पी विश्वकर्मा और असुर शिल्पी मयदानव ने किए – वे सारे कालांतर में पुनः नवीन निर्माण के लिए मिट गए , उनका ध्वंस हो गया | यद्यपि उनके शिलान्यास के समय हमारे ऋषि – मुनियों ने विधि – विधान से शिलान्यास कार्य को सम्पन्न करवाया , वेद ऋचाओं के द्वारा गृहप्रवेश आदि की क्रियाएं संपन्न की गई | सारा अनुष्ठान शास्त्रोक्त विधि से हुआ , फिर भी कालांतर में उन निर्माणों को मिटना  पड़ा और नए निर्माणों के लिये भूतल को खाली करना ही पड़ा | प्रकृति का यही शाश्वत नियम है, जो बनता है उसे मिटना भी पड़ता है और फिर उस खाली  स्थान को भरने के लिये नव – निर्माण का यह क्रम चलता रहता हैं | यह  ऐसा ही है जैसे मनुष्य जन्म लेता है , मृत्यु को प्राप्त होने के लिये और पुनः जन्म लेने के लिये |


रामकाल के बाद महाभारतकाल यानी कृष्णकाल में वास्तु कला बहुत  अधिक उन्नत थी | श्रीकृष्ण की राजधानी द्वारिका के अनेक विराट् भवनों का  वर्णन शास्त्रों में मिलता है | महाभारत का महायुद्ध द्रौपदी के हंसने के कारण हुआ था, द्रौपदी क्यों हंसी थी ? इसका उत्तर भी वास्तु सम्मत है | इन्द्रप्रस्थ का निर्माण इतना विचित्र था कि राजमहल के अन्दर प्रवेश करने पर यह जानना कठिन था कि कहां फर्श है एवं कहां जल व द्वार कहा है और कहां दीवार है | दुर्योधन जब राजमहल में प्रविष्ट हुआ तो द्रौपदी छज्जे पर  खड़ी थी | दुर्योधन राजमहल में प्रवेश कर , एक स्थान को फर्श समझकर उस पर चलने लगा | वस्तुतः फर्श दिखाई देने वाला वह स्थान एक जलाशय था , दुर्योधन उस जलाशय में उतर गया | यह दृश्य देखकर द्रौपदी खिलखिलाकर हंस पड़ी | दुर्योधन ने इसे अपना अपमान समझा और यही घटना महाभारत युद्ध का कारण बनी |           


भारतीय धर्मग्रंथों , वेद – पुराणों एवं प्राचीन निर्माण कार्य में अष्टकोणात्मक निर्माण को बड़ी प्रधानता दी गई थी | प्राचीन राजप्रासाद , मंदीर तथा स्नार्क – भवनों का यदी अध्ययन किया जाए , तो हमें स्थान – स्थान पर अष्टकोणात्मक निर्माण देखने को मिलेंगे | सम्भवतः  इसका कारण यह है कि हमारी धार्मिक परंपरा में  आठों कोणों की दिशाओं का बड़ा महत्व है | वाल्मीकि रामायण में रामावतार  के समय में जीस अयोध्या नगरी का वर्णन आया है , वः स्पष्ट रूप – से अष्ट कोणात्मक निर्माण का वर्णन करता है | अयोध्या का निर्माण अष्टकोणात्मक था तथा भवन आठ माला निर्मित हुए थे |हिन्दू राजा – महाराजा अपने भवन प्रासाद , देवालय निर्माण के समय श्रीराम के काल के समय के अष्टकोणात्मक निर्माण को प्रधानता देते थे |


हमारे धर्म – ग्रन्थों के अनुसार देवताओं का प्रभुत्व अथवा उनका प्रभाव सभी दसों दिशाओ में व्याप्त है , अतः आठों दिशाओं में अष्टकोणात्मक निर्माण आठों दिशाओं के अनुग्रह प्राप्त कराता था तथा भवन का आधार अर्थात् नींव पाताल दिशा तथा भवन के ऊपर का गुंबज आकाश दिशा – इस प्रकार दसों दिशाओं का अनुग्रह भवन को प्राप्त होता है | हिन्दू धर्म में सभी आठों दिशाओं के विशिष्ट नाम निर्धारित हैं एवं उन आठों दिशाओं के आठ दिग्पाल निश्चित हैं और वे दिग्पाल अपनी -अपनी दिशाओं की रक्षा करते हैं |  भमि पर की नींव तो वास्तुदेवता के निवास पर स्थापित होती है ,क्योंकि वास्तुदेवता भूमि के नीचे सोए हैं एवं भवन की नींव उन्हीं के क्षेत्र में आती हैं , इसलिए सबसे पहले वास्तुदेव की पूजा आवश्यक कही गई है | गुम्बज आकाश की ओर उठा रहता है और आकाश से सब ग्रहों का संचारण दृष्टिगत होता है | सारे ग्रह आकाश सेर ही धरातल पर अपना प्रभाव विस्तारित करते हैं |इस प्रकार भवन पूर्णतया दसों दिशाओं को संतुष्ट करता है | अतः अष्टभुजात्मक अथवा अष्टकोणात्मक निर्माण सर्वभांति उतम श्रेणी में गिना जाता है तथा ऐसे भवन में लक्ष्मी सदा निवास करती है |आज की बढ़ती हुई जनसंख्या और कम पड़ती हुई भूमि पर उपरोक्त्तप्रकार का निमार्ण कर सकना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है |ऐसे भवन –निमार्ण में धन भी बहुत लगता है |राजा – महाराजाओं को धन –संपति विरासत में मिलती थी , किन्तु आज स्वंय धन कमाना पड़ता है तथा व्यक्ति नक्शों आदि के फेर से भी बंधा होता है | अष्टकोणात्मक निमार्ण मंदिर ,देवालयों तथा मठों तक ही सिमित रह गया है | प्राचीन ऐतिहासिक भवनों के चारों तरफ बड़ें –बड़ेंप्रवेशद्वार आठ – आठ बुर्जो वाले स्तंभ ,द्वारों पर अष्टदल कमल ,द्वारों के बाहर गज (हाथी )प्रतिमा , अश्व (घोड़ा ) प्रतिमा अथवा गन्धर्व प्रतिमाओं का विद्यमान होना आज भी प्राचीन वास्तु शिल्पों में देखने को मिलेगा | चार द्वार वाले महलों , भवनों , मठों को वास्तुशास्त्र उत्तम श्रेणी का मानता है , इसलिए भारत के अनेक मंदिर चार द्वार वाले हैं  |


प्राचीन समय में वास्तुशास्त्र का ज्ञान आज से अधिक था | उस समय में निर्माण – कार्य करते समय वास्तु के सूक्ष्म – से – सूक्ष्म सिध्दांत तथा ज्योतिष एवं खगोलशास्त्र के  सीध्दांतों को ध्यान में रखकर निर्माण – कार्य करते टे | यही कारण है की प्राचीन शिल्पियों द्वारा नीर्मित भवन आज भी ज्यों के त्यों खड़े है | कहने का तात्पर्य यह है कि आज की तुलना में हमारे प्राचिंकाल का वास्तु शिल्प बहुत उन्नत था | आज वैसा निर्माण – कार्य कहां सम्भव है , वह तो अब कल्पना मात्र रह गया है | हम उस प्राचीन निर्माण का वर्णन जब अपने वैदिक ग्रंथों में पढ़ते है , तो अजीब – सा , कुछ कल्पनालोक में ले जाने जैसा लगता है |मयदानव , विश्वकर्मा आदि प्रवीण वास्तुशास्त्री एवं उन शील्पशास्त्र के ज्ञाता शील्पाचायों के निर्माण – सूत्र आज भी उपलब्ध हैं | इन महान वास्तुशास्त्रियों द्वारा प्रमुख सीद्धान्तों , दिशाओं , वास्तुपुरुष – पूजा , भूमि – शोधन , ग्रह – नक्षत्र गणना आदि प्रधान नियमों का पालन करते हुए छोटे भूखंड पर भी सुखपूर्वक निवास के लिए मकान का निर्माण क्र सकते हैं |


जिस प्रकार भवनादि में लक्ष्मी के मार्ग को  प्रशस्त रखना  चाहिए , उसी प्रकार वहां वायु , जल और प्रकाश की भी पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए , तभी वहांका वातावरण सुख-शान्तिमय ,खुशहाली और धनादि से परिपूर्ण रह सकेगा | वास्तुशास्त्र का मूल सिद्धांत है ,प्रकृति के अनुकूल ,प्रकृति के तत्वों के अनुसार मकान/दुकान या भवनादि की रचना करना तथा उससे पूरा-पूरा लाभ उठाना | किन्तु जो लोग इसे महत्व नहीं देते , वो सदा कष्टमय जीवन जीते है ,लक्ष्मी का प्रवेश न होने कारण आर्थिक रूपसे संपन्न नहीं होते और तंगी और विभिन्न रोगों से ग्रस्त रहते है |


यह तो अब तक विदित हो गया होगा की वास्तुशास्त्र कोई नया सिद्धांत नहीं है | यह तो अनादि हैं | प्राचीन ग्रन्थों में इसका सविस्तार उल्लेख मिलता है |इसके सिद्धांत को पञ्च-तत्वों पर आधारित मन गया है | पञ्च तत्व से ही हमारा शारीर निर्मित है और पञ्च तत्व से ही आवास गृह का निर्माण होता है | अंड,पिंड ,एवं ब्रक्तांड में जो पञ्च- तत्व हैं ,वही आवास ग्रिओह में हैं ,वह शारीर में ब्रह्मांडे ये गुणाः सन्ति शरीरे तेप्यवस्थिताः हैं | योग दीपिका में आया है ,अण्डे तु ये प्रपंचाः स्युः पिण्डे ते च प्रतिष्ठिताः लघुत्वं गुरुतां चर्ते न भेदस्त्वण्डपिण्डयोः |


पञ्च-तत्त्व का जो विस्तार,जो व्यापकता ब्रह्माण्ड मैं है , वही पिंड (पृथ्वी)पर है , इसमें कोई भेद नहीं है | इन्हीं तत्वों को आधार मानकर ,वास्तु अनुरूप जो निर्माण हुए,वे आज भी विद्यमान है | छोटे से देश मिस्र में लोगों का वास्तु ज्ञान कितना उन्नत रहा होगा कि वहां निर्मित विश्व का सबसे ऊंचे पिरामिड हजारों वर्ष बाद भी कायम है तो भारत देश का तो कहना ही क्या है | वास्तु की उत्त्पत्ति तथा वास्तुशास्त्र का प्रचार-प्रसार यहीं से हुआ,इसलिए यहाँ के लोगोंके लिए यह बात किसी गौरव से कम नहीं है | भारत के उड़ीसाप्रदेश में बना कोणार्क का मंदिर वास्तु निर्माण कला का जीवंत उदाहरण है | कहते है कि कोणार्क के सूर्य मंदिर के साथ बहने वाले समुद्र सेहोकर जब भी कोई जहाज दिन के उजाले में गुजरता था तो वह मंदिर के पाषाणों की चुंबकीय शक्ति से आकर्षित होकर मंदिर के पास चला आता था और सूर्य के अस्त होने के बाद ही आगे बढ़ सकता था | यह देख अंग्रेजों ने सूर्य मंदिर के चुंबकीय गुणों वाली प्रस्तर शिलाओं को बारूद से उड़ाकर उसके चुम्बकीय गुणों को समाप्त कर दिया था और मंदिर को भी छतिग्रस्त कर दिया,किन्तु आज भी समुद्र किनारे कोणार्क मंदिर आजाश की ओर मुख उठाए खड़ा है | तिरुपति बालाजी का मंदिर अपने वास्तु गुणों के कारण एवं वास्तु अनुसार निर्माण के कारण आज संसार का सबसे अधिक ऐश्वर्यशाली मंदिर है ,इसके ऐश्वर्य में कभी कमी नहीं आयी और उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है |इस मंदिर में प्रतिष्ठित श्रीयंत्र भी उसकी धन-सम्पन्नता एक कारण है |   


भारतवर्ष एक पुण्य क्षेत्र |सभ्यता का विकाश सबसे पहले यहीं से हुआ था |देवों का अवतार भी इस पवन भूमि पर हुए |सर्वप्रथम मानव-जीवन की उत्पत्ति भारत रूपी इसी भूखंड पर हुई और बाद में जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती गई,देश रूपी दुसरे भूखंड खोजे गए और मनुष्यों ने अपने निवास के लिए वहां की शरण ली | विष्णु पुराण में इस भारत भूमि को जम्बू द्वीपके नाम से संबोधित किया गया है | विश्व के महान ऋषियों की यह भूमि भारत वर्ष के नाम से विश्व में प्रसिद्ध है | यदि इस भारत देश को एक भूखंड के रूप में लें अथवा विचार करे, तो हमें वास्तु सिद्धांत के अनुसार यह भूखंड वास्तु दोष से परिपूर्ण मिलेगा | इसका कारण,०भरत के दक्षिण में जल (समुद्र)एवं उत्तर में हिमालय पर्वत है | जिस भूमि के उत्तर में पर्वत तथा दक्षिण में जल हो, वास्तुशास्त्र उसे त्रुटिपूर्ण कहता है |इस पर भी ऐसा भूखंड आध्यात्मिक उन्नति का क्षेत्र होता है ,इसलिए भारत देश जगात्गुरुओं का क्षेत्र कहा जाता है | वास्तुशास्त्र का विचार एक पुरे देश के आधार से नही होता |वास्तु का विचार आवासीय भूखंडों एवं नगरों के अनुसार होता है |


यदि नगर के उत्तर में कोई बड़ी नदी बहती हो तो उस नदी के उत्तरी तट पर स्थित नगर काफी विकसित होते है, इसके विपरीत उस नदी के दक्षिण तट पर बसे नगर इतने उन्नत नहीं होते | जिन नगरों की पूर्व दिशा में नदी होती है,वे भी संपन्न होते है | जिन नगरों के पश्चिम में नदी होती है उनका विकाश धीमा होता है |


आवासीय भूखंडो का वास्तु निर्णय विशेष रूप से किया जाता है |जल की उपलब्धि किस दिशा में स्थित है तथा पहाड़-पठारआदि किस दिश में स्थित है,उसको देखकर वास्तु भूमि की उत्तम,मध्यम एवं निम्न स्थिति का निर्णय होता है| आर्य सभ्यता का विकाश ही नदियों के किनारों पर हुआ,गंगा,यमुना आदि भारत में कितनी ही बड़ी-बड़ी नदियां है, उनके किनारों पर ही भारत के अधिकांश शहर बसे हुए है |पर्वतो पर नगर बसे है तथा पर्वतों की तराई गृह –आवासों की कोई कमी नहीं |जैसा की हमने बताया की भारत पुण्य भूमि है और इसमें पवित्र नदियों की कमी नहीं है |जितने भी व्यावसायिक एवं बड़े – बड़े उन्नत नगर हैं ,सरे नदियों के किनारे बसे हुए है |जलस्रोत का वास्तु भूमि के साथ बड़ा निकट का सम्बन्ध है |


एक  विद्वान वास्तुशास्त्री लिखते हैं कि एक वास्तु खंड पर एक आवासीय गृह निर्माण करते हैं , जो वास्तु के  सिद्धांतो का विवेचन कर यह देखने को मिलता है की भूखंड पर वास्तुशास्त्र निर्माण की आज्ञा नहीं  देता , किन्तु फिर भी ऐसे भूखंड पर निर्माण कर , उसमें रहने वालों को सुखपूर्वक जीवन यापन करते  हुए देखा गया  | तब हम यह सोचने को बाध्य हुए कि क्या वास्तुशात्र के  सूत्र मिथ्या है |


दरअसल बात यह नहीं हैं \ हम एक वास्तु भूमि के आसपास की सारी चीजें देखकर इस तथ्य पर पहुंच जाते है की भूखंड भवन निर्माण के लिए उपयुक्त नहीं हैं , पर हम इस बात पर ध्यान नहीं देते कि वास्तु भूमि के उत्तर या  पूर्व में एकाध किलोमीटर की दुरी पर एक विशाल या छोटी नदी बह रही है , यानी जलस्त्रोत है | इसलिये वास्तु भूमि का विचार करते समय जलस्त्रोत दूर या थोड़ी दूरी पर हो , इसका विचार आवश्यक है | उसके बाद आप अपने भवन का निर्माण कैअते समय वास्तुशास्त्र के अनुसार अपने भवन के जलस्त्रोत का निर्माण करें , मुख्य द्वार का निर्माण  करें,  वास्तुशास्त्रानुसार देवस्थान का निर्माण करें | इसी प्रकार भोजनालय, शुचागर, अध्ययन कक्ष, द्वारों की संख्या,भवन के अन्दर खिड़की,जीने की पौढ़ियों  की संख्या,वास्तुदेव प्रतिष्ठा एवं गृह प्रवेश कर्म वास्तुशास्त्र के नियम से यदि करेंगे, तो भवन अवश्य ही मंगलमय, धनदायक एवं रोगनाशक सिद्ध होगा | वास्तु का यही महत्त्व है |

वास्तु दिशा का महत्व एवं ग्रहतथा दोष निवारण से उपाय

Importance of vastu directions & remedies

दक्षिण दिशा का महत्व :- दक्षिण दिशा का स्वामी यम ,आयुध दंड एवं प्रतिनिधि ग्रह मंगल है | मंगल सांसारिक कार्यक्रम को संचालित करने वाली विशिष्ट जीवन दायिनी शक्ति है | यह सभी प्राणियों को जीवन शक्ति देता है और उत्साह और स्फूर्ति प्रदान करता है |  किन्तु इसके बुरे प्रभव से शारीरिक भावनात्मक मानसिक, एवं आध्यात्मिक व्यग्रता बनी रहती है | यह धैर्य तथा पराक्रम का स्वामी होता है | दक्षिण दिशा से कालपुरुष के सीने के बाए भाग, गुर्दे एवं बाएं फेफड़े का विचार किया जाता है |कुंडली का दशम् भाव इसका कारक स्थान है | यदि घर के दक्षिण में कुआं ,दरार, कचरा, कुड़ादान एवं पुराना कबाद हो तो ह्रदय रोग, जोड़ो का दर्द, खून की कमी, पीलिया आदि की बिमिरियां होती है | यदि दक्षिण में कुआं या जाल हो तो अचानक दुर्घटना से मृत्यु होती है दक्षिण द्वार नैऋत्याभीमुख हो तो दीर्घ व्याधियां एवं अचानक मृत्यु होती है | साथ ही दिशा दोषपूर्ण होने पर स्त्रियों में गर्भपात, मासिक धर्म में अनियमितता रक्त विकार, उच्च रक्तचाप, बवाशिर, दुर्घटना, फोड़े –फुंसी, अस्थि मज्जा, अल्सर आदि से सम्बन्धित बीमारियाँ देती है तथा नौकरी-व्यवसाय में नुकसान, समाज में अपयश, पितृसुख  में अवरोध, पिता के व्यसनी  होने, सरकारी कामो में असफलता आदि की सम्भावना रहती है |


ईशान दिशा का महत्व


इशान दिशा का स्वामी रूद्र ,आयुध त्रिशूल एवं प्रतिनिधि ग्रह बृहस्पति है | बृहस्पति को सर्वाधिक शुभ ग्रह कहा गया है | खासकर आध्यात्मिक विकाश के लिए प्रयत्नशील जिज्ञासुओं के लिए बृहस्पति अती शुभ होता है | इसका प्रभाव सर्वदा सात्विक होता है | यह प्रत्येक उस वास्तु को,जिससे उसका सम्बन्ध हो ,बड़ा बनता है | यही कारण है की गुरु वृद्धिकारक है और परिवार की वृद्धि के प्रतिक पुत्र का कुंडली में प्रतिनिधित्व करता है | बड़ा होने से ही बृहस्पति बड़े भाई का प्रतिनिधि है |साथ ही बड़ा होने से बृहस्पति स्त्री की कुंडली में उसका पति है |जन्म कुंडली का द्वीतीय एवं तृतीय भाव ईशान में आते है | अत्यधिक पवित्र दिशा होने के कारण इसकी सुरक्षा अनिवार्य है | यदि इशान दिशा में दोष हो तो पूजा पाठ के प्रति रूचि की कामी ,ब्राह्मणों एवं बुजुर्गों के सम्मान में कमी धन एवं कोष की कमी एवं संतान शुख में कमी बनी रहती है | साथ ही वसा जन्य रोग और लीवर ,मधुमेह ,तिल्ली आदि से सम्बन्धित बीमारियाँ आदि होने की सम्भावना रहती है | यदि उत्तर –पूर्व में रसोई घर हो तो खांसी ,अम्लता ,मन्दाग्नि,बदहजमी ,पेट में गड़बड़ी और आंतो के रोग आदि होते है |


वायव्य दिशा का महत्व


  वायव्य दिशा का स्वामी वायु एवं आयुध अंकुश है | इस दिशा का प्रतिनिधि ग्रह चन्द्र है | चन्द्र में शुभ और अशुभ तथा सक्रिय एवं निष्क्रिय दोनों प्रकार की क्षमता होती है | जब चन्द्र शुभ होता हो तब जातक को सुकीर्ति और यश मिलता है |उसका समुचित मानसिक विकाश होता है , पारिवारिक जीवन सुखमय होता है और मात्रिसुख का अनुभव होता है | वह देश-विदेश का भ्रमण करता है | वह विद्वान ,कीर्तिवान,वैभवशाली एवं सम्मानित होता है और उसे राज-सम्मान की प्राप्ति होती है | परन्तु वायव्य के अशुभ होने पर जातक निर्धन ,मुर्ख, उन्मादग्रस्त, तथा कदम-कदम पर ठोकरें खाने वाला होता है | यह काल पुरुष के घुटनों एवं कोहनियों को प्रभावित करता है | जन्म कुंडली का पांचवां एवं छठा भाव वायव्य के प्रभाव में आते है | इस कोण में दोष रहेंगे तो जातक को पेट में गैस , चर्म रोग ,छाती में जलन , दिमाग के रोग और स्वभाव में क्रोध रहता है साथ ही जातक को शत्रु अधिक होंगे |


आग्नेय दिशा का महत्व


आग्नेय का स्वामी गणेश आयुध शक्ति एवं प्रतिनिधि ग्रह शुक्र है | शुक्र समरसता तथा परस्पर मैत्री संबंधों का ग्रह माना जाता है |शुक्र से प्रभावित भवन में वास करणे वाले आकर्षक , कृपालु , मिलनसार तथा स्नेही होते ह| शुक्र का संबंध संगीत , कला , सुगंध , भोग – विलास , एश्वर्य एवं सुन्दरता से है | शुक्र का प्रधान लक्ष्य परमात्मा की सृष्टि को आगे बढ़ाना है | इसका जीवमात्र की प्रजनन क्रिया और काम जीवन पर अधिकार बताया गया है , जिसके फलस्वरूप यह क्रियात्मक क्षमता के द्वारा विकास क्रम में योगदान देता है | इसकी स्थिति से पत्नी, कामशक्ति , वैवाहिक सुख , संसारिक एवं पारिवारिक सुख का विचार किया जाता है | यह कालपुरुष की बायीं भुजा , घुटने एवं बाएं नेत्र को प्रभावित करता है | जन्म कुण्डली के एकादश एवं द्वादश भावों पर इसका असर रहता है | इस दिशा में दोष रहने पर दाम्पत्य सुख में , मोजमस्ती एवं शयन सुख में कमी बनी रहती है | साथ ही नपुंसकता , मधुमेह , जननेंद्रिय , रति , मूत्राशय , तिल्ली , बहरापन , गूंगापन और छाती आदि से संबंधित बीमारियों की संभावना रहती है |


 नैर्ऋत्य दिशा का महत्व


नैर्ऋत्य दिशा का स्वामी  राहु है | राहु एक शक्तिशाली छाया ग्रह है | इसके प्रभावों का शांति करके इसके प्रत्यक्ष रूप में अनिष्टकारी फल दूर नहीं किए जा सकते है | कोल ज्ञान तथा बुध्दिपूर्वक इससे सहयोग करके ही इसके दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है |यह काल पुरुष के दोनों पांवों की एड़ियां एवं बैठक है |जन्म कुंडली का आठवां एवं नौवं स्थान नैर्ऋत्य के प्रभाव में रहते है | यदि घर के नैर्ऋत्य में खाली जगह , गड्ढा , भूतल , जल की व्यवस्था या कांटेदार वृक्ष हो तो  गृहस्वामी बीमार होता है , उसकी आयु क्षीण होती है , शत्रु पीड़ा पहुंचाते हैं तथा सम्पन्नता दूर रहती है | नैर्ऋत्य दिशा से पानी दक्षिण के परनालों से बाहर निकलता हो तो स्त्रियों पर तथा पश्चिम के परनालों द्वारा पानी निकलता हो तो पुरुषों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा | नैऋत्य को दोषपूर्ण होने पर अकस्मात दुर्घटनाएं, अग्निकांड एवं अत्महत्या जैसी घटनाएं होती रहती है | इसके अतिरिक्त परिवार के लोगों को त्वचा रोग, कुष्ठ रोग, छूत के रोग ,पैरों की बीमारियां ,हाइड्रोसील एवं स्नायु से सम्बन्धित बिमारियों की संभावना रहती है |

देवों के शिल्पाचार्य विश्वकर्मा, दानवों के शिल्पकार मैं दानव

शिल्पशास्त्र के महान विद्वान महाराज भोजराज थे |उन्होंने अपने प्रसिद्ध तथा वस्तुशास्त्र के प्रामाणिक ग्रन्थ “समरांगण सूत्राधार “में विश्वकर्मा को शिल्पाचार्य के रूप  में उल्लिखित किया है तथा वास्तुशास्त्र के अनेकानेक मुख्य निर्देशों का प्रतिपालन अपने ग्रन्थ समरांगण में किया है | वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित बहुमूल्य ग्रन्थ निःसंदेह समरांगण सूत्रधार ही है | समरांगणका अर्थ है – एक भवन , एक गृह, एक इमारत जिसके निर्माण में सबके सब लक्षणों का पूर्णरूपेण विवेचन कर जिसका निर्माण किया गया हो तथा जिसके निर्माण कार्य में कोई त्रुटि अथवा कोई निर्माण दोष नहीं हो ,जो अनेक कक्षों वाला हो ,ऐसा समरांगण सूत्रधार नामक ग्रन्थ भवन-निर्माण वास्तु शिल्पशास्त्र के अनेकानेक सूत्रों से परिपूर्ण है तथा यही ग्रन्थ समरांगण सूत्रधार वास्तु भवन निर्माण कला के सूत्रों का परिचायक है |


सुखं धनानि बुद्धिश्च संतति सर्वदान्रिनाम् | प्रियान्येषां च संसिद्धिं सर्वस्यात शुभ लक्षणम् ||

यात्रा निदित लक्ष्मन्न तेहितेषां विधातकृत् | अथ सर्व मुयादेयं युद्भवेत् शुभ लक्षणम् ||


सम्पूर्ण रूप से,विधि-विधान से एवं उत्तम रूप से वास्तु नियमानुसार सुरुचिपूर्ण बनाया गया आवास/भवन सुख-सम्पति,बुद्धि एवं संतानदायक होता है तथा निर्माणकर्ता (गृहस्वामी) उस मकान में वास कर मानसिक शांति प्राप्त करता है एवं उस गृह में ऋण मुक्त होकर सुखपूर्वक निवास करता है तथा शुभ एवं उत्तम फल प्राप्ति कर अपने तथा अपने परिवार का भरण-पोषण करता हुआ सुख एवं आनंद से जीवनयापन करता है |


देश, नगर-निवास,सभागार ,वेश्म अर्थात उच्चस्तरीय आवास जैसे राजमहल, देवालय एवं छोटे-बड़े आवास गृह तथा आसन पिठादि अन्य स्थान एवं कोई भी प्रकार का छोटा या बड़ा निर्माण कार्य चाहे जैसा भी हो, यदि वह निर्माण कार्य वास्तुशास्त्र के निर्देशों के अनुसार हुआ है अथवा किया गया है ,तो वह निर्माण कार्य सदैव सुखदायक ,कल्याणकारी होगा तथा जिसमें लक्ष्मी का सुगम प्रवेश रहेगा | उसमें रहने वाले स्त्री-पुरुष आनंदोप्भोग करेंगे ऐसे समरांगण सूत्रधार में उल्लेखित है |


वास्तुशास्त्र के अनेक विद्वानों के नाम हमारे धर्म – ग्रन्थों में आते हैं | किन्तु इन सब वास्तुशास्त्रियों में विश्वकर्मा एवं मय को अत्यधिक महत्त्व प्राप्त हैं | भारत में दो प्रकार के निर्माण उपलब्ध हैं , एक उत्तर शैली के और दुसरे दक्षिण शैली के, इन दोनों में काफी अंतर है | दक्षिण भारत में जो मंदिर एवं प्रासादादी बने हुए है, उत्तर में वैसे निर्माण नहीं हैं | इसी प्रकार उत्तर  की और जैसे निर्माण है, वैसे  निर्माण दक्षिण  में नहीं हैं | भवनादी के निर्माण कार्यों की दो भिन्न – भिन्न  परम्पराएं है | जिन्हें हम उत्तरी निर्माण कला और दक्षिणीय निर्माण कला कह सकते हैं | उत्तरीय निर्माण कला के लिये हमें विश्वकर्मा प्रकाश एवं समरांगण सूत्रधार को सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में लेना चाहिए एवं दक्षिणीय निर्माण शिल्प के लिये विश्वकर्मीय शिल्प एवं मानसार को सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में लेना चाहिए |


उपरोक्त बातों को बताने का हमारा उद्देश्य यह है की वास्तुशास्त्र के मूलभूत सिद्धांतों से भवन/आवास निर्माणकर्ता अवगत हो जाये ,जिससे निर्मित एअस में वे सुखी रह सकें तथा समृद्धि से परिपूर्ण रहें | समरांगण सूत्रधार एक वृहद् ग्रन्थ है जिसकी रचना ग्यारहवीं सदी में हुई | यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक ग्रन्थ है | राजा भोज द्वार प्रस्तुत यह ग्रंथ वास्तुशास्त्रके मुलभुत सिद्धांतो तथा प्रमाणों से भरा हुआ है | राजा भोज का शासनकाल हिन्दुओं और मुगलों के शासनकाल का संधि-स्थल था | हिन्दुओ का शासन लुप्त प्रायः थे , मुग़ल भारत पर अपना अधिकार जमाकर अपनी जड़ें भारत भूमि पर मजबूत कर रहे थे |


राजा भोज खगोल विद्या के प्रकांड विद्वान थे और ज्योतिष के अनुसार ग्रह-योग नक्षत्रों की गणना अनुसार भवन निर्माण,वास्तु पूजा,वास्तु प्रतिष्ठा एवं गृह प्रवेश आदि संबंधित अनेकानेक सूत्र उन्होंने दिए हैं | समरांगण सूत्रधार राजा भोज की एक अनुपम भेंट है , जिसमें देव–प्रतिमा प्रतिष्ठा,  सभा भवन ,प्राथना भवन आदि के निर्माण के बारे में विस्तृत विवेचन हुआ है | ग्रन्थ में राजा भोज  ने उत्तम लक्षणों वाली भूमि का स्पष्ट उल्लेख किया है | वस्तुतः उन्होंने उसी भूमि  को निवास योग्य माना है ,जो मध्य स्थल पर उच्ची उठी हुई हो और पूर्व तथा ईशानकोण में झुकी हुई हो|अर्थात भूमि का जल प्लावन ईशान अथवा पूर्व दिशा की ओर होना उत्तम श्रेणी के भूखंड का लक्षण कहा गया है और ऐसे भूखंड पर किसी देश , नगर अथवा किसी आवासीय गृह का स्थित होना लक्ष्मीवर्द्धक , कीर्ति वाला वर्णित किया गया है |


राजा भोज ने जिन विश्वकर्म को शिल्पाचार्य माना है , वे विश्वकर्मा दिखाई नहीं पड़ते है ,किन्तु दिखाई न पड़ने पर भी उन्हों ने सारे विश्व और ब्रह्माण्ड का निर्माण किया | इसका अर्थ जो सर्व व्याप्त (सर्व कार्यो के निर्माण का संपादन करने वाले)है , समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है एवं हरेक कार्य में करता रूप – से उपस्थित है |उनकी शक्ति अपार है, वे शिल्प – कार्य के कुशल कारिगर है | उन्ही भगवन विश्वकर्म की शिल्प निपुणता से पृथ्वी – आकाश एवं पाताल लोक की रचना हुई है | द्वापर काल से पहले की सृष्टि की रचना विश्वकर्मा ने ही की है |द्वापर में भी लंका पूरी के निर्माण का वर्णन हमारे धर्मशास्त्रों में आता है अयोध्या पूरी वह जनकपूरी के वास्तु  निर्माण का पूरा वर्णन आता है , जो विश्वकर्मा के द्वारा निर्मित था |कहा जाता है की रावन के पास जो पुष्पक विमान था ,उसका निर्माण भी विश्वकर्मा ने ही किया था |त्रिभुवन नायक देवाधिदेव श्रीकृष्णा ने अपनी द्वारकापुरी के निर्माण के लिए स्वयं निर्देश देकर विश्वकर्मा के हाथों द्वारकापुरी के भव्य भवनों का निर्माण कराया | विश्वकर्मा पुराण में वास्तु शिल्प के सम्पूर्ण निर्देशों का वर्णन है | विश्व में इस भूतल पर जितने भी निर्माणक कार्य होते है ,उनके रचयिता केवल विश्वकर्मा है , अर्थात विश्व में सम्पादित होने वाले सम्पूर्ण कार्यो के वे ही आदि देव हैं | उनके बिना तो किसी भी प्रकार के आवास /भवनादी के निर्मंणकी कल्पना भी नहीं की जा सकती |ब्रह्मवैवर्त पुराण के १७ वें अध्या के अनुसार श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार विशकर्मा अपने तीन करोड़ शिल्प कला के निपुण वास्तुशिल्पी लेकर उपस्थित हुए|उन्हें ने वहां नगर – निर्माण कार्य आरम्भ किया |


भारतवर्ष का श्रेष्ठ एवं सुन्दर यह नगर पाच योजन विस्तृत था|चारों दिशओं  में चार दरवाजे थे ,चार – चार कक्षों से युक्त बीस भवन बनाये गए|रत्नसार रचित सुरम्य तूलिकाओं ,सुवर्णकर मणियों द्वारा निर्मित अत्यंत सुन्दर सोपान लोहसार के बने द्वारों तथा कृत्रिम चित्रों से वृषभान भवन की सोभा देखने योग्य थी |


विश्वकर्मा ने अपने बुद्धि के अनुसार सबसे विलक्षण भवन बनाये| ये भवन चार विशाल खाइयों से घिरे हुए थे और उन खाइयों में पत्थर जेड थे | खाइयों के कूलों पर पुष्पों के उद्यान थे,जिसके कारण वह पूरी पुष्पों से लड़ी-सजी-से लगती थी | मनोहर चंपा के वृक्ष तटों पर खिले रहते थे | वैसे आम, सुपारी, कटहल, नारियल, केले , केवड़े, कदम्ब आदि के वृक्ष भी वह मुख्यतः लगाये गए थे | इसके बाद विश्वकर्मा ने वृन्दावन जाकर मनिमय परकोटों से युक्त रासमंडल का निर्माण किया |स्थान-स्थान पर मणिमय वेदिकाएं बनाई ,वे श्रृंगार योग्य चित्रों से सुसज्जित और शय्याओं से संपन्न थीं|विश्वकर्मा द्वारा बनाए गए इस रमणीय स्थल भवनों, रासमंडल, वीथिकाओं ,निकुंजों को देखकर भगवान श्रीकृष्णा बहुत प्रसन्न हुए |


भवन निर्माण के सम्बन्ध में वेदों,पुराणों एवं उपनिषदों में अनेक सूत्र विद्यमान हैं और इस विषय में विस्तार से चर्चा इन ग्रन्थों में की गई है | कब ,कहा, किस स्थान पर कैसा भवन बनाना चाहिए ,इस बारे में अनेकों निर्देश प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध हैं | श्री रामावतार के समय आयोध्या-जनकपुर तथा लंका में कैसा निर्माण कार्य हुआ था इसका वृतांत हमें मिलेगा | वैदिक युग के सबसे महान वास्तुशास्त्री विश्वकर्मा ही थे |वे हजारों वास्तुओं के निर्माता , देव-प्रतिमाओं के स्वरुप प्रदाता, परिधानों, आभूषणों , स्थापत्य कला एवं वास्तुशिल्प के ज्ञाता हैं | भवन निर्माण के प्रधान देवता एवं वास्तु के प्रधान आचार्य वे ही हैं |

वास्तुसुधार से जीवन में उन्नति

पूर्वपश्चिमर्योदेधर्य सूर्यवेधं प्रकथ्यते दक्षिणोत्तरयोर्देर्ध्य चन्द्रसूर्यवेधं प्रकथ्यते |

चन्द्रवेधं गृहकार्य सूर्यवेधं जलाशयम उभयो वाटिकायां च वेधं सौख्यफल प्रदम ||


ऑफिस का इंटीरियर सेटिंग इत्यादि


निवास स्थान या व्यापारिक स्थान में चन्द्रवेदी एवं आयताकार को उत्तम माना गया है | इसमें वास्तु के अनुसार सामान रखने  से कार्य करने की क्षमता एवं कार्य में विकाश होता है   


१)    ऑफिस में जब भी टेबल लगानी हो ,तो वह ऑफिस के नैऋत्य कोण में लगानी चाहिए | आपका मुख पूर्व या उत्तर में होना चाहिए |


२)     विजीटिंग कुर्सी आपके टेबल के सम्मुख होनी चाहिए |एवं घुमावदार (रिवालविंग )होनी चाहिए | मालिक के बैठने की कुर्सी लकड़ी की  चार टांग वाली होनी चाहिए | उस कुर्सी में किसी भी तरह की लोहे की कील न लगाए ,लकड़ी की लगाएं  और जरूरत हो तो पीतल की लगा सकते हैं | विजिटिंग की कुर्सी से मालिक की कुर्सी ऊंची एवं बड़ी तथा सुन्दर होनी चाहिए | उस कुर्सी पर बैठने से आत्मविश्वास में वृद्धि होती है |


३)   मुख्य गेट के सामने में टेबल नहीं होनी चाहिए | मुख्य रूप से आपकी टेबल कटनी नहीं चहीए ,यदि ऐसा हुआ तो एकाग्रता नष्ट होगी ,ऐसा नहीं हो तो एकाग्रता में वृद्धि होगी |


४ )    सिलिंग पर बीम का अगर वेध हो तो उसे अतिशीघ्र पीओपी करवा कर एक रूप दे दें | बीम रहने से माथे पर बोझ , सर का भार बढ़ाता है | बीम नहीं रहने से मस्तिष्क पर भार नहीं होता एवं मन हल्का व प्रसन्न रहता है |


५ )    ऑफिस के लिए टेबल बनाते समय , साइड टेबल बनाते समय , बैक टेबल बनाते सनी ध्यान रखें कहीं आपकी टेबल यू आकार में तो नहीं है | अगर हैं तो आप ऑफिस में अपने को बंधा – बंधा महसूस करेंगे | ऑफिस से बाहर निकलकर काम करने की इच्छा नहीं होगी | बंधन मुक्त होने के लिए एल शेप में टेबल बनवाएं |


  ६ )  आपके पीठ के पीछे कोई बढ़ी खिड़की या दरवाजा नहीं होना चाहिए |अगर है तो आपमें साहस की कमी होगी |साहस को पाने के लिए खिड़की में ग्लास (शीशा ) लगाकर बंद करें | शीशा लगाने से प्राकृतिक रोशनी का आगमन होता रहेगा | नैऋत्य कोण से आने वाली नकारात्मक ऊर्जाओं का आना बंद हो जाएगा |


७ )  आपके ऑफिस की टेबल का टॉप ग्लास का न हो | ग्लास का होने से आपका अक्स ( बिंब ) उसमें दिखाई देता है , ऐसे में शरीर की ऊर्जाओं को कम करने में अक्स सहायक बन जाता है | अगर ऐसा है तो आप कमजोरी , थकान महसूस करेंगे , है तो बदल लेवें | कोई भी प्लेन मैट , बेलबेट , वुडेन फिनिसिंग , मेटपॅालिश का टॉप व्यवहार में लाएं | ऐसा करने से कमजोरी का पलायन होगा |साहस की वृध्दि होगा |


८ )  ऑफिस के रूप में प्राकृतिक रोशन , हवा आना अति आवश्यक है | ए . सी . ऑफिस  होने के कारण प्रकृतिक हवा ए . सी . के सहयोग से आती है , प्राकृतिक रोशनी आने के लिए इंटीरियर की सलाह लेकर शीशों के द्वारा रोशनी अंदर लाई जाती है | प्राकृतिक रोशनी एवं हवा से मानव की कार्य क्षमता बढ़ जाती है | कार्य क्षमता बढ़ाने के लिए निः शुल्क मिलने वाला सहयोग प्राप्त करें |


९)    ऑफिस में बंद घड़ी , धीमी चलने वाली घड़ी , खंडित वस्तुएं , डस्टबिन ईशान कोण में रखना , ईशान कोण में भारी – भरकम समान या अलमारी रखना , ईशान कोण की दीवार पर पहाड़ का चित्र होना , ईशान में मेन स्वीच होना , दरवाजा खोलने से आवाज होना , दरवाजा ऑफिस से बाहर की ओर खुलना , ऑफिस का कलर आंखों को चुभने वाला होना , ऑफिस का अत्यधिक फर्निचर से भरा होना , नैऋत्य में पेपर कटिंग मशीन होना , नैऋत्य में पानी के झरने का पोस्टर लगा होना उपरोक्त चीजों में से कुछ भी है तो नकारात्मक उर्जाओं का आगमन होगा | इन सभी को यथा स्थान पर लगावों इससे सकारात्मक उर्जाओं का आगमन होगा और आपको आगे बढ़ने की राहें दिखाई देने लगेंगी | 

वनस्पतिया भी प्रभावित करती है वास्तु को

आवास की समस्या मनुष्य की सबसे पहली समस्या है और इसका मुख्य कारण जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि का होते जाना है | रोटी और कपड़े के बाद मनुष्य की तीसरी सबसे बड़ी आवश्यकता मकान (आवास)की है | प्रत्येक मनुष्य की यह मनोकामना होती है की उसकी अपनी हैसियत के मुताबिक उसका अपना मकान हो , जहां पैर फैलाकर , निश्चित होकर वह निद्रा का भोग कर सके,जिसे अपनी इच्छानुसार सजा-संवार सके, देवी-देवताओं को स्थान दे सके, पूजा-स्थल आदि का निर्माण कर सके |


विश्वकर्मा ने भवन के चित्रांकन एवं निर्माण विधि की जो जानकारी दि, उसे ‘वास्तुशास्त्र’ या ‘वास्तु कला’ कहते है | वास्तु भारत का प्राचीन शास्त्रीय ज्ञान है , जिसकी सार्वभैम प्रामाणिकता वेद और पुराणों के सामान है |वास्तु के सिद्धांतो का पालन करने से मनुष्य अपने जीवन में सुख और शांति पाता है |अधिकांश विद्वान वास्तु का तात्पर्य भवन निर्माण की कला से मानते है | वास्तु शब्द ‘वस्तु’ शब्द का आधार है , जिसका अर्थ है ‘जो है’ अथवा ‘जिसकी सत्ता है’ वो ही वास्तु है , इसलिए वस्तु से सम्बन्धित शास्त्र को ही ‘वास्तुशास्त्र’ कहा जाता है |


कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार , वास्तु ‘वस’ शब्द से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘वास करना’ अर्थात् ‘रहना’ है |वास्तु मात्र भवन-निर्माण कला का पर्यायवाची शब्द नहीं है , अपितु वास्तु का क्षेत्र भवन-निर्माण कला से अत्यंत विशाल एवं विस्तृत है | वास्तु का संस्कृत में शाब्दिक अर्थ ‘मनुष्य तथा देवों का निवास स्थान’ है |


वास्तुशास्त्र को विज्ञान भी कहा गया है | इसमें जो नियम निर्धारित हैं ,सारे प्राकृतिक नियमों के अनुसार हैं,सौरमंडल के ग्रह-उपग्रह की चाल,सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों का मनुष्य और भूमंडल तथा वास्तुमंडल पर उसका प्रभाव | ज्योतिषानुसार राशियों और नक्षत्रों पर नवग्रहों का प्रभाव आदि टे सारे सिद्धांत विज्ञान सम्मत है ,और इन्ही सिद्धांतो पर आधारित है, भारतीय वास्तुशास्त्र |


भारतीय वास्तुशास्त्र और पाश्चात्य वास्तुशास्त्र में बहुत अंतर है एवं आजकल का भारतीय भवन निर्माण विज्ञान आधुनिक युग की सुख-सुविधाओं को ध्यान में रखकर कम – से-कम खर्च, कम-से-कम क्षेत्रफल के भूखंड पर अधिकाधिक बहुमंजिले आवास बनाकर जनसमुदाय को उपलब्ध कराना है, पर ऐसे बने आवासस्थल भौतिक सुख तो प्रदान कर सकते हैं, किन्तु ये निर्माण शास्त्रोक्त विधि अनुसार न होने के कारण लोगों को रोग ,शोक, निर्धनता, आदि-व्याधि से घेरे रहते हैं,धन-लक्ष्मी का प्रवेश भी वहां  न के बराबर होता है | यह ध्यान देने वाली बात है की जहां भौतिक सुख-सम्पदा होंगे, वह फिर अन्य सुविधाएं कहां मिल सकेंगी | आधुनिक भारतीय भवन-निर्माण कला एवं पाश्चात्य भवन-निर्माण कला केवल निर्माण-कला के बारे में ही अपना सिद्धांत रखते है ,वास्तु के जो दुसरे व प्रधान सूत्र हैं, उनका इन निर्माण विधियों से पालन नहीं किया जाता है | फलतः भवनों के कक्षों में सूर्य का प्रकाश , शुद्ध व ताजी वायु का आवागमन, शयन कक्षों की स्थिति , देव-स्थानों की उचित स्थिति एवं दिशा , अध्ययन-अध्यापन तथा अतिथि आदि के लिए उचित स्थान का आभाव रहता है और इसी कारण इस प्रकार के निर्माणों में मनुष्य वास करता है ,दुःख भोगता है ,और आर्थिक संकटों में जीता है |


भवन आदि पर पड़ने वाली सूर्य की किरणें और पृथ्वी पर उपलब्ध जल –ये दोनों तत्व अत्यंत पवित्र करने वाले हैं, ये ही मनुष्य के यज्ञ को आगे बढ़ाकर उसको उन्नत कर उसे धन-धान्य से पवित्र कर सुख-सौभाग्य के द्वार खोलते हैं , सुख और शांति प्रदान करते हैं | इसका स्पष्ट अर्थ है , यदि भवन में , आवास या दुकान में वायु, जल और प्रकाश की व्यवस्था है , तभी वहां धनागम, आर्थिक उन्नति , आरोग्यता तथा सुख –शांति व्याप्त होगी | सूर्य अपनी किरणें निरंतर भूतल पर छोड़ता है , ये किरणे हमारे आवास में प्रवेश कर आवासको पवित्र करती है तथा सूर्य किरणें ही पृथ्वी पर जल वर्षा कर धरा को धन-धान्य से परिपूर्ण करती है | यह सम्पदा हमें इश्वर ने दि है और इस प्रदत्त सूर्य किरणों और जल के द्वारा ही हम अपने समस्त कार्यों को पवित्र कर सकते है | धन-धान्य सम्पन्नता ,सुख-सुविधाओं को प्राप्त करने का सुगम साधन सूर्य और जल ही है | बहुत सारे अणुओं के पिंड में जो शक्ति होती है , वो ही शक्ति अन्य अणुओं में भी होती है , किन्तु उससे अधिक शक्ति परमाणुओं में होती है ,जो अणुओं के एक अंश मात्र है | आवास का अस्तित्व अणुओं के संयोग से होता है | निर्माण-कार्य बिना अणुओं के संयोग के संभव नहीं | अणु से रेत है , अणु से ही ईट है और उसी से सीमेंट बनता है , इन सबके मिलन से ही आवास निर्मित होता है , जो प्रकृति का ही अंश है |


संसार की अचर एवं चर सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ जिव मनुष्य है | परिणामस्वरूप इसके पास ज्ञान नाम की अतीव दुर्लभ सम्पदा है ,जिसका उपयोग वह अपने अहंकार के कारण नहीं करता और वह इश्वर द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक उर्जा का सम्पूर्ण प्रयोग नहीं कर पता , इसी कारण आज धरती पर वह दुखी और संतप्त है | प्रकृति के विरुद्ध आचरण करने की वजह से सुख-विलास के साधनों का उपभोग करता हुआ भी वह अत्यंत कष्ट भोग रहा है |


जहां भूतल पर व्याप्त गर्मी ,सर्दी,जल और वर्षा का आनंद मनुष्य को आरोग्यता का सुख प्रदान करता है | वहां अन्न ,फल एवं वनस्पतियों को पैदा होने में सूर्य-चन्द्रमा, वायु और वर्षा का ही महत्त्व है और उसी से जीवन है | मनुष्य उसके विपरीत सूर्य किरणों से,उसकी उर्जा से दूर हटकर वैज्ञानिक साधनों के द्वारा सूर्य किरणों की उर्जा-शक्ति को संगृहित कर उसके द्वारा अपने लिए कृत्रिम साधन उपलब्ध करता है और अल्पकालीन दैहिक सुख का अनुभव करता हुआ प्रकृति से दूर चला जा रहा है , साथ-साथ हमारे प्राचीन मनीषियों द्वारा प्रतिपादित वास्तु-सूत्रों को भी काल्पनिक कहकर नकारता हुआ दुःख भोग करता है |प्रकृति अपनी नियमबद्धता एवं एकरूपता में रहती है –अपने गुण, धर्म या नियमों का परित्याग नहीं करती | वायु, जल, अग्नि, सूर्य , चन्द्रमा , ग्रह और तारे आदि अपनी मर्यादा के अनुसार आचरण करते है | एवं अपनी एकरूपता को कभी नहीं छोड़ते | इसके विपरीत मनुष्य उसकी इस नियमबद्धता के विरुद्ध आचरण करता है | सूर्य,वायु और प्रकाश आदि की गति और नियम के विरुद्ध आचरण करने से यदि कष्ट का उपभोग करता है,तो उसमें दोष किसका है ? मनुष्य का यानी हमारा अपना है | हम बहुमंजिले भवन बनाते है, जिसमें न वायु प्रवेश करती है, न सूर्य की किरणें, न ही हम चन्द्रमा की रश्मियों का आभास पाते है ,न ही कभी खुले आकाश को निहार पाते है ,इस कारण रोग-व्याधियां तो होनी ही हैं | गर्मी में वातानुकूलित कक्षों में रहते है ,सर्दी में हीटर से गर्मी प्राप्त करते हैं | प्रकृति के संतुलित उर्जा स्रोतों से दूर जाकर सुख और सौभाग्य की कल्पना करते हैं | जो क्षणिक सुख तो देगी, पर कालांतर में इसका कुप्रभाव भी हमे भोगना पड़ेगा | तनिक सोचिए, जिस मकान में , फ्लैट या कक्ष में सूर्य की एक किरण भी प्रवेश नहीं करती, वहां लक्ष्मी का प्रवेश किस प्रकार संभव है ?


प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः |

अहंकार  विमूढात्मा   कर्ताहमति मन्यते ||


अर्थात् संपूर्ण  कार्य प्रकृति के अनुसार ही होतो हैं , किन्तु मनुष्य अहंकारवश अपने आपको ही सब कुछ (महान ) मान लेता है तथा प्रकृति के विरुद्ध आचरण करता है |अब यदि उसे कष्ट भोगना पड़ता है तो कोई क्या कर सकता है |


वास्तुशास्त्र का मूल सिध्दांत है ,प्रकृति के अनुकूल प्रकृति के तत्वों के अनुसार भवन की रचना करना,जिससे भवन – स्वामी पूरा –पूरा लाभ उठा सके | किन्तु जो मनुष्य केवल अपनी पसंद का खयाल रखते हुए गलत निर्माण करता है , लक्ष्मी को प्रवेश का मार्ग नहीं देता , वह आर्थिक रूप से सदा परेशान रहता है | ब्रम्हांड में शक्ति तीन रूप में विद्यमान है –स्थूल रूप में ब्रह्माण्ड में दृष्टिगोचर है एवं सूक्ष्म रूप में वर्णमय रूप में विद्यमान तथा पररूप में शरीररूपी पिंड में क्रियाशील है | बाह्य जगत में ग्रह, उपग्रह, अग्नि, वायु और जलादी जो चैतन्य स्वरुप दृष्टिगोचर होता है , वही तो गति है , वही तो क्रियाशील होता है ,उसी के प्रभाव से हम अपना जीवन जीते है ,उसके सिद्धांतो के अनुरूप यदि हमारा आवास है तो फिर ब्रह्माण्ड में व्याप्त शक्तियों का हम पूरा-पूरा उपभोग कर सकते हैं |धन-धान्य व शरीर से सुखी रह सकते हैं | यदि उक्त शक्तियों के विपरीत यानि प्रकृति के नियमों के विपरीत हमारा आचार-व्यवहार अथवा आवास-प्रवास है, तो फिर निश्चित ही हमें उसके विपरीत फलों को भोगना पड़ेगा | गरुण पुराण में स्पष्ट लिखा है-


सुखस्य  दुखस्य न कोऽपि दाता  परो ददातीति कुबुद्धिरेषा |

स्वयं कृतं स्वेन फलेन युज्यते शरीर हे निस्तर यच्वया कृतम् ||


सुख  और दुःख कोई देनेवाला नहीं है ,हम अपनी कुबुद्धि के अनुसार आचरण करने ,प्रकृति के विरुद्ध व्यवहार ,आहार-विहार, वास-प्रवास करने के कारण दुःख भोगते है ,क्योंकि ये दुःख और कष्ट हमारे द्वारा बुलाए जाते है | वस्तुतः हम पृथ्वी पर पंचभूतों के विपरीत अपना जीवन निर्वाह करते है |


कभी-कभी ऐसा होता है कि मकानादी का निर्माण वास्तुपरक किया गया होता है , किन्तु फिर भी धनलक्ष्मी गृहस्वामी से कोसों दूर रहती है | अनेक प्रकार की विपत्तियां और व्याधियां उसे घेरे रहती है |इसका कारण यह है कि मकान में लगाया गया एक वृक्ष भी शुभता या अशुभता का सूचक हो जाता है | अतः निर्माण के साथ-साथ इन बातों का ध्यान रखना भी आवश्यकता है | वास्तुशास्त्र के महान ज्ञाता वाराहमिहिर के अनुसार , आवास गृह के समीप पलाश, वट, उदुम्बरा, पीपल यदि पश्चिम, उत्तर या पूर्व में हो तो गृहस्वामी को आपदाओं में डालने वाले होते है | किन्तु यदि यही वृक्ष अर्थात् उत्तर में पलाश, पूर्व में वाट वृक्ष, दक्षिण में उदुम्बरा (गुलर) एवं पश्चिम में पीपल हो तो धन से गृहस्वामी को सुखी बनाते हैं | आवास गृह के पास कौन से वृक्ष अथवा पौधे लगाने अथवा नहीं लगाने चाहिए, इसका विस्तार निम्नलिखित है-


गृहपार्श्वे च फलिनो दुग्धाः कष्टकिनोऽशुभः | शस्ता च कदली जतिश्चंपकाः पटला द्रुमा ||

छाया वृक्षस्य न शुभा यामादूर्ध्व कदाचन  | न प्रभा   दुष्फलदा    याममात्राय शेषके ||


गृह के निकट फल वाले तथा क्षीर (दुग्ध)वाले एवं रोवें , कांटों वाले वृक्ष अशुभ होते हैं | केला,चंपा,चमेली और पटल वृक्ष शुभ है | एक प्रहर से अधिक की छाया गृह पर पड़ना शुभ नहीं है तथा एक प्रहर की छाया का शेष रहना भी अशुभ माना गया है |


निलीं   हरिद्रां च नरः   सदप्खा,  पुत्रौर्धनैश्च   क्षयम्युपेयात् |

एतास्तु सर्वा स्वमेव जाता , श्छिन्द्यादुषीणां वचनाद्विधिज्ञः ||


अपने गृह के उपवन में नीली एवं हरिद्रा के गाछ को लगानेवाला व्यक्ति अपने विनाश को स्वयं ही आमंत्रित करता है एवं स्वयं तो वो नष्ट होता ही है ,साथ – साथ धन सम्पति एवं पुत्र – पुत्रों के अनिष्ट का कारण भी बन जाता है | इन पौधों को लगाना तो दूर की बात है , यदि अपने आप ही ये पौधे उद्यानादि में उग आएं, तो उन्हें तुरंत नष्ट कर देना चाहिए , ऐसा विद्वानों का कथन है |


नकुयुर्याम्य नैरुर्त्यत्यागनेप्वपिहि वाटिकाम् |

अन्यथा कल्होद्वेगौ कष्टं  वा लभतेमृशम ||


गृहस्वामी को गृह निर्माण के बाद के नैऋत्य  कोण एवं अग्नि कोण (आग्नेय) में बगीचा या उद्यान नहीं लगाना चाहिए | यदि ऐसा किया जाता है तो उसका फल दुखदायी और विनाशकारक होता है |


बर्ज्येत्यूत तोश्व्त्थं प्लक्षंदक्षिणतो गृहात् |

पश्चिमे  चैव न्यग्रोथं तथोदुम्बर मुत्तरे ||


गृहस्वामी को पूर्व दिशा में पीपल का वृक्ष , दक्षिण दिशा में पलाश का वृक्ष , पश्चिम दिशा में वट वृक्ष एवं उत्तर दिशा में उदुम्बर वृक्ष कभी नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि की गृहस्वामी को कष्ट प्रदान करता है |


    सर्वेषाः वृक्ष जातीनां छाया वज्यां गृहे सदा |

अपि  सौवर्णिक  वृक्ष  गृहद्वारे न  रोपयेत्  ||


गृहस्वामी को अपने मकान के ऊपर किसी भी वृक्ष की छाया नहीं पड़ने देना चाहिए | अर्थात मकान के ऊपरकिसी भी वृक्ष की छाया नहीं पड़नी चाहिए , वृक्ष चाहे सोने का फल देनेवाला ही क्यों न हो ,अनिष्टकारी होता है | 


आसन्न कंटकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोर्थ नाशाय |

    फलनिं  प्रजाक्षयकरा  दारुणयपी  वर्जयेतेषाम् ||


घर के पास कांटेदार वृक्ष हो तो गृहस्वामी को हर समय शत्रु की ओर से भय बना रहता है | क्षीर-वृक्ष वास्तु गृह के निकट होना धन हानिकारक है (अर्थात् उस घर से लक्ष्मी चली जाती है) | फलवाला तथा काँटों से परिपूर्ण वृक्ष, जिसमे दुध जैसे रस निकलता हो , घर के निकट होने से जन हानि होती है | अतः गृह-निर्माण के समय इस प्रकार के वृक्षों को हटा देना चाहिए  , वे चाहे कितने ही श्रेष्ठ क्यों न हों |


बदरी कदली चैव दाड़िमी विजपूरकम् |

 प्ररोहंती गृहे  यस्य तद्गृह न प्ररोहंती ||


जिसके घर में बदरी , कदली , दाड़िम और अरंड आदि वृक्ष फलते-फूलते हैं ,उस गृह में गृहस्वामी के पुत्र-पौत्रों की वृद्धि प्रायः असंभव है |


पलाशाः काच्व नाराश्च तथा श्लेष्मातका अर्जुनाः |

करच्चाश्चे  त्यमी   वृक्ष  न  रोप्याः  सुखिना  गृहे ||


जो व्यक्ति अपने आवास में सुख-शांति और समृद्धि की कामना करता है , उसको अपने गृह उद्यान में पलाश, कचनार, श्लेशमंतक, अर्जुन एवं करंजादी वृक्ष कभी नहीं लगाने चाहिए |


अथ निवासपन्न   तरु   शुभाशुभ  लक्षणानि | गृहस्थ    पूर्वदिग्भागे  न्यग्रोधः  सर्वकामिकः ||

उदुम्बरस्तथा याम्ये वरुणायां पिप्पलः शुभः |प्लक्षश्चत्तरतो  धन्यो वितरीतान्स्तु  वर्जयेत् ||


गृह के निकट वृक्षों के होने का शुभ लक्षण यह है | गृह के पूर्व दिशा में बरगद का वृक्ष होना गृहस्वामी की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाला होता है | उदुम्बरा का वृक्ष दक्षिण में , पीपल का वृक्ष पश्चिम में एवं पलाश का वृक्ष उत्तर में स्थित हो तो उत्तम फलदायक माना गया है | इनके अतिरिक्त दुसरे कोई भी वृक्ष हों तो उन्हें अशुभ कहा गया है ,अतः गृह के पास ऐसे वृक्षों का होना वर्जित है |


तस्माद्राक्षा हि शुभदं पुत्रन्सनिधिवर्धनम् |

पश्चिमोत्तर    पूर्वेषु  भवेदुपवनं   कृतम् ||


यदि कोई व्यक्ति अपने आवास के उत्तर अथवा पश्चिम दिशा में उद्यान बनवाता है तो उसकी वंश-वृद्धि होती है | अर्थात् पुत्र-पौत्र अधिसंख्यक होते हैं | अतः अपना गृह उद्यान उत्तर एवं पश्चिम दिशा मे बनना चाहिए |


यावाद्दिनांनी तुलसी रोपित यद्गृहे बसेत् |

तावद्वर्ष   सहस्त्रानि   बैकुंठ   स  महीयते ||


वह व्यक्ति अवश्य ही हजारों वर्ष तक वैकुण्ठ धाम में रहने का अधिकारी होता है, जिसके घर में तुलसी का पौधा सदा विद्यमान रहता है |


एवमेव  हि योश्वत्थम्  रोपयेद्विधिना नरः |

यत्र कुत्रापि वा स्थाने गच्छेत्स भवनं हरेः ||


जो व्यक्ति अपने उद्यान में  पीपल का वृक्ष विधि-विधान पूर्वक लगता है , वह श्रीविष्णु धाम को प्राप्त होता हैं | अर्थात् उसे बैकुंठ में वास मिलता है |


तेनेष्टा  वहवो  यज्ञास्तेन  दत्ता   बसुन्धरा |

स सदा ब्रह्मचारी स्याध्येन धात्रीप्ररोपिताः ||


जो व्यक्ति आंवले के वृक्ष का रोपण अपने गृह उद्यान में करता है , उसको ब्रह्मचारी ब्राह्मणों का सतत आशीर्वाद मिलता है तथा वह अनेकानेक यज्ञों के पुण्य का भागीदार बनता है |


वाट वृक्ष द्वयं भर्त्यो रोपयेधो यथा विधि |

शिवलोके  बसेत्सोपि  सवितस्वप्रो गणैः ||


दो वाट वृक्षोंका रोपण जो व्यक्ति करता है , वह निश्चय शिवधाम को जाता है | उसका स्वागत गन्धर्व एवं अप्सराओं के द्वारा होता है |


यस्तु  संरोप  येद्विल्वं  शंकर  प्रीतिकारकम् |

तत्कुलेपि सदा लक्ष्मीः संतिष्ठेत् पुत्रपौत्रिकी ||


भगवान शंकर का अति प्रिय बिल्व वृक्ष घर के उद्यान में रोपण करने वाले व्यक्ति के घर में लक्ष्मी महारानी पुश्त-दर-पुश्त विराजमान रहती है | उपरोक्त बातों से स्पष्ट होता है कि मकान में लगा या लगाया गया एक वृक्ष भी रोग,भय, निर्धनता और मृत्यु  प्रदान कर सकता है तथा श्रेष्ठ, और उचित स्थान का वृक्ष मकान में धनलक्ष्मी के आगमन को प्रशस्त कर मनुष्य को सुख, ऐश्वर्य और धन-धान्य से परिपूर्ण कर देता है |

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